Ram Mandir: अयोध्या (Ayodhya) में 22 जनवरी, 2024 को श्रीराम मन्दिर (ShriRam Mandir) के निर्माण का प्रथम चरण पूर्ण हो गया। श्रीराम (ShriRam) की भव्य प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा का यह दिन राष्ट्रोदय के रूप में सभी के मन मन्दिर में बस गया। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 11 दिन तक अनुष्ठान के निमित्त व्रत रखा। भगवान की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा के उपरान्त उन्होंने श्रीराम (ShriRam) का चरणोदक ग्रहण करके व्रत की पूर्णता की। इस अवसर पर देशभर से विशेष आमन्त्रण पर बुलाये गये हजारों लोग उपस्थित थे। यह क्षण भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को पनुर्जीवन प्रदान करने में समर्थ सिद्ध हुए। श्रीराम ((ShriRam) के रूप में भारत का राष्ट्रावतार होता प्रतीत हुआ।
भारत का समाज कितना धैर्यवान है
देश में ही नहीं सम्पूर्ण भू मण्डल में यह घटना एक चमत्कार जैसी प्रतीत कराने में सफल रही। लोगों ने देखा कि भारत का समाज कितना धैर्यवान है। पाँच सौ वर्ष पहले हुई अनीति और अन्याय के विरुद्ध भारत के हिन्दू समाज ने कठिन साधना की। बलिदान हुए किन्तु मर्यादा का हनन नहीं होने दिया। ऐसे चिन्तनशील हिन्दू समाज को दुनिया ने सहानुभूति से भरा आशीर्वाद प्रदान किया। एक संकल्वान समाज सब प्रकार से समर्थ होते हुए भी जिस तरह सूत्रबद्ध रहा उसमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे संगठन की महत्ती भूमिका रही है।
श्रीराम गये क्यों थे?
प्रधानमंत्री के उद्बोधन के उपरान्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ मोहन भागवत ने जो कुछ कहा, वह अपने आप में भारत की नाविन्य पीढ़ियों के लिए मार्ग दर्शक सिद्धान्त कहा जाएगा। डॉ भागवत ने कहा कि श्रीराम का आगमन हुआ है। यह अतीव प्रसन्नता की बात है। किन्तु श्रीराम गये क्यों थे। वह कौन से कारण थे जिनके रहते अयोध्या के अति प्राचीन श्रीहरि मन्दिर को विनष्ट करने का दुस्साहस विदेशी आक्रान्ताओं ने दिखाया। उन परिस्थितियों को लेकर सनातन संस्कृति को मानने वाले विभिन्न पन्थों के मनीषियों को गम्भीर चिन्तन करने का यह अवसर है। ऐसे चिन्तन से ही भविष्य की दिशा तय होगी। भारत राष्ट्र के उत्थान के लिए श्रीराम की शक्ति को जाग्रत रखना नितान्त आवश्यक है।
सब प्रकार से बुद्धिमत्ता सम्पन्न होते हुए भी हिन्दू समाज अपने आराध्य के परम पावन मन्दिर की रक्षा नहीं कर सका। जिसका अभिशाप हमारे भारतीय समाज को पॉच सौ वर्षों तक कटोचता रहा। इसे मात्र दुर्दैव कह कर हम हाथ नहीं झाड़ सकते। श्रीराम हमारा राष्ट्रीय स्वाभिमान हैं। उनका निरादर राष्ट्र का निरादर है। आने वाले समय में भारत के लोगों को इस विचार को सदैव ह्दयंगम रखना होगा। श्रीराम के बिना हमारी राष्ट्रोन्नति नहीं हो सकती। संघ प्रमुख के विचार स्वयंसेवकों के लिए ही नहीं चिन्तनशील लोगों के लिए भी बड़े महत्व के हैं।
देश ही नहीं दुनियाभर के विचारक इस बात से सहमत हैं कि संघ की शक्ति का अनुमान जिन्हें है वह जानते हैं कि भविष्य की दिशा सुनिश्चित करने में यह संगठन समर्थ है। भारत के नगरों से लेकर गॉवों तक संघ की शाखाओं का विस्तार हो चुका है। किसी न किसी रूप में संघ की उपस्थिति सुदूर अँचलों तक है। ऐसी स्थिति में समाज को दिशा देने का काम संघ कर रहा है, यह कहना सर्वथा समीचीन है।
