मायावती की नयी राजनीतिक आग में कई लोग झुलस गये, कई लोगों की इच्छाएं और अफवाह भी लहूलुहान होकर खाक हो गये। कई राजनीतिक धाराएं अब मायावती पर पीठ में छूरा घोंपने जैसे आरोप भी लगा रही हैं। अब यहां यह प्रश्न उठता है कि मायावती की राजनीति की नयी आग क्या है? मायावती की नयी राजनीतिक आग भाजपा से दोस्ती का हाथ बढ़ाने और भाजपा को समर्थन देने का है। नये संसद भवन के उद्घाटन पर मायावती ने आश्चर्यजनक ढंग से भाजपा का समर्थन कर दिया। मायावती ने कह दिया कि नये संसद भवन का उद्घाटन करने का अधिकार नरेन्द्र मोदी को है। जबकि कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियां संसद भवन के उदघाटन को लेकर राजनीतिक रार-बखेड़ा खड़ा कर रखी थी। नये संसद भवन का नरेन्द्र मोदी ने उद्घाटन भी कर दिया और अब यह प्रसंग भी सिद्धांतः समाप्त हो चुका है। लेकिन मायावती की भाजपा प्रेम की राजनीतिक आग अभी भी जल रही है। यह कहा जा रहा है कि मायावती को भाजपा के खेमे में कदापि नहीं जाना चाहिए।
मायावती को 2024 में नरेन्द्र मोदी को सत्ता से बाहर करने के लिए विपक्ष का साथ देना चाहिए। लेकिन मायावती अपनी अलग राजनीति के लिए जानी जाती है। मायावती की राजनीतिक शक्ति वर्तमान में वैसी नहीं है जैसी काशीराम के समय में हुआ करती थी। निश्चित तौर पर बसपा की राजनीतिक आग लगभग बुझी हुई है और उसे फिर से जलाने के लिए जनशक्ति की जरूरत है। अभी प्रबल जनशक्ति मायावती के पास नहीं है। 2019 के लोकसभा चुनावों के बाद हुए विधान सभा चुनावों में मायावती की बसपा बूरी तरह से पराजित हुई और उसे सिर्फ एक सीट से संतोष करना पड़ा था।
मायावती को फिर से राजनीतिक सिरमौर बनने के लिए हिन्दुत्व या फिर इस्लाम की बैशाखी चाहिए? मायावती और बसपा घोर हिन्दू विरोधी की पहचान रखती हैं। बसपा का जन्म ही घोर हिन्दुत्व विरोध की कसौटी पर हुआ था। मायावती के राजनीतिक गुरु काशीराम अपनी सभाओं से बड़ी हिन्दू जातियों से चले जाने के लिए कहते थे। काशीराम ने दलितों के बीच में एक्टिविस्ट संस्कृति बनायी थी जो अगडी जातियों को सीधे तौर पर चुनौती देती थी और राजनीति को हथियार बनाने के लिए प्रेरित करती थी। इसका सुखद या फिर दुखद दुष्परिणाम यह निकला कि हिन्दू सवर्ण जातियों और दलितों के बीच में एक दीवार बन गयी, तलवारें भी खींच गयी। इसका लाभ काशी राम को तब मिला जब मुलायम सिंह यादव से उनका राजनीतिक गठबंधन हुआ। फिर काशी राम को सत्ता का सुख प्राप्त हुआ और मायावती दलित राजनीति की चेहरा बन गयी। लेकिन बसपा का यह राजनीतिक प्रयोग बहूत दिन तक क्षमतावान नहीं रहा। मायावती ने सत्ता में आने के लिए सर्व समाज की बातें कर उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी थी और अपने दलितवाद के सिद्धांत का खुद संहार किया था।
मायावती ने राजनीति में एक और प्रयोग की थी। मायावती ने यह समझ विकसित की थी कि दलितों और मुसलमानों के बीच गठबंधन कायम हो जाये, तो फिर सत्ता पर दीर्घकालीक तौर पर कब्जा किया जा सकता है। इसी कारण दलित और मुस्लिम एकता की राजनीति विकसित हुई। मायावती ने इस्लाम को लेकर उदार नीति अपनायी और इस्लाम की रूढ़ियों के खिलाफ चुप्पी साधी। मुसलमानों की ओर से दलितों पर होने वाले अत्याचारों को लेकर कभी भी मुखर नहीं हुई मायावती। कई ऐसी घटनाएं घटी हैं जिसमें मुसलमानों ने दलितों को बस्तियां उजाड़ दी, दलित बच्चियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म की घटनाओं को अंजाम दिया, दलितों की सरेआम हत्याएं की। इस तरह की घटनाओं को लेकर मायावती ने कभी भी दबंग आवाज नहीं दी। राजनीतिक तौर पर दलित और मुस्लिम एकता की परवान चढता गया पर जमीनी स्तर पर दलित और मुसलमानों के बीच भाई चारे की बात आगे नहीं बढ़ी। 2014 के लोकसभा चुनावों और 2017 के विधान सभा चुनावों में मुसलमानों ने मायावती को धोखा दिया, समाजवादी पाटी-अखिलेश यादव को अपना समर्थन दिया। 2022 के विधान सभा चुनावों में भी मुसलमानों ने मायावती के खिलाफ जाकर अखिलेश यादव को समर्थन दिया। यही कारण है कि 2022 के उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में मायावती की बूरी पराजय हुई और उन्हें सिर्फ एक सीट मिली थी। एक सीट जो मिली थी उस पर भी कोई दलित नहीं बल्कि सामान्य वर्ग का व्यक्ति जीता था।
