World War: काल का चक्र घूम रहा है। हम सब पृथ्वीवासी निशिवासर एक आशंका को जी रहे हैं। दूसरा विश्वयुद्ध 1939 से 1945 तक चला था। उसकी भयावह स्मृतियों को इतिहास भुलाने को तैयार नहीं है। वर्तमान 21वीं शताब्दी का पूर्वार्ध पूरा होने में अभी बहुत समय बाकी है। सारी पृथ्वी पर छा जाने की इस्लाम की हठवादिता ऐसी आशंकाओं को बल दे रही है कि आने वाला समय तीसरे विश्वयुद्ध (ThirdWorldWar) की ओर हमें घसीट कर ले जा रहा है।
मतान्तरण का भयावह रूप
संसार की पौने आठ अरब की जनसंख्या में सबसे बड़ा संख्या बल ईसाई रिलीजन को मानने वालों का है। एक मुंह से करुणा और शान्ति की बातें करने वाला यह रिलीजन घातक हथियारों के सबसे बड़े अन्वेषक और संग्रहकर्ता देशों की अगुवायी में बढ़ रहा है। ईसाइयत के ध्वज को सम्भालने वाले मिशनरी संगठनों को यह अहंकार बैठने नहीं देता कि भूमण्डल के समस्त मानव एक दिन उसकी अगुवाई में खड़े दिखायी देंगे। इसके लिए मिशनरी संगठनों के संचालक कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं। स्थिति यहॉ तक पहुँच चुकी है कि संसार के निर्बल और निर्धन परिवार स्वेच्छा से अपने धर्म, अपनी मान्यताओं, अपनी परम्पराओं के साथ जीने के अधिकार से वन्चित किये जा रहे हैं। पूरे के पूरे देश इस घातक अभियान से त्रस्त हैं।
इस्लामी आतंकवाद की घातक मान्यताएं
ईसाइयत की तरह इस्लाम भला पीछे कहॉ रहने वाला। इस्लाम का तो मानना है कि उसकी मान्यताओं के अतिरिक्त किसी भी मान्यता और विश्वास के साथ जीने वाला काफिर है। उसके प्राण हर लेने से मजहब के सबसे मूल्यवान उपहार रक्तपात करने वालों को मिलते हैं। इसी मान्यता के आधार पर इस्लामी कट्टरपन्थ ने अतिवाद अर्थात आतंकवाद को जन्म दिया। किशोर वय तक पहुँचने से पहले ही बहुत से मुस्लिम बच्चों को बम बनाने, हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया जाने लगता है। उनके मन से दया, करुणा, परोपकार और साहचर्य जैसे भावों को कूड़े करकट की तरह निकाल फेंका जाता है। इस्लामी युवक मजहबी शिक्षा के नाम पर जिस विनाशक चेतना में आकण्ठ डुबोये जाते हैं उससे वह अपने जीवन में कभी स्वतन्त्र होकर लौट नहीं पाते। शान्ति से जीने और दूसरों को जीने देने के विचार उनके मन में कभी अंकुरित ही नहीं होने पाते।
इस्लाम की वैचारिक त्रासदी
इस्लाम की इस वैचारिक त्रासदी के कारण संसार के 49 इस्लामिक प्रभुत्व वाले देशों के मुसलमानों के हृदय में सदा एक ही बात गूंजती रहती है कि उन्हें अपना संख्या बल इतना बढ़ाना है कि किसी और धर्म, सम्प्रदाय या रिलीजन को मानने वालों के पास उनकी बराबरी करने की क्षमता न रहने पाये। इसके लिए इस्लाम के मुल्ला-मौलवी एक ओर उन्हें जनसंख्या वृद्धि करते रहने को प्रेरित करते हैं तो दूसरी ओर दूसरे धर्म, सम्प्रदाय और रिलीजन पर विश्वास करने वालों को छल, बल पूर्वक इस्लाम में मिलाने की युक्तियां सिखाते रहते हैं। यह वृत्ति इतनी बढ़ चुकी है कि अनेक ऐसे देश जहाँ मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं वहाँ भी विवाद खड़े करते रहते हैं। उदाहरण के लिए 1947 में भारत का विखण्डन धर्म के आधार पर कर दिया गया। मुसलमानों को दो बड़े भूखण्ड पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान के रूप में सौंप दिये गये।
