बिहार की राजधानी पटना से 44 किमी की दूरी पर स्थित है बख्तियारपुर नगर (Bakhtiyarpur)। यह नगर 1953 तक नालन्दा नगर (Nalanda) के नाम से प्रसिद्ध था। यहाँ का रेलवे स्टेशन नालन्दा जंक्शन कहा जाता था। स्वतन्त्रता मिलने तक ब्रिटिश शासकों ने इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया। 1947 में भारत को विखण्डित स्वतन्त्रता मिली। स्वराज्य स्थापना का संकल्प लेकर प्रधानमन्त्री के पद पर बापू के हठ के चलते उनके प्रिय पात्र जवाहर लाल नेहरू को ब्रिटिश वायसराय ने सत्ता सौंप दी।
बहुत कम लोगों को पता होगा कि जवाहरलाल नेहरू को भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री के पद की शपथ 09 सितम्बर, 1946 को दिलायी जा चुकी थी। यह शपथ लार्ड माउण्ट बेटन ने अपने कार्यालय में ब्रिटेन के ध्वज यूनियन जैक के समक्ष दिलायी थी। जहाँ ब्रिटेन की महारानी का विशाल चित्र लगा था। वहाँ न तो तिरंगा था जिसे बाद में राष्ट्रीय ध्वज बनाया गया और न ही कोई ऐसा प्रतीक जो भारतीयता का परिचायक कहा जा सके। नेहरू को यह शपथ महारानी विक्टोरिया के प्रति स्वामिभक्ति बनाये रखने के उद्देश्य से दिलायी गयी थी या फिर इसका कोई अन्य उद्देश्य था। यह बात किसी पक्ष ने कभी स्पष्ट नहीं की।
नेहरू ने 15 अगस्त, 1947 की रात भारतीय तिरंगा फहराते हुए भारत की स्वतन्त्रता की घोषणा की थी। उधर कराची में 14 अगस्त को माउण्ट बेटन ने ही रक्त रंजित नये देश पाकिस्तान के आकाओं को शपथ दिलायी थी। एक ओर नेहरू दूसरी ओर जिन्ना और लियाकत अली ने एक दिन के अन्तर पर अपने देशों की सत्ता सम्भाली। पाकिस्तान में तत्काल प्रभाव से हिन्दुओं को समाप्त करने का अभियान छिड़ गया। दूसरी और नेहरू के भारत में मुगलकाल के आक्रान्ताओं और शासकों के स्मारकों को संरक्षित करने का अभियान छेड़ दिया। नेहरू के शब्दों में विदेशी आक्रान्ता घृणा के पात्र नहीं थे। उन्होंने तो भारत में सत्ता अधिष्ठान स्थापित किये। नेहरू का आक्रान्ताओं के प्रति यह प्रेम सर्वविदित है। जबकि नेहरू ने भारत के महान सपूतों राणा प्रताप, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह जैसे अनेक राष्ट्रभक्त वीरों को कभी आदर नहीं दिया।
नालन्दा का नाम बदलकर बख्तियारपुर किया गया
विदेशी आक्रान्ताओं में इख्तियारुद्दीन मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी एक ऐसा नाम है जिसने भीषण नरसंहार के साथ अनेक शैक्षिक संस्थानों, विश्व विद्यालयों को ध्वस्त किया था। नालन्दा विश्वविद्यालय उस समय तक्षशिला के बाद सबसे बड़ा केन्द्र था, जहाँ भारत ही नहीं सारे संसार से शिक्षा ग्रहण करने के लिए शिक्षार्थी आते थे। बख्तियार खिलजी वर्ष 1193 में नालन्दा पहुँचा। उसके साथ छोटी सी सेना थी। उसने नालन्दा के विशाल भवन को देखकर जानना चाहा कि यह क्या है। यहाँ क्या होता है। शैक्षिक संस्थान की सूचना मिलने पर उसने पूछा कि क्या यहाँ इस्लाम और कुरान की शिक्षा दी जाती है। नकारात्मक उत्तर मिलने पर उसने नालन्दा विश्वविद्यालय को जलाकर ध्वस्त करने का आदेश दे दिया। उस समय वहाँ तीन हजार से अधिक शिक्षक और बौद्ध भिक्षु उपस्थित थे। शिक्षा ग्रहण करने वाले विद्यार्थियों की संख्या 09 हजार से अधिक थी।