राजनीतिक और वैचारिक समझ चाकचौबंद नहीं होने से बड़े-बड़े नेता अप्रासंगिक भी हो जाते हैं। बसपा और मायावती की राजनीतिक और वैचारिक समझ भी चाकचौबंद नहीं है। राजनीति समय के अनुसार बदलती है, नये समीकरण बनाती है। दलितों को जागृत करने के लिए उग्र हिन्दू विरोध तो असर डाल सकता है, प्रभावकारी हो सकता है। पर सत्ता स्थायी नहीं बना सकता है। मायावती और आधुनिक अंबेडकरवादी स्वयं को बौद्धित्व घोषित कर रखे हैं। जब वे बौद्ध हैं तो फिर उग्र हिन्दू विरोध क्यों? जिस तरह से हिन्दुत्व के खिलाफ उग्र विरोध करते हैं उसी तरह ईसाइत या फिर इस्लाम का घोर विरोध क्यों नहीं करते हैं? इस्लाम में भी जातिवाद है, वर्णवाद है, क्षेत्रवाद है। शिया मुस्लिम, सुन्नी मुस्लिम की मस्जिदों में नहीं जा सकता है, अहमदिया मुस्लिमों को तो दलितों से भी ज्यादा भेदभाव का शिकार बनाया जाता है, अहमदिया मुसलमानों को पीड़ित करना या फिर उनकी हत्या करना अन्य मुस्लिम पुण्य की बात समझते हैं। घोर हिन्दुत्व विरोधी राजनीति अब मायावती या फिर अन्य दलित हस्तियों के लिए आत्मघाती साबित हो रहा है। घोर हिन्दुत्व विरोधी राजनीति से अब सिर्फ रार खड़ा किया जा सकता है पर सत्ता हासिल नहीं हो सकती है।
बसपा सिर्फ उत्तर प्रदेश में ही करिश्मा कर पाती है। अखिल भारतीय स्तर पर बसपा का कोई जनाधार नहीं है। उत्तर प्रदेश से बाहर जो बसपा के नाम पर चुनाव लडते हैं वे अपनी शक्ति से चुनाव जीतते हैं और फिर बसपा को लात मार कर चलते बनते हैं। मायावती भी उत्तर प्रदेश से बाहर निकल कर राजनीतिक संघर्ष करना चाहती ही नहीं है। सिर्फ प्रतीकात्मक तौर पर मायावती उत्तर प्रदेश से बाहर राजनीतिक अभियानों में शामिल होती है। नरेन्द्र मोदी ने भीमराव अंबेडकर और दलितों को सम्मान देने और उनका विकास करनें में कोई कसर नहीं छोड़ी है। दिल्ली में नया अंबेडकर भवन बनाया गया है। नरेन्द्र मोदी मंत्रिमंडल में आजादी के बाद सबसे अधिक दलित मंत्री हैं। एक दलित रामनाथ कोबिंद को नरेन्द्र मोदी ने राष्ट्रपति बनने का अवसर दिया था। इसके अलावा मोदी के जनकल्याणकारी योजनाओं से दलितों को बहुत लाभ हुआ है, उनकी भूखमरी और फटेहाली कम हुई है। लाखों दलितों के घरों में शौचालय, घर बने हैं, निशुल्क गैस कनेक्शन मिले हैं। इसका लाभ नरेन्द्र मोदी को भी मिल रहा है। दलितो का एक बड़ा तबका अब भाजपा को पंसद करने लगा है।
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अब प्रश्न यह है कि मायावती राजनीतिक तौर पर प्रासांगिक कैसे होगी? निश्चित तौर पर मायावती को घोर हिन्दू विरोध की राजनीति छोड़नी होगी, दलित और मुस्लिम एकता की बात छोड़नी होगी, इस्लाम के काफिरवाद पर सोच बदलनी होगी, इसाइयों और मुसलमानों द्वारा दलितों के धर्मातंरण के खिलाफ बोलना ही होगा। मुस्लिम और इसाई की तरह हिन्दू भी अब वोट करने के समय अपने धर्म की चिंता करना सीख रहे हैं। मुस्लिम तो उसी को वोट देते हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर नरेन्द्र मोदी और भाजपा का दमन करने की बात करता है। कांग्रेस तो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा का संहार करने की बात करती है, उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव अति मुस्लिमवाद की राजनीति करते हैं। इसलिए मुस्लिम या तो कांग्रेस या फिर अखिलेश यादव को अपना समर्थन देंगे। ऐसी स्थिति में मायावती को कुछ मिलने वाला नहीं है। मायावती इस्लाम के नजरिये से राजनीति को देखना छोड़े और गुण-दोष के आधार पर राजनीति को देखना शुरू करें। सिर्फ दलित ही नहीं बल्कि अन्य सभी राजनीतिक विषयों पर भी एक्शन और रिएक्शन देना शुरू करें। फिर मायावती की राजनीति प्रासांगिक हो सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार है)
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