इस्लाम के कट्टरपन्थियों के हठ के कारण पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में बसने वाले अल्पसंख्यक हिन्दुओं को भीषण त्रासदी से गुजरना पड़ा। इन्हें अपना धर्म छोड़ने के लिए विवश कर दिया गया। हिन्दुओं की संख्या इन दो भूखण्डों में क्रमश: 42 और 39 प्रतिशत थी जो अब घटकर मात्र 4.02 प्रतिशत (बाग्लादेश) और 2.03 प्रतिशत पाकिस्तान में बची है। प्राय: सभी हिन्दू धर्म स्थलों को तोड़ डाला गया है। अधिकांश के तो खण्डहर भी नहीं बचे। यह पूरा भूखण्ड कभी सनातन वैदिक संस्कृति का प्रमुख केन्द्र हुआ करता था। ऋषियों ने यहाँ मन्त्रों को सिद्ध किया था। वैदिक साहित्य की रचना हुयी थी। बंगाल में विकसित संस्कृति में सदाशयता और सर्व धर्म समभाव की ऐसी भावना पिरोयी हुई थी कि सारा संसार इसकी ओर आकृष्ट होता था। हिन्दु संस्कृति के इस नगीने को इस्लाम ने चूर कर दिया। जनसंख्या का ऐसा विस्फोट हुआ कि पाकिस्तान और बांग्लादेश दोनों ओर से भारत में घुसपैठ इतनी तीव्र है कि भारतीय जनसंख्या का सन्तुलन बिगड़ गया है।
भारत में विभाजन के समय 3.20 करोड़ मुस्लिम जनसंख्या बसी रह गयी थी। इन्हें महात्मा गांधी और जवाहर लाल नेहरू ने इस भावना से रोक लिया था कि संसार को वह दर्शायेंगे कि भारत धर्म निरपेक्षता का एक आदर्श उदाहरण है। गांधी ने कहा था कि जब हमारे यहाँ मस्जिदों से अजान और मन्दिरों से शंख और घण्टों की ध्वनि एक साथ आकाश में गूंजेगी तो दुनिया यह मानने को विवश हो जाएगी कि भारत सच्चे अर्थों में अपने देश के अल्पसंख्यकों को पूरा सम्मान देकर सहेज रहा है।
पर भारत के जनसांख्यकी को इस्लाम ने तीव्र जनसंख्या वृद्धिदर और घुसपैठ के बल पर इतना बिगाड़ा की अब भारत में बसे प्राय: प्रत्येक मुस्लिम के मुंह से यही निकल रहा है कि 2050 तक हम भारत को इस्लामिक राष्ट्र बनाकर रहेंगे। भारत में मदरसों के भीतर उत्पात का प्रशिक्षण मिलना मुस्लिम बच्चों के साथ कितना बड़ा अन्याय है यह चिन्ता किसे है। भारत में पाकिस्तान से अधिक मदरसे हो चुके हैं। मदरसों का रझान कट्टरपंथ को बढ़ावा देने की ओर होने की कीमत अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देश चुका रहे हैं। पाकिस्तान के पूर्व सेनाध्यक्ष ने एकबार कहा था कि उनके देश में हर साल मदरसों से 28 लाख बच्चे कट्टरपन्थ की शिक्षा लेकर बाहर आते हैं। समझ में नहीं आता कि इन्हें हथियार देकर किस मोर्चे पर भेजा जाएगा।
सभी इस्लामिक देशों में कट्टरपन्थ की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। इराक का क्या हाल हुआ किसी से छिपा नहीं है। ईरान, तुर्किये, फलस्तीन जैसे देशों में कट्टरता का विभत्स रूप बार-बार प्रकट होता है। संसार में इस समय मुस्लिम जनसंख्या एक अरब 70 करोड़ को पार कर रही है। इनकी जनसंख्या बढ़ोत्तरी की दर यह संकेत कर रही है कि कुछ ही दशकों में संसार में सबसे बड़ी जनसंख्या इस्लाम को मानने वालों की होगी। ईसाइयत की सोच भी बहुत भिन्न नहीं है। भूमण्डल के देशों में ईसाइयत को मानने वालों की जनसंख्या उन्हीं के आंकड़ों के अनुसार दो अरब से अधिक हो चुकी है। ईसाई रिलीजन के प्रभुत्व वाले देशों की संख्या 53 है। इनमें से 21 देश ऐसे हैं जहाँ ईसाइयत के आधार पर शासन तन्त्र चलाया जाता है। अर्थात यह अपने को मूलत: ईसाई देश कहते हैं। शेष 32 देशों में ईसाई जनसंख्या का दबाव इतना बढ़ चुका है कि शासन तन्त्र पर उनकी जकड़न बढ़ती जा रही है।