इन सभी को घेर कर जला दिया गया। विश्वविद्यालय का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। वह वैदिक साहित्य के साथ बौद्ध और अन्य मतों के साहित्य से परिपूर्ण था। इसे भी जला दिया गया। यहाँ की पुस्तकें कई महीनों तक धधकती रहीं। भवन की आग में जलाकर जिन निर्दोष लोगों को मारा गया स्वतन्त्र भारत के नायकों ने उनकी याद कभी नहीं की। उनका स्मारक बनाने की सुध नहीं आयी। पर बख्तियार खिलजी के लिए नेहरू का हृदय दृवित हो उठा।
बख्तियार खिलजी ने नालन्दा नगर में भीषण नरसंहार और रक्तपात किया था। जो भी दिखा उसे मौत की नीद सुला दिया। बख्तियार वहाँ से बंगाल की ओर चला गया। मार्ग में नरसंहार करता रहा। जवाहरलाल नेहरू ने जब सत्ता सम्भाली तक उन्हें नालन्दा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने की तनिक भी चिन्ता नहीं हुई। ब्रिटिश भारत में रेल पटरी बिछी तो यहाँ के रेलवे स्टेशन का नाम नालन्दा रखा गया। जैसे ही नेहरू युग का सूत्रपात हुआ उन्होंने नालन्दा नगर और रेलवे स्टेशन दोनों का नाम बख्तियारपुर कर दिया।
यह दुर्भाग्यपूर्ण निर्णय 1953 में प्रभावी हुआ। नेहरू ने अपने प्रिय जॉन मथाई से यह प्रस्ताव तैयार कराया था। नालन्दा के अतिरिक्त देश के सैकड़ों ऐसे केन्द्र थे जो मुगलों, तुर्कों और अन्य आक्रान्ताओं द्वारा किये गये रक्तपात के प्रतीक थे। इन सभी को स्थापित रखने का निर्णय भारत की उन हुतात्माओं को चिढ़ाने जैसा था जिन्होंने भारत माता के लिए प्राणोत्सर्ग किया था। मथाई को यह प्रस्ताव लागू करने का काम दिया गया था। इनमें बख्तियापुर का प्रस्ताव तब लागू नहीं हो पाया। इसलिए इसे 1952 के चुनाव के बाद लाल बहादुर शास्त्री जब रेल मन्त्री बने तो नेहरू ने उनपर दबाव डालकर 1953 में यह पाप कर्म पूर्ण कर दिया। तब से अब तक इसे परिवर्तित करने का साहस बिहार के किसी मुख्यमन्त्री या देश के किसी प्रधानमन्त्री ने नहीं किया।
प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने 19 जनवरी, 2024 को नालन्दा विश्वविद्यालय के नये भवन का उद्घाटन किया। उन्होंने 22 जनवरी, 2024 को अयोध्या में श्रीरामलला की मूर्ति की प्रतिस्थापना की। इसके तीन दिन पहले नालन्दा विश्वविद्यालय को पुनर्जीवित करने का उनका संकल्प पूर्ण हो गया। बिहार के मुख्यमन्त्री नीतीश कुमार 01 मार्च, 1951 को बख्तियारपुर में ही जन्मे थे। वह एक प्रभावी राजनेता बनकर उभरे। उनसे अपेक्षा थी कि अपने जन्म स्थान का नामकरण फिर से नालन्दा करने की घोषणा करेंगे। किन्तु मुसलिम वोट बैंक के दबाव ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया।
नालन्दा में मुसलिम जनसंख्या का स्रोत बख्तियार खिलजी के आक्रमण में निहित है। बहुत बड़ी संख्या में हिन्दुओं ने खिलजी के समक्ष निर्भय होकर कहा था कि वह प्राण बचाने के नाम पर सनातन धर्म का त्याग नहीं करेंगे। जो डर गये उन्होंने गोमांस खाकर इस्लाम स्वीकार कर लिया। ऐसे लोगों के वंशज अब कई दलों के वोट बैंक बने हुए हैं। बख्तियारपुर नगर की जनसंख्या 60 हजार से अधिक है। इसमें 40 प्रतिशत मुसलिम हैं।
