Maya Kulshrestha
माया कुलश्रेष्ठ

शाश्वत सनातन सृष्टि की एक कथा है। इस कथा में गति है। लय है। ताल है। छंद हैं। ऊर्जा है। संवाद है। प्रवाह है। प्रकृति है। संयोग है। वियोग है। विरह है। प्रेम है। भक्ति है। भावना है। संवेदना है। क्रोध है। अंगार है। शक्ति है। विरलता भी है और अविरलता भी। सार्वभौम शिवत्व की समस्त और समग्र उपस्थिति है। इसे सदाशिव ने बहुत थोड़े रूप ने नटराज होकर हमारे लिए दिया है। हम इसे कितना जी सकते हैं और जान सकते हैं यह एक जन्म में संभव नहीं। इस अनंत यात्रा की कथा के एक स्वरूप भर कोई देख, जान और समझ पाता है। सनातन के सभी ग्रन्थ संवाद और कथाएं हैं। नृत्य की ऊर्जा में इन्हें केवल कथक में कहने की यात्रा भी अनंत है। यही तो है कथक। बिना थके कहने की अनंत यात्रा।

लोक में इसकी परिभाषाएं और प्रस्तुतियों को बहुत सामान्य स्वरूप दिया जाता है। परिभाषाएं गढ़ने वालों ने अपनी-अपनी समझ से इसे अपने ढंग से बताने की केवल चेष्टा भर की है। लोगों ने कहा, कथक शब्द की उत्पनत्ति कथा शब्दव से हुई है, जिसका अर्थ एक कहानी से है। कथाकार या कहानी सुनाने वाले वह लोग होते हैं, जो प्राय: दंतकथाओं, पौराणिक कथाओं और महाकव्योंक की उपकथाओं के विस्तृित आधार पर कहानियों का वर्णन करते हैं। यह एक मौखिक परंपरा के रूप में शुरू हुआ। कथन को ज्याओदा प्रभावशाली बनाने के लिए इसमें स्वां ग और मुद्राएं बाद में जोड़ी गईं। इस प्रकार वर्णनात्म क नृत्यय के एक सरल रूप का विकास हुआ और यह हमें आज कथक के रूप में दिखाई देने वाले इस नृत्यस के विकास के कारणों को भी उपलब्धई कराता है।

वैष्णवव संप्रदाय के माध्यम से इसे 15वीं सदी में उत्तारी भारत में प्रचलित बताया गया था। सिद्धांतत: भक्ति आंदोलन ने लयात्म क और संगीतात्म क रूपों के एक सम्पूार्ण नव प्रसार के लिए सहयोग दिया। राधा-कृष्णी की विषय वस्तुए मीराबार्इ, सूरदास, नंददास और कृष्णसदास के कार्य के साथ बहुत प्रसिद्ध हुई। रास लीला की उत्प त्ति मुख्तऔय: बृज प्रदेश (पश्चिमी उत्त र प्रदेश में मथुरा) में एक महत्वमपूर्ण विकास था। यह अपने आप में संगीत, नृत्यक और व्याबख्याी का संयोजन है। रासलीला में नृत्य , जबकि मूल स्वांऔग का एक विस्तातर था, जो वर्तमान परंपरागत नृत्यअ के साथ आसानी से मिश्रित है।

मुगलों के प्रभाव के साथ इस नृत्यन को एक नया स्वरूप मिला । मुगल अपनी क़बीलाई व्यवस्था से इतर भारत में शासक बन कर यहां की इस पवित्र विद्या को अपने मनोरंजन के लिए उपयोग करने लगे। मंदिर के आंगन से लेकर महल के दरबार तक एक परिवर्तन ने अपना स्था न बनाया, जिसके कारण प्रस्तुरतिकरण में अनिवार्य परिवर्तन आए । हिन्दूग और मुस्लिम, दोनों दरबारों में कथक उच्च‍ शैली में उभरा और मनोरंजन के एक मिश्रित रूप में विकसित हुआ । मुस्लिम आधिपत्य वर्ग के अंतर्गत यहां नृत्य पर विशेष जोर दिया गया। यह उनके लिए केवल मनोरंजन था लेकिन हमारे शास्त्रीय गुरुओं द्वारा प्रदत्त भाव ने इस नृत्यल को सौंदर्यपूर्ण, प्रभावकारी तथा भावनात्मवक (इंद्रिय) आयाम प्रदान किए ।

19वीं सदी में अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह के संरक्षण के तहत् कथक का एक अलग युग देखने को मिलता है। यह कहा जा सकता है कि उसने लखनऊ घराने को अभिव्यगक्ति तथा भाव पर उसके प्रभावशाली स्वेरांकन सहित स्थाेपित किया। जयपुर घराना अपनी लयकारी या लयात्मसक प्रवीणता के लिए जाना जाता है और बनारस घराना कथक नृत्यी का अन्य् प्रसिद्ध पीठे हैं जहां शास्त्रीयता को बचा कर रखा गया।

कथक में गतिविधि (नृत्य ) की विशिष्टन तकनीक है। शरीर का भार क्षितिजिय और लम्ब वत् धुरी के बराबर समान रूप से विभाजित होता है। पांव के सम्पूार्ण सम्पमर्क को प्रथम महत्व दिया जाता है, जहां सिर्फ पैर की ऐड़ी या अंगुलियों का उपयोग किया जाता है । यहां क्रिया सीमित होती है । यहां कोई झुकाव नहीं होते और शरीर के निचले हिस्सेा या ऊपरी हिस्सेै के वक्रों या मोड़ों का उपयोग नहीं किया जाता। धड़ गतिविधियां कंधों की रेखा के परिवर्तन से उत्प़न्नन होती है, बल्कि नीचे कमर की मांस-पेशियों और ऊपरी छाती या पीठ की रीढ़ की हड्डी के परिचालन से ज्यांदा उत्परन्नप होती है।

