राघवेंद्र प्रसाद मिश्र
Bihar Elections 2025: बिहार चुनाव 2025 के परिणाम ने साफ संदेश दिया है कि राष्ट्रवाद के सामने भाई-भतीजावाद, तुष्टिकरण व जातिवाद की राजनीति अब नहीं चलेगी। बिहार चुनाव में एनडीए जहां राष्ट्रवाद के मुद्दे पर मजबूती से खड़ा रहा वहीं विपक्ष का महागठबंधन जातिवाद की सियासत में उलझा नजर आया। बिहार चुनाव के नतीजों को देखकर समझा जा सकता है कि यहां की जनता ने एकबार फिर से जातिवाद की राजनीति करने वालों को नकार दिया है। एनडीए को मिली प्रचंड जीत ने साबित कर दिया है कि जनता को अब लालच देकर गुमराह नहीं किया जा सकता।
चुनाव में बीजेपी और जेडीयू जहां राष्ट्रवाद और विकास के मुद्दे पर मैदान में थे वहीं इंडी गठबंधन अपने घिसे-पिटे जातिवाद, तुष्टिकरण, पिछड़ा और दलित की राजनीति से ऊपर नहीं उठ पाया। बिहार के छपरा से राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के उम्मीदवार खेसारी लाल यादव और सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनाव में जातिवाद का जो जहर घोला था मतदान के दौरान उसका असर भी देखने को मिला था। मतदान के दौरान यादव बाहुल्य क्षेत्रों में बीजेपी और जेडीयू के नेताओं के साथ जो अभद्रता की गई, उसका असर चुनाव नतीजों पर पड़ना तो स्वाभाविक था ही।

छपरा से आरजेडी प्रत्याशी खेसारी लाल यादव ने चुनाव के दौरान जो सियासी रंग बदला वह जनता को रास नहीं आई। चुनाव से पहले खेसारी लाल यादव की लालू परिवार से बढ़ती नजदीकियों पर जब उनसे बात की गई तो उन्होंने चुनाव लड़ने से साफ इनकार कर दिया था। लेकिन चुनाव के करीब आते ही उन्होंने खुद की जगह अपनी पत्नी चंदा को चुनावी मैदान में उतरने के संकेत देकर जातिवाद की लौ जला दी। उनके इस बयान के बाद यह साफ हो गया कि परिवारवाद और जातिवाद से ऊपर नहीं उठना चाहते।
इतना ही नहीं राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) की तरफ से छपरा से उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद उन्होंने सहजता से चुनाव लड़ने की हामी भी भर ली। इसके बाद चारा घोटाले में सजायाफ्ता लालू परिवार के बचाव में वह लगातार बैटिंग भी करते रहे। तेजस्वी यादव की सरकार बनने पर हर परिवार को नौकरी देने के वादे को खेसारी ने चुनाव में भुनाने की पूरी कोशिश की। बावजूद इसके उन्हें हार का सामना करना पड़ा। वहीं नौकरी के बदले जमीन मामले में कोर्ट के चक्कर लगा रहे तेजस्वी का बिहार के हर परिवार को नौकरी देने का वादा यहां की जनता के गले से नहीं उतर रहा था।

आरजेडी प्रत्याशी खेसारी लाल भावनाओं में इतना बहे कि वह चुनाव प्रचार के दौरान अयोध्या राममंदिर पर सवाल खड़े करने लगे। उन्होंने सुझाव दिया कि मंदिर की जगह अस्पताल बनना चाहिए था। उनका यह बयान अकारण नहीं था, मुस्लिमों को लुभाने के लिए राममंदिर का विरोध करना सबसे आसान रास्ता रहा है। तभी तो राममंदिर आंदोलन का विरोध सपा मुखिया रहे मुलायम सिंह यादव और बिहार के मुख्यमंत्री रहते लालू प्रसाद यादव ने किया था। पूरे देश में इन दो यादवों को छोड़कर और किसी ने मुखर होकर अयोध्या में राममंदिर निर्माण का विरोध नहीं किया था।
बिना किसी नीति के बिहार के हर परिवार को सरकारी नौकरी दे पाना कितना अव्यावहारिक इसे जनता को समझने में देर न लगी। शायद यही वजह रही की बिहार में परिवर्तन का मन बना चुकी जनता ने एकबार फिर आरजेडी को सिरे से नकार दिया। हालांकि आरजेडी प्रत्याशी खेसारी लाल यादव बचाव में यह तर्क देते रहे कि एकबार तेजस्वी यादव को मौका दो, अगर वह अपने वादे पूरा नहीं करेंगे तो बदल दिया जाएगा। उनका यह तर्क बिल्कुल कुतर्क था, क्योंकि सरकार चाहे सही हो या गलत, उसे पांच साल झेलना ही पड़ता है।
लालू प्रसाद यादव के राज में बिहार का क्या हाल था उसे बिहारी से ज्यादा और कौन समझ सकता है। वहीं जातिवाद को समर्थन देने पहुंचे सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव चुनाव में पीडीए का राग अलापते रहे। वह यह भांप पाने में भूल कर गए कि सबका साथ और सबका विकास की आंधी के सामने केवल पीडीए की बात करना मूर्खपना के सिवा कुछ नहीं है। वहीं ईवीएम का रोना रोने वाले राहुल गांधी इस बार वोट चोरी को मुद्दा बनाने की नाकाम कोशिश करते रहे। उनका आरोप था कि महाराष्ट्र चुनाव और पिछले बिहार विधानसभा चुनाव में वोट चोरी करके एनडीए की सरकार बनाई गई। जबकि हकीकत यह है कि दोनों जगहों पर बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था।
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पुरानी कहावत है ओछरे प्रीत और बालू की भीत ज्यादा दिन नहीं टिकती। चुनाव बाद दोनों राज्यों में गैर एनडीए की सरकार बनी। लेकिन आपसी खींचतान में कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई। जिसका लाभ एनडीए को मिला और वह हारी हुई बाजी के साथ सरकार बनाने में सफल हुई। अपनी नाकामी का दोष दूसरे के सिर फोड़ने से सच्चाई नहीं बदल जाती। वैसे राजनीतिक जानकारों का कहना यह भी है कि लगातार चुनाव हारने की वजह से अपनी नाकामी छिपाने के लिए राहुल गांधी ईवीएम और चुनाव आयोग को बदनाम करने की कोशिश करते रहते हैं।
इन सबके बीच बिहार चुनाव में बिहारियों की असली समस्या और उनके असली मुद्दे गायब हो गये। जिसका लाभ एनडीए को एकबार फिर मिला और वह प्रचंड जीत के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व में सरकार बनाने जा रही है।
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