अनुच्छेद-370 हटाने, नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाने और तीन तलाक की गंदी परंपरा को समाप्त करने के केंद्र सरकार के फैसले याद हैं आपको। शाहीनबाग षडयंत्र याद है आपको। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के भारत आगमन के समय दिल्ली में फैलाई गई सुनियोजित हिंसा याद है आपको। अगर वे प्रकरण आपको याद हैं तो आप कानपुर में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की मौजूदगी में हुई सुनियोजित हिंसा के अंतरसम्बन्ध बखूबी समझ रहे होंगे। लेकिन दिक्कत यही है कि हिंदुओं को कुछ समझ में नहीं आता और मुस्लिमों को वे सारी बातें समझ में आती हैं, जिनसे देश अस्थिर होता हो। भले ही उसका सच्चाई से कोई लेना-देना न हो। नागरिकता संशोधन कानून से भारत के मुसलमानों का क्या लेना-देना था? वह कानून तो पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में हो रहे धार्मिक-अत्याचार से त्रस्त होकर भारत आने वाले पीड़ितों को नागरिकता प्रदान करने से सम्बन्धित था, फिर क्यों उसके खिलाफ शाहीनबाग घेरा गया और दिल्ली को अराजकता की आग में झोंका गया?
यह सब भारतवर्ष को अस्थिर करने के लिए किया जा रहा है। नूपुर शर्मा तो केवल एक बहाना थीं, जिसे भाजपा ने संकट के समय में अकेला छोड़ दिया। अगर नूपुर शर्मा या नवीन जिंदल के साथ कुछ भी अप्रत्याशित घटना घटती है तो इसके लिए जिम्मेदार भाजपा का शीर्ष नेतृत्व होगा, जिसने कड़ा स्टैंड लेने के बजाय पूरी दुनिया को अपनी दबी हुई दुम दिखा दी। यह सटीक समय था, जब समान आचार संहिता पर निर्णायक बात होती। इस्लामिक आस्था के खिलाफ टिप्पणी पर सख्त कार्रवाई हो और हिंदू आस्था पर खुलेआम अपशब्दों का इस्तेमाल करने वाला चैन से घूमे, यह देश में अब नहीं होगा। इस्लामिक आस्था के खिलाफ टिप्पणी करने वाला हलाल हो और हिंदू आस्था के खिलाफ बोलने वाले की गर्दन सलामत रहे, देश में अब यह नहीं होगा। खेल के नियम सारे खिलाड़ियों के लिए समान होते हैं, कानून सबके लिए समान होना चाहिए। इसे तय करने का यही समय था। लेकिन भाजपा नेतृत्व ने यह समय बेमानी जाने दिया।
सूचना और मस्तिष्क-शोधन के आधुनिक तौर-तरीकों के इस युग में लड़ाइयां युद्ध के मैदान में नहीं, बल्कि इंटरनेट और सोशल मीडिया के मैदान पर लड़ी जा रही हैं। भारत के खिलाफ छद्म-युद्ध जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे छद्मी बौद्धिक शिक्षण संस्थानों, संदेहास्पद फंडिग से चलने वाले सामाजिक संगठनों और पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) जैसे आतंकवाद-पसंद संगठनों द्वारा लड़ा जा रहा है। स्टॉक एक्सचेंज में और बायोलॉजिकल रिसर्च लैब्स में लड़ा जा रहा है। नस्लदूषित बुद्धिजीवियों और धर्मदूषित प्रगतिशीलों द्वारा लड़ा जा रहा है। इस लड़ाई में कोई प्रत्यक्ष हथियार नहीं, केवल नैरेटिव्स खड़ा करने यानी दिमागी-शोधन करने के हथकंडों का हथियार बनाया जा रहा है। सोशल मीडिया और इंटरनेट के तमाम फोरम्स पर पोस्ट दर पोस्ट डाले जा रहे हैं, ट्वीट्स हो रहे हैं, डेटा हैकिंग हो रही है, फीशिंग हो रही है। और भी तमाम किस्म के इलेक्ट्रॉनिकी हथकंडे अपनाए जा रहे हैं। हिंदू आस्था पर खुलेआम किए जा रहे हमलों का जवाब देने का खामियाजा नूपुर शर्मा और नवीन जिंदल जैसे लोगों को उठाना पड़ता है, जिसका भाजपा भी साथ नहीं देती।
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आप गौर से देखें, हम गैर पारंपरिक और गैर सैद्धांतिक युद्ध में किस तरह मुब्तिला हैं। इस युद्ध में हथियारों से कम, अफवाहों से अधिक हमला हो रहा है। ईंट-पत्थरों से हमला हो रहा है। सस्ते संसाधनों का इस्तेमाल कर देश का ज्यादा से ज्यादा नुकसान करने की रणनीति से हमारा सामना हो रहा है। इसे समझना होगा। यह समझना ही होगा कि जब कोई देश आर्थिक रूप से, धार्मिक रूप से, सांस्कृतिक रूप से, बौद्धिक रूप से तोड़ा जा चुका हो, तब उसे जीत पाना काफी आसान होता है। तब दुश्मन देश ऐसे देश-विरोधी तत्वों की सहायता में जुट जाते हैं और इसके माध्यम से टार्गेट वाले देश में पकड़ बनाते हैं। श्रीलंका आपके सामने उदाहरण है। आप क्या समझते हैं श्रीलंका को ऐसे ही कमजोर किया गया? श्रीलंका को कमजोर करने में अंदरूनी शक्तियां काफी अर्से से लगी थीं और बाहरी शक्तियां उन्हें बाहर से सब तरह की मदद मुहैया करा रही थीं।