संघ मानता रहा है कि भारत को जो स्वतन्त्रता 1947 में मिली वह विखण्डन का दंश देकर अंग्रेजों ने एक अपकार की तरह हमारी ओर उछाला था। एक ओर स्वतन्त्रता मिलने का उत्सव मनाने वालों की भीड़ थी तो दूसरी ओर करोड़ों लोग भीषण वेदना से कराह रहे थे। यह सर्वांग स्वतन्त्रता नहीं थी। एक समर्थ राष्ट्र के नाते भारत को सर्वांग स्वतन्त्रता के मन्त्र को स्वीकार करना चाहिए। तभी राष्ट्र सर्वदा समर्थ और सर्वथा स्वाभिमान से परिपूर्ण होकर अपने स्वत्व की रक्षा कर सकेगा। समर्थ भारत 140 करोड़ भारतीयों का संकल्प है।
इस्लाम के नाम पर होते रहे हैं धार्मिक हमले
श्रीराम मन्दिर स्थापना के बाद संघ प्रमुख ने देशभर में प्रवास करते हुए जो बातें कही हैं वह राष्ट्रोन्नति के लिए सर्वथा विचारणीय हैं। एक लेख में उन्होंने कहा, “हमारे भारत का इतिहास करीब डेढ़ हजार साल से आक्रमणकारियों के खिलाफ लगातार संघर्ष का रहा है। शुरुआती हमलों का उद्देश्य लूटपाट करना और कभी-कभी सिकंदर के आक्रमण की तरह उपनिवेश स्थापित करना था। लेकिन इस्लाम के नाम पर हमले समाज में पूरी तरह से अलगाव ले आए। देश और समाज को हतोत्साहित करने के लिए कई धार्मिक स्थलों को विदेशी आक्रमणकारियों ने नष्ट किया। ऐसा एक बार नहीं बल्कि कई बार और कई जगह किया। उनका उद्देश्य भारतीय समाज को हतोत्साहित करना था, जिससे वे कमजोर समाज के साथ भारत पर बेरोक-टोक और लम्बे समय तक शासन कर सकें। अयोध्या में भी यही सोचकर श्रीराम मंदिर का विध्वंस किया गया था।
मोहन भागवत ने कहा- “राम जन्मस्थान को फिर पाने और जन्मस्थान पर मन्दिर बनाने के लिए बार-बार प्रयास किए गए। इसके लिए कई युद्ध, संघर्ष और बलिदान हुए। इसे लेकर 1858 से ही लोगों ने मोर्चा खोलना शुरू कर दिया था। मगर अंग्रेजों की हिन्दुओं और मुसलमानों के प्रति “फूट डालो और राज करो” की नीति जो पहले से ही चलन में थी, वह 1857 के बाद प्रमुखता से उभरी। 1857 की क्रांति के दौरान बनी हिंदू-मुस्लिम एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने अयोध्या में संघर्ष के नायकों और राम जन्मभूमि की मुक्ति के सवाल पर फांसी दे दी, लेकिन इसे लेकर आंदोलन जारी रहा।”
तुष्टिकरण की राजनीति और मन्दिर
डॉ भागवत का मत स्पष्ट है कि “1947 में देश की स्वतन्त्रता के बाद सर्वसम्मति से सोमनाथ मन्दिर को फिर से बनाया गया, तो श्रीराम जन्मभूमि को लेकर भी खूब चर्चा हुई। लेकिन भेदभाव और तुष्टिकरण जैसी राजनीति की वजह से राममन्दिर का प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहा। इन सबके बीच श्रीराम जन्मभूमि की मुक्ति के लिए 1980 के दशक में जन आंदोलन शुरू हुआ। 1949 में श्रीराम जन्मभूमि पर भगवान रामचन्द्र की मूर्ति प्रकट हुई। 1986 में कोर्ट के आदेश पर मन्दिर का ताला खोला गया। आने वाले समय में अनेक अभियानों और कारसेवा के जरिए हिन्दू समाज का संघर्ष जारी रहा। 134 साल के कानूनी संघर्ष के बाद 9 नवंबर, 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने हिन्दुओं के पक्ष में निर्णय सुनाया। इसके दोनों पक्षों-धर्मों की भावनाओं और तथ्यों को भी ध्यान में रखा गया।”
राम सबसे ज्यादा पूजे जाने वाले देवता हैं