भारत के सन्दर्भ में देखा जाये तो यह देश मूलत: सनातन संस्कृति की प्राकट्य भूमि है। संसार की सबसे प्राचीन संस्कृति अर्थात हिन्दु संस्कृति की विशिष्टता ही इसका दोष सिद्ध हुआ। यह विशिष्टता सभी प्रकार की संस्कृतियों को सम्मान देने की रही है। सर्व धर्म समभाव भारत की संस्कृति का ध्येय वाक्य रहा है। सभी ईश्वर के अंश हैं। सभी को समान रूप से सुखी रहने और अपनी मान्यताओं के आधार पर जीने का स्वातन्त्र्य मिलना चाहिए। हिन्दु संस्कृति के इस चिन्तन ने इसी पर कुठाराघात कर दिया। इस्लाम, ईसाइयत और संसार के अन्य मान्यताओं के लोग यहां आकर निर्भय होकर रहने लगे। किसी को मस्जिद बनाने की स्वतन्त्रता मिली, तो किसी को गिरजाघर। पर दोनों ने हिन्दुत्व पर घात किया। मतान्तरण का ऐसा कुचक्र शुरू किया कि आज भारत में यह षडयंत्र राष्ट्रघाती सिद्ध हो रहे हैं। संसार में हिन्दुओं की सबसे बड़ी जनसंख्या भारत में बसती है। विश्व के अन्य देशों में लगभग 32 करोड़ हिन्दू बसे तो हैं, पर वह उन देशों की सभ्यता और विधानों की कभी अनदेखी नहीं करते। वहाँ की जनसंख्या के साथ घुल मिलकर रहते हैं। पर भारत में बसे 100 करोड़ से अधिक हिन्दू इस त्रासदी को सह रहे हैं कि उनके यहाँ मेहमान अथवा आक्रान्ता बनकर आये मुस्लिम और ईसाई हिन्दुओं के लिए नित्य नये घातक षडयंत्र करते रहते हैं। हिन्दुओं की लड़कियों को छल पूर्वक छीनने के लिए लव जिहाद बन्द नहीं हो रहा, तो दूसरी ओर निर्बल वर्ग के बच्चों को लेकर उन्हें ईसाई बनाना और फिर उन्हीं के सहारे मतान्तरण की योजनाओं को अमल में लाना इन दोनों का स्वभाव बन चुका है। भारतीय जनमानस को अपनी सहिष्णुता न त्यागने की सीख दी जाती है। उनसे कहा जाता है कि सूई चुभोने पर भी आह नहीं करनी चाहिए। गला रेतने पर भी परिजनों को शान्त रहना चाहिए। यह परिस्थितियां देश की प्रगति के लिए गहरे अपशकुन नहीं तो और क्या हैं।
मुस्लिम आतंकवाद अब किसी एक देश की समस्या नहीं है। सारा संसार इससे पीड़ित है। अमेरिकी और यूरोपीय देश इस अभिमान में जी रहे थे कि वह कठोरतम सुरक्षा कवच के साथ अपनी जनसंख्या को प्रगति के मार्ग पर ले जा रहे हैं। 11 सितम्बर 2001 को जब न्यूयार्क के ट्विन टॉवर पर जब आतंकी हमला हुआ तो अमेरिकी युद्धक विमान अपने राष्ट्रपति को लेकर बहुत देर तक बचाव के लिए आकाश में उड़ते रहे। इतना ही नहीं अमेरिका का सारा सुरक्षा तन्त्र धरा रह गया। पेण्टागन पर हमला हुआ तो राष्ट्रपति भवन भी कई घण्टों तक भय से कांपता रहा। इस्लाम का सहायक बनकर वामपन्थ भी यूरोपीय देशों के साथ दोनों अमेरिकी महाद्वीपों में अशान्ति बढ़ाता जा रहा है। इस अशान्ति को रोक पाने का सामर्थ्य अकेले किसी देश के पास नहीं है। तो भी विचित्रता यह है कि कई शक्तिशाली देश इस्लामी कट्टरवाद और षडयंत्रकारी वामपन्थी सोच को अपनी कूटनीति का यन्त्र मानकर चलते हैं।
इस्लामिक कट्टरपन्थ हो अथवा ईसाइयत का षडयंत्रकारी चेहरा दोनों संसार की शान्ति और स्थिरता के लिए भयावह रूप धारण कर चुके हैं। कट्टरपन्थ को पालने पोसने के लिए कई देशों को विकसित और अर्थ सम्पन्न देश सहायता देते हैं। जिससे इनका उपयोग करके अल्प विकसित या विकासशील देशों के तन्त्र को अस्थिर किया जा सके। यह कुचक्र बहुत दिनों से चल रहा है। प्रतिवर्ष लाखों करोड़ डॉलर इसके लिए व्यय किए जाते हैं। संसार में अपना प्रभुत्व बना रहे इस चाह ने शक्तिशाली देशों को उन्मादी बना दिया है। मानवता के प्रति अपराध के दोषी यदि इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को बढ़ावा देने वाले कतिपय संगठन हैं, तो निश्चित रूप से यह भी कहा जाना चाहिए कि इस्लाम और क्रिश्चियनिटी को उनके अनुचित उद्देश्यों के लिए आर्थिक अथवा अन्य प्रकार का बढ़ावा देना भी घोर अपराध है। ऐसी दशा में कोई प्रश्न कर सकता है कि जब सभी कुछ मिल बांटकर चल रहा है, तो विश्व युद्ध की आशंका कहाँ से आ गयी।
