कम सन्तान सुखी इंसान का नारा एक मन्त्र की तरह भारत के अभिजात्य वर्ग ने सबसे पहले स्वीकार किया था। इन्दिरा गाँधी ने तो परिवार नियोजन को लेकर 1972 से इस अभियान को तेजी प्रदान की। जबकि इन्दिरा के पिता जवाहर लाल नेहरू ने 1952 में अपनी सरकार की पहली पारी में ही कम सन्तान सुखी इंसान का नारा दिया था। नेहरू ने ऐसा करके सारे संसार में जनसंख्या नियंत्रण का अभियान छेड़ने वाले पहले नायक का गौरव प्राप्त किया था। तब तक संसार के किसी देश में जनसंख्या नियन्त्रण की बात नहीं उठी थी।
नेहरू ने भारत में गरीबी को लेकर यूरोप और अमेरिकी देशों के आरोपों से दुखी होकर भारत में जनसंख्या नियन्त्रण की पहल की थी। क्योंकि तब भारत में अपनी जनसंख्या की उदरपूर्ति के लिए पर्याप्त अन्न तक उपलब्ध नहीं था। अन्न की याचना के लिए जब वह बाहर जाते तो उन्हें सुनना पड़ता कि भारत में जनसंख्या निरन्तर बढ़ रही है। उस अनुपात में उत्पादन बढ़ाने के संसाधन भारत में नहीं थे। भारत को लज्जित करते हुए विदेशी योजनाकार परामर्श देते कि जनसंख्या वृद्धि को रोकने के उपाय करें।
इन्दिरा गाँधी के समक्ष वही चुनौतियां बनी हुई थीं। 1971 का चुनाव उन्होंने गरीबी हटाने का नारा देकर जीता था। तब उन्होंने 1972 में परिवार नियोजन को बड़े अभियान का रूप दिया। इस अभियान के तीन चरण तय किये गये। पहला चरण था लोगों को सीमित परिवार का संकल्प लेने के लिए प्रेरित किया जाय। इसके लिए नव विवाहित जोड़ों से कहा गया – पहला बच्चा अभी नहीं। तीसरा बच्चा कभी नहीं। इन्दिरा सरकार के इस अभियान का दूसरा चरण था पहले कमाओ फिर खाने वाले लाओ। इसके अन्तर्गत प्रजनन को इच्छानुसार रोके रखने के लिए उपाय सुझाये गये। इसमें सबसे खतरनाक उपाय था हार्मोनल परिवर्तन करके प्रजनन की नैसर्गिक शक्ति को बाधित कर देना।
इसके अतिरिक्त महिलाओं के आन्तरिक अंगों की दशा में अवरोध उत्पन्न करने के उपाय प्रत्येक महिला चिकित्सालय में उपलब्ध कराये गये। ऐसे उपायों पर सरकार ने बहुत बड़ी धनराशि व्यय की। साथ ही चिकित्सकों तथा सहयोगी कर्मचारियों की व्यवस्था की गयी। इन उपायों को हिन्दू समाज में बहुविधि प्रचारित किया गया। तीसरे चरण में प्रजनन शक्ति को पूर्णतया बाधिक करने के उपाय सुझाये गये। इसी के अन्तरगत नलबन्दी (महिला हेतु) और पुरुष के लिए नसबन्दी कराने का विकल्प दिये गये। लोगों को प्रेरित किया जाता कि दो सन्तानों के बाद नलबन्दी या नसबन्दी के माध्यम से अपनी प्रजनन शक्ति पर स्थायी रोक लगायें।
इन्दिरा गाँधी ने 26 जून 1975 में जब भारत के लोकतन्त्र को आपातकाल का झटका देकर तानाशाही की ओर बड़ा पग बढ़ाया तो उनके बिगड़ैल बेटे संजय गाँधी ने 1975 से 77 के बीच नसबन्दी-नलबन्दी का क्रूरतम अभियान चलाकर 60 लाख से अधिक स्त्री-पुरुषों की नसबन्दी करा डाली। इसकी प्रेरणा इन्दिरा और संजय गाँधी को जर्मनी के अतिवादी शासक हिटलर से मिली थी। जिसने अपने कालखण्ड में 42 लाख से अधिक जर्मनी वासियों की नस कटवा कर उनसे प्रजनन का अधिकार छीन लिया था। हिटलर का कहना था कि जो आर्थिक रूप से सबल नहीं हैं उनको अपने जैसे निर्धन और निर्बल लोगों को जन्म देने का अधिकार नहीं होना चाहिए।
यह सही है कि भारत जैसे देश की जनसंख्या तेजी से बढ़ती रही है। तद्यपि इस समस्या का दूसरा पक्ष भी है। यह कि भारत के हिन्दू समाज ने जनसंख्या वृद्धि दर को कम करने के सुझावों को बड़ी गम्भीरता से स्वीकार किया। भारत सरकार की आर्थिक सलाहकार परिषद की 2024 की रिपोर्ट में बड़े आश्चर्यजनक तथ्य प्रकट हुए हैं। इसमें बताया गया है कि भारत के हिन्दुओं की जनसंख्या वृद्धि दर में आठ प्रतिशत की दर से गिरावट आयी है। यह गिरावट 1952 से निरन्तर देखने को मिली है। जबकि इसी अवधि में मुसलमानों की जनसंख्या 43 प्रतिशत बढ़ गयी है।