ज्ञानवापी परिसर में सर्वे के दौरान शिवलिंग मिला। हिन्दुओं के लिए जो शिवलिंग है, मुस्लिम पक्ष के लिए वह महज एक फव्वारा है। न्यायालय में उसके सारे सबूत प्रस्तुत किए जा चुके हैं। इस खबर को भारतीय मीडिया ने इतने शातिराना तरीके से उछाला कि अदालतें नाराज हो जाएं। टीवी चैनलों ने एक गंभीर धार्मिक इश्यू को मछली बाजार बना कर रख दिया और हिंदू देवी-देवताओं की खुलेआम फजीहतें कराईं। इसी फजीहत का नतीजा था कि नूपुर शर्मा या नवीन जिंदल आक्रोश में आए और उन्होंने सार्वजनिक निंदा प्रस्तावों के बरक्स प्रति-निंदा की भाषा अभिव्यक्त की।
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गैर-जिम्मेदार मीडिया, या कहें षडयंत्रकारी मीडिया ने इसे ऐसे हवा दी कि जैसे भूचाल आ गया हो। हिंदू आस्था पर गंदगी फैलाने के कृत्यों पर ये भूचाल नहीं खड़ा करते। मीडिया ने नूपुर शर्मा की बातों को सम्पूर्ण परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत नहीं किया, केवल उसे ताना। नूपुर शर्मा द्वारा दिया गया जाकिर नाइक के इस्लामिक-प्रवचनों का हवाला या हदीस के संदर्भों को मीडिया ने नूपुर के बयान के साथ समग्रता से प्रस्तुत नहीं किया। नूपुर के बयान के बहाने राष्ट्रविरोधी तत्वों ने अपना एजेंडा जरूर चमका लिया।
इसी नजरिए से तीन जून की तारीख देखना जरूरी है। इस दिन राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ही कानपुर में थे। बड़े ही सोचे समझे तरीके से इसी दिन नुपुर शर्मा के बयान के विरोध में बाजार बंद रखने का एलान किया गया था। इस षडयंत्र में पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया, एआईएमआईएम जैसे तमाम संगठन शामिल थे, जिसने मिल कर शाहीनबाग का षडयंत्र रचा था और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रंप के भारत आगमन पर हिंसा फैला कर दुनिया भर में भारत की छवि पर गंदगी फैलाने का कुकृत्य किया था। ठीक वही साजिश इस बार कानपुर में राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के होने पर रची गई।
आप ध्यान दीजिए कि यूपी पुलिस जब दंगाइयों को पकड़ रही थी, ऐन उसी समय विदेशों में बैठे तमाम इस्लामिक संगठन धड़ाधड़ ट्वीट कर रहे थे और हैशटैग चला रहे था। इन सभी ट्वीट्स में प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर लगी थी और हिजाब समेत कई गड़े मुर्दे उखाड़ते हुए लिखा जा रहा था कि भारत में मुस्लिमों के साथ जुल्म हो रहा है। ऐसे आपत्तिजनक ट्वीट्स की रफ्तार क्रमशः बढ़ती गई और अफवाहें इस तरह फैलाई गईं कि झूठ सच बन कर सोशल मीडिया से लेकर रेगुलर मीडिया तक पर छाने लगा। इस्लामिक देशों द्वारा भारतीय सामानों का बहिष्कार किए जाने जैसी खबरें ऐसे ही झूठ का सृजन था। इस्लामिक देशों का भारत पर उंगली उठाने की बात अगर सच भी है तो कितना अनैतिक (इम्मोरल) है।
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इस्लामिक देशों को अपने गिरेबान में झांकने का नैतिक बल नहीं है। वे इतने ही उदार थे तो इस्लामिक देश क्यों बने! दुनिया के 15 से भी अधिक इस्लामिक देशों में कट्टर शरिया कानून लागू है, इस पर कभी किसी देश ने क्या कुछ कहा? तमाम अरब देश तब कहां थे जब हिन्दू देवी-देवताओं की नग्न पेंटिंग बना कर हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं को आहत करने वाले भारतीय पेंटर मकबूल फिदा हुसैन को अपने देश में शरण दी थी? यह सब देखते हुए हमें कठोरता से स्टैंड लेने की जरूरत है, अब नहीं तो कब?
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)