माता को शक्ति कहते हैं। शक्ति (power) कार्य करने की क्षमता (ability) का नाम है:- (power=work/time)। भौतिकी का नियम है कि ऊर्जा(energy) जितनी अधिक होगी, कार्य उतना अधिक संपन्न होगा। संक्षेप में शक्ति (दुर्गा) की आराधना से या ऊर्जा-संचय की साधना से आप उर्जावान् (या ऊर्जावती) बनते (ती) हैं। कुछ शाक्त उपासक तो कलश-स्थापन के पश्चात् हिलते भी नहीं हैं। अगर आपने भौतिकी की पढ़ाई की होगी, तो समझ सकते हैं कि वे अपने गतिज ऊर्जा (kinetic energy) के क्षय को रोककर अपनी स्थितिज ऊर्जा(potential energy) को बढ़ा रहे होते हैं…चाहे स्वयं उन्हें इसका बोध न हो।
अस्तु, यह पूरी साधना प्रक्रिया तब सफलीभूत होती है, जब आप इसे सम्यक् रूप से समझकर करते हैं। अगर केवल साधना के नाम पर आडम्बर कर रहे हैं, तो उतना ही फल मिलेगा जितना बिना पथ्य के केवल किसी भी मात्रा में कोई दवाई खा लेने से। यह कहना कि कोई फल नहीं मिलेगा, वैज्ञानिक-बुद्धिसम्मत नहीं है क्योंकि जब हम कोई ऊर्जा व्यय करते हैं, तो वह किसी दूसरे रूप में अवश्य परिवर्तित होती है(law of conservation of energy)। ध्यान रहे कि मंत्र ‘प्रबल शाब्दिक ऊर्जा'(potent sound energy) को कहते हैं। विस्तार में इन पर न जाते हुए, हम इस दृष्टिबिन्दु से माँ के चतुर्थ रूप को समझते हैं:-
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माँ का चौथा रूप ‘कूष्मांडा’ है। ‘कू’ का अर्थ छोटा, ‘ऊष्म’ का अर्थ ऊर्जा (heat energy)है। अंडा आकृति (oval shape) है। अर्थात् कूष्मांडा का शाब्दिक अर्थ हुआ– ‘छोटा और अंडाकार ऊर्जा पिंड’।
ध्यान दें कि यह हमारी हृदयस्थ स्थिति का प्रतीक है। ‘पिंड से ही ब्रह्मांड बनता है’ – यह रूप इसका भी प्रतीक है। आश्वस्ति है कि ब्रह्मांड की उत्पत्ति करने के कारण माता का नाम कूष्मांडा पड़ा है : “कुत्सित: ऊष्मा त्रिविधतापयुतः संसार:, स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्या: सा कूष्मांडा।”
उपर्युक्त श्लोक का साधारण शब्दों में अर्थ है– “त्रिविध-ताप-युक्त संसार जिनके अंदर स्थित है, वे भगवती कूष्मांडा कहलाती हैं।” अर्थात्, ब्रह्मांड की उत्पत्ति करने के कारण ये कूष्मांडा हैं। तो, इस दिन पिंड से ब्रह्मांड की यात्रा के लिए कूष्मांडा देवी की विशेष साधना की जाती है।
यहाँ साधक अपनी साधना के बीच में है, पुल पर है। इसमें साधक का ध्यान हृदय तत्त्व (अनाहत चक्र) पर है, जिसका मूल तत्व अग्नि(fire) है। यहाँ देखें कि यह मूल तत्त्व (अग्नि) भी ऊष्म(heat) है।
शाब्दिक-साधना या नाद-साधना की दृष्टि से
माँ कूष्मांडा की उपासना का मंत्र है-
“कूष्मांडा: ऐं ह्री देव्यै नम:
वन्दे वाञ्छित कामार्थे चन्द्रार्धकृतशेखराम्।
सिंहरूढ़ा अष्टभुजा कूष्माण्डा यशस्विनीम्॥”
आराधना के लिए माना जाता है कि चतुर्थी के दिन मालपुए का नैवेद्य अर्पित किया जाए और फिर उसे योग्य ब्राह्मण को दे दिया जाए। यहाँ देने का अर्थ प्रतीकात्मक है। हृदय पर अवस्थित चक्र है, तो यह प्रतीक किया गया कि आप देने का अभ्यास करें। आपका हृदय लेने में नहीं, देने में रमण करे। पंडितों ने इस क्रिया को ‘अपूर्व दान’ मान हर प्रकार के विघ्न के दूर हो जाने की मान्यता दे दी। प्रतीक यह कि हृदय को अगर ‘लेने’ की जगह ‘देने’ का अभ्यास हो, तो कोई तनाव या दुःख नहीं होगा। देना विस्तार है और वही काम्य है।
इस तरह, पूजा पध्दति से अधिक महत्त्वपूर्ण है कि आप आंतरिक रूप से कितने तैयार हैं। सबसे बड़ी बात कि क्या आप समझते भी हैं कि क्या है ‘कूष्मांडा’… क्या है साधना और सच ही कहाँ पहुँच रहे हैं आप?
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