मौलिक मुद्रा में संचालन की एक जटिल पद्धति के उपयोग द्वारा तकनीकी का निर्माण होता है। शुद्ध नृत्यल (नृत्त ) सबसे ज्याहदा महत्वउपूर्ण है, जहां नर्तकी द्वारा पहनी गई पाजेब के घुंघरुओं की ध्वयनि के नियंत्रण और समतल पांव के प्रयोग से पेचीदे लयात्मंक नमूनों के रचना की जाती है। भरतनाट्यम्, उड़ीसी और मणिपुरी की तरह कथक में भी गतिविधि के एककों के संयोजन द्वारा इसके शुद्ध नृत्यत क्रमों का निर्माण किया जाता है। तालों को विभिन्न् प्रकार के नामों से पुकारा जाता है, जैसे टुकड़ा, तोड़ा और परन-लयात्मिक नमूनों की प्रकृति के सभी सूचक प्रयोग में लाए जाते हैं और वाद्यों की ताल पर नृत्यन के साथ संगत की जाती है। नर्तकी एक क्रम ‘थाट’ के साथ आरम्‍भ करती है, जहां गले, भवों और कलाइयों की धीरे-धीरे होने वाली गतिविधियों की शुरुआत की जाती है । इसका अनुसरण अमद (प्रवेश) और सलामी (अभिवादन) के रूप में परिचित एक परंपरागत औपचारिक प्रवेश द्वारा किया जाता है।

इसके बाद अनेक चक्कंर नृत्य् खण्डों में नृत्यद शैली की एक बहुत विलक्षण विशेषता है। लयात्मकक अक्षरों का वर्णन सामान्य है, नर्तकी अक्सहर एक निर्दिष्टण छंदबद्ध गीत का वर्णन करती है और उसके बाद नृत्यव गतिविधि के प्रस्तु तीकरण द्वारा उसका अनुसरण करती है। कथक के नृत्तत भाग में नगमा को प्रयोग में लाया जाता है । ढोल बजाने वाले (यहां ढोल एक परवावज़, मृदंगम् का एक प्रकार या तबले की जोड़ी में से कोई एक हो सकता है) और नर्तकी-दोनों एक सुरीली पंक्ति की आवृत्ति पर निरंतर संयोजनों का निर्माण करते हैं। अर्थात पहले परवावज़ या तबले पर एक पंक्ति को बजाया जाता है, उसके बाद नर्तकी अपनी नृत्यज गतिविधि या क्रिया में उसे दोहराती है। ढोल पर 16, 10, 14 आघात (ताल) का एक सुरीला क्रम एक आधार पर प्रदान करता है, जिस पर नृत्य का पूरा ढांचा निर्मित होता है।

अभिनय में ‘गत’ कहे जाने वाले साधारण समूहों में शब्द। का प्रयोग नहीं किया जाता और यह द्रुत लय में कोमलता पूर्वक प्रस्तुरत किया जाता है। यह लघु वर्णनात्मरक खण्डम है, जो कृष्ण‍ के जीवन से ली गई एक लघु उपकथा का प्रस्तु्तीकरण है अन्यक समूहों जैसे ठुमरी, भजन, दादरा- सभी संगीतात्मुक रचनाओं में मुद्राओं के साथ एक काव्यायत्म क पंक्ति की संगीत के साथ संयोजन करके व्यांख्या की जाती है।

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इन खण्डोंं में भरतनाट्यम् या उड़ीसी की तरह यहां शब्दक से शब्द या पक्ति से पंक्ति की व्या्ख्याम एक ही समय में की जाती है। यहां नृत्तद (शुद्ध नृत्यी) और अभिनय (स्वांाग) दोनों में एक विषय वस्तुी पर रूपांतरण प्रस्तु(ती करण के सुधार (प्रर्दशन) के लिए बहुत ज्याददा अवसर हैं। व्या ख्या त्म्क और भावनात्मेक नृत्य( की तकनीकियां आपस में अन्तरर्ग्रथित हैं और एक तरफ काव्याहत्माक पंक्ति तथा दूसरी तरफ सुरीली व छंद बद्ध पंक्ति के प्रदर्शन की विविधता के लिए नर्तकी की कुशलता उसकी क्षमता पर निर्भर करती है। अर्थात् यह नर्तकी की सामर्थ्यू पर निर्भर करता है कि वह किस प्रकार एक ही पंक्ति को विविध रूप से प्रस्तुरत कर सकती है।

आज कथक एक श्रेष्ठ नृत्यक के रूप में स्थापित है। केवल कथक ही भारत का वह शास्त्री्य नृत्यृ है, जिसका सम्बं ध मूल सनातन संस्कृदति से रहा है। कथक ही शास्त्री य नृत्यृ का वह रूप है, जो हिन्दुंस्तासनी या उत्तररी भारतीय संगीत से जुड़ा। इन दोनों का विकास एक समान है और दोनों एक दूसरे को सहारा व प्रोत्साेहन देते हैं। मंदिरों के आंगन से निकल कर महलों और दरबारों से होते हुए विश्व संस्कृति के स्थापित मंचों पर कथक की अद्वितीय उपस्थिति अद्भुत है।

(लेखिका वरिष्ठ साहित्यकार हैं।)

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