तीसरे विश्व युद्ध की आशंका इस बात से प्रकट हो रही है कि एक हिंसक जीव को बढ़ावा देने का सीधा अर्थ यह भी है कि एक दिन वह उसे ही ग्रस लेता है जो उसे पालता है। कट्टरपन्थ भस्मासुर की तरह है। ये भस्मासुर इस्लाम और ईसाइयत दोनों धड़ों से उभरता चला आ रहा है। यदि एक दिन अमेरिका के ट्विन टॉवर पर घातक आक्रमण हो सकता है तो ऐसे आक्रमणों का सिलसिला कब फूट पड़े कौन जाने। भारत के साथ दोनों मिलकर खिलवाड़ कर रहे हैं। इस्लाम और ईसाइयत भारत के टुकड़े होते देखने को आतुर हैं। तो क्या संसार की सुरक्षा एजेंसियों ने यूरोप और अमेरिका के देशों को सुरक्षित मान लिया है। कट्टरपन्थ उनको डसने के लिए हर दिन कुछ कदम आगे बढ़ रहा है। यूरोप के कई देशों की अर्थ व्यवस्था को ग्रहण लग चुका है। अपनी मेधा पर गर्व करने का समय अब अमेरिका के लिए नहीं बचा। धन के बल पर भारत जैसे देश से कब तक मेधा क्रय करोगे। तुम्हारी प्रगति के मध्याह्न के दिन बीत रहे हैं। इस बेला में चेत जाने में ही भलाई है। विकसित देशों को आसन्न संकट से बचाव के लिए बड़ा समूह बनाकर काम करना चाहिए। अन्यथा पानी नाक से ऊपर चला जाएगा।
दुनियाभर के छद्म बुद्धिजीवी और प्रचार माध्यम मुस्लिम आतंकवाद को यह कहकर बढ़ावा देते हैं कि इस्लाम के खिलाफ संसार भर में जारी विरोध के कारण मुस्लिम आतंकवाद बढ़ता है। इनका मानना है कि इस्लामिक अथवा ईसाइयत के आतंकवाद को रोकना है तो इनकी सार्वजनिक आलोचना करने की प्रवृत्ति छोड़ देनी चाहिए। यह बुद्धिजीवी जो कुछ कह रहे हैं उसका तात्पर्य जानते तो हैं पर इनकी विवशता यह है कि आतंकवाद को बढ़ावा देने के पीछे इनकी सहभागिता जुड़ी हुई है।
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ऐसे बुद्धिजीवियों और मीडिया कर्मियों को समाज के जागरूक लोगों द्वारा बार बार लताड़ा जाता है। पर इनकी टेंव सुधरती नहीं। यही उपाय है कि इन्हें सर्व समाज के समक्ष आतंकवाद का समर्थक बताकर ठुकराया जाये। आतंकवाद को समर्थन व सहयोग देने वाला भी आतंकी है। यह बात मान भी ली जाये कि चन्द आतंकवादियों के पीछे उन्हीं की सोच का पूरा समाज खड़ा रहता है। तो क्या ऐसे समाज के समक्ष शेष लोगों को घुटने टेक देने चाहिए। ऐसी बुद्धि को धिक्कार है। जिन देशों ने अपने ऐसे बुद्धिजीवियों और समाज को बढ़ावा दिया उनके समक्ष आतंकवाद का संकट दिन प्रतिदिन गहरा रहा है। सही सोच के आधार पर निराकरण निकालना समय की मांग है। इस्लाम और ईसाइयत के अतिवाद ने बहुत से देशों की शान्ति को सदा के लिए भंग कर रखा है। जो देश यह समझते हैं कि आग की लपटे अभी उनके द्वारा तक नहीं आयी, वह बड़ी भूल कर रहे। विनाश के भयावह राक्षस को बढ़ावा देने की प्रवृत्ति रोकनी चाहिए। अन्यथा तीसरा विश्वयुद्ध सभी के द्वार पर आग के गोले बरसाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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