धार्मिक दृष्टिकोण से राम बहुसंख्यक समाज में सबसे अधिक पूजे जाने वाले देवता हैं और इनका जीवन आज भी संपूर्ण समाज की ओर से आदर्श आचरण के रूप में स्वीकार किया जाता है। ऐसे में विवाद से उपजा असंतोष अब समाप्त होना चाहिए। इस बीच जो कड़वाहट पैदा हुई है वह भी खत्म होनी चाहिए। समाज के प्रबुद्ध लोगों को यह देखना होगा कि विवाद पूरी तरह खत्म हो। अयोध्या का अर्थ है एक ऐसा शहर जहां कोई युद्ध न हो, एक संघर्ष रहित स्थान। इस अवसर पर पूरे देश में हमारे ह्दय में अयोध्या का पुनर्निर्माण होना चाहिए। यह हमारा कर्तव्य भी है।
संघ का चिन्तन और करोड़ों स्वयंसेवक संघ
संघ मानता है कि सर्वांगीण स्वतन्त्रता एक बड़ा लक्ष्य है। यह विचार करते समय यह नहीं भूलना चाहिए कि भूगोल, संविधान, शिक्षा प्रणाली की स्वतन्त्रता के साथ देश के विकास के लिए आर्थिक रचना की स्वतन्त्रता भी बहुत जरूरी होती है। भारतीय दर्शन शास्त्र के अनुसार मानव का उद्देश्य इस लोक में सुख प्राप्त करना एवं परलोक में मोक्ष की प्राप्ति है। बिना स्वतन्त्र आर्थिक रचना के परम सुख के लिए आवश्यक साधन नहीं जुटाये जा सकते। साधारण भाषा में कहा जाता है कि भूखे भजन न होय गोपाला। शास्त्रीय भाषा के अनुसार शरीर माध्यम खलु साधनम, अर्थात धर्म की साधना के लिए शरीर एक माध्यम है। जिसका स्वस्थ रहना अति आवश्यक है। अत: अपने देश के सभी शरीर अर्थात 140 करोड़ भारतवासी अपने स्वस्थ शरीर के साथ नैतिक साधनों से अर्थोपार्जन करते हुए परमानन्द प्राप्त करें।
इसके लिए एक ऐसी स्वदेशी अर्थ रचना की आवश्यकता है, जो विदेशी जकड़न से पूरी तरह मुक्त हो। भारत की सर्वांग स्वतन्त्रता के लिए स्वदेश, स्वदेशी, स्वधर्म आधारित आर्थिक रचना अगर नहीं होगी तो अनौतिकता, भ्रष्टाचार, सामाजिक वैमनस्य मुंह बाये खड़े हो जाएंगे। संघ के इस चिन्तन को करोड़ों स्वयंसेवक मन, वाणी और कर्म से स्वीकार करते हैं।
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राष्ट्र के हितों का सर्वांग चिन्तन आवश्यक
भारतीय धर्मशास्त्रों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मनुष्य, परिवार, समाज, देश एवं राष्ट्र को स्वस्थ-स्वतन्त्र रखने के लिए चार पुरुषार्थों का अभ्यास करना चाहिए। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। इन चारों का समन्वय ही सुखी समाज का आधार होता है। क्योंकि ये चारो एक दूसरे के पूरक हैं। भ्रष्टाचार रहित, नैतिक, स्वस्थ, स्वावलम्बी, सामन्जस्य पूर्ण, वीर व्रती सुदृढ़ समाज के लिए कर्म पुरुषार्थ की साधना को आवश्यक माना गया है। शरीर और समाज के पालन-पोषण, सन्तुलित संचालन तथा उत्तरोत्तर विकास के लिए अर्थ पुरुषार्थ आवश्यक होता है। इसी लिए कहा गया है कि सर्वांग स्वातन्त्र्य के लिए समाज और राष्ट्र के हितों का सर्वांग चिन्तन आवश्यक है। ऐसा नहीं हुआ तो समाज में विभेद और विसंगतियां फैलेंगी। भारतीय लोकतन्त्र की विकृतियों का वर्णन प्राय: चिन्तनशील लोग करते हैं। लोगों को रोग का पता है, किन्तु उपचार के सन्दर्भ में उनके सुझावों पर कभी कोई बात नहीं करता। क्योंकि राजनीतिक पुरोधा मात्र चुनावी जीत को ही राष्ट्र की सेवा मान लेते हैं। यह अधूरा चिन्तन भारत के सर्वांग विकास के मार्ग में बड़ी बाधा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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