यह रिपोर्ट बताती है कि भारत के मुसलमानों ने अपनी जनसंख्या वृद्धि दर को और तेज करने में योजनाबद्ध रीति से सफलता पायी है। इसका कारण पूरी तरह मजहबी उन्माद बताया जाता है। मुसलमानों का नेतृत्व भारत में राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए मजहबी दांव चलाकर सफलता प्राप्त कर रहा है।
भारत में अल्पसंख्यक अर्थात मुसलिम और इसाई समाज के उत्पीड़न का झूठा भय दिखा कर हौवा खड़ा किया गया। कई दशकों तक मुसलिम और इसाई मतों के भरोसे राजनीति करने वाले दलों के नेताओं ने अल्पसंख्यक उत्पीड़न की चीख पुकार मचायी। इसका उद्देश्य इनके संरक्षण के लिए देश की विधायिका में विधान बनाकर अतिरिक्त सुविधाएं और अवसर लेना रहा है।
वास्तविकता यह है कि स्वतन्त्रता के बाद से अल्पसंख्यक उत्पीड़न की गुहार लगाकर बहुसंख्यक वर्ग को दबाने और उनके अधिकारों में कटौती करने की कुचेष्टाएं होती रहीं हैं। सरकार की आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्ययन में कहा गया है कि 1950 में भारत में मुसलमानों की जनसंख्या भारत की कुल जनसंख्या में 9.84 प्रतिशत थी जो 1915 में 14.92 प्रतिशत हो गयी। मुसलिम जनसंख्या की वृद्धि दर में तेजी का मूल कारण मुसलिम समाज द्वारा जनसंख्या नियन्त्रण की सरकारी योजनाओं से शुरू से ही दूरी बना लेना रहा है। नेहरू और इन्दिरा दोनों के कालखण्डों में जनसंख्या वृद्धि को रोकने के लिए जो उपाय सुझाये गये उन्हें मुसलमानों ने कदापि स्वीकार नहीं किया। इसी प्रकार इसाई समाज ने भी भारत में जनसंख्या वृद्धि के लिए सारे कीर्तमान तोड़े हैं।
भारत से विलग हुए पाकिस्तान में हिन्दू जनसंख्या 1947 में 26 से 42 प्रतिशत तक थी। जो अब 1.8 प्रतिशत पर सिमट गयी है। बांग्लादेश में 24 से 48 प्रतिशत तक हिन्दू जनसंख्या थी। जो अब 2.3 प्रतिशत से 8.2 प्रतिशत तक विभिन्न क्षेत्रों में सिमट गयी है। जबकि इसी कालखण्ड में बांग्लादेश में मुसलिम जनसंख्या की वृद्धि दर कई गुना अधिक रही है। अफगानिस्तान ऐसा देश है जो कभी पूरी तरह हिन्दू जनसंख्या वाला देश था। अब वहाँ हिन्दू विलुप्त होने की स्थिति में पहुँच गया है।
पाकिस्तान और अफगानिस्तान की तरह अब बांग्लादेश में भी अनेक क्षेत्रों में हिन्दू लड़कियों का विवाह हिन्दू युवकों से नहीं होने पाता। उन्हें मुसलिम नेताओं के संरक्षण में घरों से छीन लिया जाता है। भारत के राज्य पश्चिम बंगाल के 13 जिले मुसलिम जनसंख्या बहुल हो चुके हैं। इन जिलों में भी हिन्दू लड़कियों की छीना झपटी सामान्य बात हो गयी है। जिसको लेकर सरकारी मशीनरी हस्तक्षेप तक नहीं करती। चुनावों के समय बंगाल, केरल, उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों, राजधानी दिल्ली के कुछ क्षेत्रों में मुसलिम जनसंख्या वृद्धि का प्रभाव राजनीतिक प्रभुत्व अर्जित करने की दृष्टि से उबाल मारने लगा है। मुसलिम बाहुल क्षेत्रों में मतदाताओं का व्यवहार ऐसी प्रतीति कराता है मानव वह राजसत्ता की छीना झपटी के लिए उतावले हैं।
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भारत में अब तक लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं की जीवन्तता के पीछे जागरूक हिन्दू जनमानस की दृढ़ता रही है। हिन्दुओं के विपरीत भारत के मुसलिम और ईसाई समाज की व्यग्रता इस देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था का उजाड़ने की प्रतीति होती है। 2024 के लोकसभा चुनाव में परोक्ष रूप से कतिपय विदेशी शक्तियों ने हस्तक्षेप किया। यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि एक अमेरिकी धनाड्य ने भारत के लोकतन्त्र को उजाड़ने के लिए अपने धनबल का प्रयोग किया। भारत को अस्थिर करने के लिए मुसलिम और ईसाई नेताओं पर डोरे डाले। उन्हें प्रेरित किया कि भारत के लोकतन्त्र की अस्थिरता के लिए मतदान करें। यह सत्य है कि भारत के अल्पसंख्यक कहे जाने वाले दो वर्गों ने इस विदेशी षडयंत्र को सफल बनाने के लिए उनके इशारे पर काम किया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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