कहते हैं जब नेहरू ने नालन्दा का नाम मिटाकर बख्तियारपुर किया तब एक साथ कई बुजुर्गों और महिलाओं ने रातभर एक मन्दिर में बैठकर प्रार्थना की थी। इस प्रार्थना का उद्देश्य यह था कि जिन्होंने ऐसा निर्णय किया है उन्हें अपने जीवन काल में ही वंश के पतन का दंश सहना पड़े। नेहरू को जब इस बात की जानकारी दी गयी तब उन्होंने हंस कर कहा था कि भारत के लोग प्रार्थना को इतना महत्व देकर गहरे गर्त में गिर रहे है। नेहरू का तर्क था कि भगवान का अस्तित्व नहीं है। भ्रम में जीना बहुत बड़ा पिछड़ापन है। हिन्दु धर्म के सन्दर्भ में नेहरू कभी उदार नहीं रहे। इस धर्म में अपने जन्म को घृणास्पद मानते रहे।
नेहरू के परिवार में बेटी इन्दिरा गांधी उत्तराधिकारी बनकर उभरीं। प्रधानमन्त्री जैसे सर्वोच्च पद पर पहुँचीं। इन्दिरा ने नेहरू का अनुकरण कर सनातन धर्म का त्याग कर दिया था। पारसी मुसलिम से निकाह किया था। दो बेटों के जन्म के बाद पति से अलग हो गयी थीं। एक बेटे की मृत्यु विमान दुर्घटना में हुई, दूसरा राजनीतिक रैली करते हुए काल के मुंह में समा गया। इन्दिरा का एक पौत्र और एक पौत्री भारतीय राजनीति में सनातन संस्कृति के प्रबल विरोधी बनकर खड़े हैं। परकीय शक्तियां भारत में सनातन संस्कृति को नष्ट करने के लिए दांव लगाती रहती हैं। मुसलिम और ईसाई जनसंख्या में वृद्धि करके इस लक्ष्य को प्राप्त करने के उपक्रम निरन्तर चल रहे हैं। भारत षड़यन्त्रकारियों का अड्डा 1947 से ही बना हुआ है। एक ओर बहुतांश हिन्दु समाज को तोड़ने के प्रयत्न चल रहे हैं तो दूसरी ओर लोकतन्त्र के बहाने सत्ता को हथियाने की कुचेष्टाएं प्रबल होती जा रही हैं।
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बख्तियारपुर नगर और रेलवे स्टेशन का नाम बदलने की मांग लम्बे समय से संसद और राज्य विधानसभा में उठती रही है। सभी का मत है कि एक ओर लालू यादव ऐसा नहीं होने देना चाहते तो दूसरी ओर नीतीश कुमार भी दबाव अनुभव करते हैं। संसद में भाजपा की ओर से कई बार यह मांग उठ चुकी है। भाजपा और कई निर्दलीय सदस्यों ने सरकार से कहा है कि खिलजी जैसे दमनकारी का महिमामण्डन करना भारत का अपमान है। संसार के कई बौद्ध मतावलम्बी देश भी इस तरह की मांग करते आ रहे हैं। इतिहासकारों का कहना है कि नालन्दा में खिलजी का उत्पात बहुत वीभत्स था। उसने विद्वानों और विद्यार्थियों का जीवित जला दिया था।
इतना विशाल पुस्तकालय फूंक दिया था जिसकी भरपायी कोई नहीं कर सकता। इतने पर भी बख्तियार खिलजी के स्मारक के रूप में नगर और रेलवे स्टेशन का नाम करण स्वतन्त्र भारत की प्रथम सरकार द्वारा किया जाना अक्षम्य अपराध है। बख्तियार खिलजी को पूर्वज मानने वाले लोग यदि मुट्ठीभर हैं भी तो क्या उनके कारण सत्य से मुँह मोड़कर खड़े रहना चाहिए। बिहार ही नहीं विश्व का जनमानस खिलजी का महिमामण्डन स्वीकार करने को तैयार नहीं है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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