Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

गुस्से की स्थिति में किसी को उत्तर देना या बात बढ़ाना मुझे न पसन्द है। मनुष्य होने के नाते किसी प्रिय अथवा अप्रिय लगने वाली बातों पर मानस में प्रतिक्रिया तो होती है। पर उस प्रतिक्रिया को सहज व्यक्त करना मेरे स्वभाव में नहीं है। यह बात लालकृष्ण आडवाणी (Lal Krishna Advani) ने नयी दिल्ली में भाजपा कार्यालय में एक साक्षात्कार में कही थी। उस समय मैं लखनऊ से प्रकाशित एक हिन्दी दैनिक के लिए नयी दिल्ली में विशेष संवाददाता था।

आडवाणी (Lal Krishna Advani) से उस दिन मैंने 100 प्रश्न पूछे थे। सभी प्रश्न एक दिन पहले लिखित रूप में दिये थे। उनसे बता दिया था कि इनमें एक भी प्रश्न राजनीति से सम्बन्धित नहीं है। पहला प्रश्न था- जो कुछ आप बोलते हैं, उसका कितना प्रतिशत स्वयं जीते भी हैं। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए आडवाणी (Lal Krishna Advani) ने कहा था कि रात में प्रश्नावली पढ़ते समय लगभग 10 मिनट तक इस प्रश्न को गुनता रहा। मन, वचन और कर्म से जुड़ा यह प्रश्न मुझे बहुत भाया। मेरे अन्तरमन का चिन्तन यही है कि जो कुछ विचार, वचन और कर्म में समानता होनी चाहिए। मुझे स्मरण है कि बालपन में अपनी माँ से एक दिन मैंने पूछ लिया था कि सत्य क्या है। तब उन्होंने कहा था कि जो कुछ सोचो वह तथ्यों पर इतना आधारित हो कि वाणी से उसे व्यक्त कर सको। जो व्यक्त कहो उसे अपने कर्म में परिलक्षित कर सको। यदि ऐसा सम्भव बना सको तो यही सत्य है। आडवाणी ने कहा था कि माँ की उस सीख के कारण मेरी वाणी से कभी असत्य प्रकट नहीं हुआ।

मेरा एक प्रश्न था कि जब आपको गुस्सा आता है तो आप क्या करते हैं। उन्होंने कहा- मौन मेरा ऐसा कवच है जिसे मैं क्रोध की स्थिति में धारण कर लेता हूँ। कई बार ऐसा हुआ जब घर के किसी व्यक्ति की कोई बात या व्यवहार मुझे अच्छी नहीं लगी। उससे मन गुस्से से भर गया। तब उसे प्रकट करने से बचने के लिए मैंने अपने आप को कमरे में बन्द कर लिया। यह पूछने पर कमरे में कब तक शान्त बैठे रहते हैं। उन्होंने कहा- कमरे में अपनी प्रिय पुस्तकों अथवा कुछ चुनिन्दा फिल्मों के अंश देखता हूं। इससे चित्त शान्त हो जाता है। दूसरे उस व्यक्ति को भी अपना मन प्रक्षालित करने का अवसर मिल जाता है। जिससे विपरीत परिस्थिति उत्पन्न होती है।

Lal Krishna Advani

 

राजनीति के धुरन्धर खिलाड़ियों के बीच लालकृष्ण आडवाणी के व्यक्तित्व को सदा उज्जवल चरित्र वाला नेता माना जाता रहा है। एक बार उनकी अनुपस्थिति में लोकसभा में उनके नाम का उल्लेख चन्द्रशेखर ने किया। उस समय अध्यक्ष के आसन पर वाममार्गी कम्युनिस्ट पार्टी के सोमनाथ चटर्जी विराजमान थे। चन्द्रशेखर की टिप्पणी एक समाचार पत्र के कतरन के सन्दर्भ में थी। जिसमें किसी आपत्तिजनक बात के बारे में कहा गया था कि यह कथन आडवाणी का है। चन्द्रशेखर की बात सुनकर सदन में हल्ला होने लगा था। भाजपा के सांसद इस बात को आडवाणी के प्रति लाँछन के रूप में ले रहे थे। उनका कहना था कि सदन में वह उपस्थित नहीं हैं। इसलिए वह उत्तर नहीं दे सकते। इसलिए ऐसी बात को कार्यवाही से हटाया जाय।

