
नीलांचल पर्वत पर शोभित,
एक नगर है शांत बड़ा,
जहाँ भक्तगण भीड़ लगाए,
करुण भाव में नयन भरा।
पुरी नगरी पूज्य सदैव,
तीर्थों में उत्तम सम्मान,
जहाँ स्वयं भगवान रचाते,
नीलरंग की लीला प्राण।।
इन्द्रद्युम्न नृप भक्तिरत,
धर्मनिष्ठ और दृढ़ विचार,
स्वप्न में देखा हरि स्वरूप,
नीलवर्ण, करुणा अपार।
एक तपस्वी ने यह बोला,
वन में देव छिपे हुए हैं,
नीले काष्ठ शरीर में वासी,
जग के नाथ वही सच्चे हैं।
वह दारु ब्रह्म एक दिवस,
समुद्र तट से निकला स्वयं,
राजा बोले ,मंदिर रच दूँ,
नीलगिरि को करूँ परम।
विश्वकर्मा रूप में आकर,
रूप बनाया दिव्य अनूप,
ना नेत्र, ना हस्त प्रकट, पर
भावों में रस, नयन स्वरूप।
बलभद्र, सुभद्रा संग शोभित,
मध्य विराजे नाथ महान,
संकेतों से बोले वाणी,
छूते हर मन का निदान।
तन अधूरा, भाव अपार,
हर कण में श्रीहरि समाए,
जग के हर प्राणी को दर्शन,
प्रेमपूर्ण सुखरस लुटाए।
रथ यात्रा का पर्व पावन,
आषाढ़ द्वितीया मंगलकारी,
तीन रथों पर बैठ विराजे,
गूँजे जय-जयकार सारी।
गुंडिचा मंदिर की ओर,
भक्तों का सैलाब उमड़ता,
भाव रज्जु से खींच बुलाएँ,
प्रभु को हृदय समीप चढ़ता।
नहीं भेद ऊँच-नीच कोई,
समान दृष्टि देते जगनाथ,
दीन-हीन या हो सम्राट,
सब पर बरसाते प्रभु साथ।
रथ चले तो भाग्य जगे,
तन-मन में उमंग भरे,
जो दर्शन कर ले एक बार,
भवसागर से पार करे।
हे नीलांचल वासी प्रभु,
तू ही ब्रह्म, तू ही विष्णु,
तू ही रचता, पालक तू ही,
तू ही अंत, तू ही ध्रुव-गुण।
तू ही आदि, अज्ञेय स्वरूप,
तू ही शाश्वत ज्ञान प्रमाण,
जग कहता, जगन्नाथ प्रभु!
तू ही सत्य, तू ही महान।
भगवान जगन्नाथ की जय हो