तभी सोमनाथ चटर्जी अपने आसन से उठकर खड़े हो गये। अध्यक्ष के खड़े होने पर चन्द्रशेखर सहित सभी सदस्य बैठ गये। सोमनाथ चटर्जी ने कहा- राजनीतिक जीवन में आडवाणी हमारे प्रतिद्वन्द्वी हैं। पर सत्यनिष्ठा से मैं यह कह सकता हूँ कि कुछ भी बोलने से पहले श्री आडवाणी उसे तौल लेते हैं। अंग्रेजी में उनका वाक्य था।– आडवाणी हैज स्केल ऑन हिज थ्रोट। सोमनाथ चटर्जी ने चन्द्रशेखर से कहा कि आप स्वयं आडवाणी के जीवन को बहुत निकट से देखते आये हैं। किसी समाचार पत्र में किसी के बारे में या किसी के हवाले से यदि कुछ छापा जाता है तो क्या उसे प्रामाणिक मानकर संसद में चर्चा की जा सकती है। यदि चर्चा करनी भी हो तो उस व्यक्ति का उल्लेख किया जा सकता है जो सदन में उपस्थित हो। उन दिनों आडवाणी ने लोकसभा से इस्तीफा दे रखा था। उनपर कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने हवाला में सम्मिलित होने का मसला उठाया था। आडवाणी जी ने कहा था कि जब तक इस प्रकरण की निष्पक्ष जांच करके परिणाम नहीं घोषित होता तब तक वह सदन से बाहर रहेंगे। जांच में सिद्ध हुआ था कि हवाला सम्बन्धी प्रकरण में उनका नाम षडयंत्र पूर्वक सम्मिलित किया गया था। लालकृष्ण आडवाणी मनसा, वाचा, कर्मणा सत्य के सच्चे पुजारी रहे। उनके सम्बन्ध में मित्र स्वर्गीय अटल विहारी वाजपेयी ने एकबार लखनऊ की भरी सभा में कहा था- मेरे मित्र आडवाणी सत्य के ऐसे स्तम्भ हैं जिनके निकट कभी अधर्म और अन्याय फटक ही नहीं सकता।

Lal Krishna Advani

दिल्ली में पत्रकारिता के छह वर्षों में मुझे निरन्तर राजनीतिक दल के रूप में भाजपा की कवरेज करनी होती थी। इसीलिए नित्य प्रति भाजपा कार्यालय जाना होता था। उनके कालखण्ड में भाजपा के अनेक पूर्ण कालिक कार्यकर्ता सक्रिय रहते थे। जिनमें नरेन्द्र मोदी, मनोहर लाल खट्टर, गोविन्दाचार्य जैसे लोग भी थे। इन्हें देश के विभिन्न राज्यों में पार्टी की योजनाओं के सन्दर्भ में जाना होता था। यह सभी नेता आडवाणी को अपने प्रेरक और गुरु के रूप में देखा करते थे। उनके साथ बैठकर चर्चा करना, समस्याओं के निराकरण खोजना आडवाणी का स्वभाव था।

आडवाणी का जन्म पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में 1927 में हुआ था। विभाजन काल के अनुभवों की चर्चा छिड़ने पर वह अनेक ऐसे प्रकरण सुनाते थे जिन्हें सुनकर मन कांप उठता था। आडवाणी 14 वर्ष की वय में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ गये थे। राजनीतिक सक्रियता के दिनों में पत्रकारों से अनौपचारिक बातचीत में बताया करते कि किस तरह विभाजन की विभीषिका में संघ ने हजारों लोगों के प्राणों की रक्षा की थी। जो भारत आना चाहते थे उन्हें सुरक्षित भेजना भी सहज नहीं था। संघ की शाखाओं का अच्छा विस्तार उस समय यदि पाकिस्तान के हिस्से में गये पंजाब और सिन्ध में नहीं होता तो इन्हें वहाँ से सुरक्षित सीमा पार कराना और दुष्कर हो जाता।

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आडवाणी अटल को अपने सच्चे मित्र के रूप में बहुत आदर देते थे। अनेक कठिन दौर आये पर उन्होंने अटल का साथ नहीं छोड़ा। अटल जी स्वयं आडवाणी को अपना सच्चा परामर्शदाता मानते रहे। दोनों के सम्बन्धों में कभी मलिनता दिखायी नहीं दी। राजनीति में महत्वाकांक्षाएं सभी की होती हैं। यह बात स्वीकार करते हुए एक दिन भाजपा कार्यालय में हो रही पत्रकार वार्ता में अटल ने आडवाणी की उपस्थिति में कहा था कि मुझे क्या करना है यह निर्णय आडवाणी करते हैं। मुझे यह निर्णय करना होता है कि मेरा मित्र किस काम को मुझसे अच्छा कर सकता है। आडवाणी जी इस बात पर प्रतिक्रिया पूछने पर बोले- भाजपा एक संयुक्त परिवार है। यहाँ न मनभेद है न मतभेद है। यह उन दिनों की बात है जब अंग्रेजी के एक अखबार में दोनों के सम्बन्धों में दरार आने की बात छपी थी।

आडवाणी के जीवन में राजनीति के बड़े उतार-चढ़ाव आते रहे। एक समय लोकसभा में दो सदस्य जीतकर पहुँचे थे। तब पार्टी के कार्यकर्ता निराशा से भरे हुए थे। आडवाणी ने अटल के साथ मिलकर नेतृत्व सम्भाला और अगले ही चुनाव में बड़ी सफलता प्राप्त की। अयोध्या में मन्दिर आन्दोलन के लिए उन्होंने रथ यात्रा निकाली थी। इस यात्रा के दौरान उनका स्वरूप महानायक के रूप में उभरा था। कारसेवा के समय वह अयोध्या में उपस्थित थे। इसको लेकर ढाँचा ध्वंस के सन्दर्भ में उनपर न्यायालय में मुकदमा चला। पूरे समय वह धैर्य से भरे रहे। किसी परिस्थिति में डिगना उन्हें स्वीकार्य नहीं था।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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