सुमित मेहता
संस्थाओं के अपने सामाजिक दायरे होते हैं, सामाजिक सरोकार होते हैं। जब कोई इन दायरों को प्रभावित करने का कोशिश करता है, तो उस पर सवाल उठना लाजिमी हो जाता है। विधायिका, न्याय पालिक और कार्य पालिका की तरह पत्रकारिता भी चौथा स्तंभ माना जाता है। विधायिका, न्याय पालिक और कार्य पालिका की जहां जिम्मेदारी व दायित्वों का निर्धारण किया गया है, वहीं पत्रकारिता को अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर कुछ भी हालि नहीं है। यहां अपने मानक हमें खुद तय करने पड़ते हैं। इतनी उपेक्षा के बाद भारतीय पत्रकारिता का गौरवशाली इतिहास रहा है कि उसने अपनी हद में रहकर हर वर्ग और हर क्षेत्र के लिए काम किया। मिशन से निकलकर मशीनरी होते ही पत्रकारिता का स्वरूप बदलकर मीडिया हो गया। अब पत्रकार पत्रकारिता से ज्यादा मीडिएटर की भूमिका में नजर आने लगे हैं। वहीं टीवी पर होने वाले डिबेट में सारी मर्यादाओं को लांघने की कोशिश होने लगी है। एंकर पुलिस और जज की भूमिका में कार्रवाई और फैसले लेने लगने लगे हैं, जिसके चलते पत्रकारिता की गरिमा लगातार गिर रही है।
भारतीय मीडिया अपने रास्ते से भटक चुका है। आज कल सभी टीवी चैनलों पर सिर्फ एक ही मुद्दा मानसून के बादलों की तरह छाया हुआ है। ज्ञानवापी सर्वे, मंदिर-मस्जिद। टीवी चैनलों पर बड़े-बड़े पत्रकार और पार्टी प्रवक्ता घंटों बहस कर रहे हैं, जिसका मतलब कुछ भी नहीं है। यह बहस लोगों को गुमराह करने वाली है या भड़कने वाली।
मामला कोर्ट में है, न्यायलय के आदेश पर सर्वे हुआ है और रिपोर्ट के आधार पर न्याय भी होगा, लेकिन क्या टीवी चैनल पर बहस करने से विवाद का हल निकलेगा? कोर्ट क्या किसी चैनल की बहस को साक्ष्य मानकर फैसला देगी? बिल्कुल भी नहीं। अयोध्या में आज श्री राम मंदिर बन रहा है, तो वह कोर्ट के आदेश के बाद बन रहा है। टीवी चैनलों ने सालों तक बहस की। 500 से 5000 रुपए देकर धर्म के ठेकेदारों को बुलाया और स्टूडियो में ही चीखना-चिलाना हुआ, लेकिन उसका नतीजा क्या निकला? कुछ नहीं। सिर्फ टीवी चैनलों की टीआरपी पर ही असर पड़ा।
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पिछले कुछ महीनों से भारतीय मीडिया विश्व युद्ध करवाने की जी तोड़ कोशिश कर रहा था। आज नहीं तो कल, और कल नहीं तो परसों तो होगा ही विश्व युद्ध। टीवी स्टूडियो में आधुनिक हथियार और एक्सपर्ट्स के साथ बैठे एंकर दिन भर सायरन बजाते रहे, लेकिन पुतिन ने यूक्रेन पर परमाणु हमला नहीं किया। वहां भी चैनलों के बीच टीआरपी के लिए भीषण युद्ध चला। लेकिन मीडिया वर्ल्ड वॉर कराने में असफल जरूर रहा, क्योंकि वहां भी अंतिम फैसला पुतिन को लेना था, भारतीय मीडिया को नहीं।
अब मीडिया का पूरा फोकस सिर्फ ज्ञानवापी सर्वे पर है। लक्ष्य दोबारा टीआरपी में सबसे आगे रहना। इसके अलावा कुछ नहीं। वहीं आज देश की असल और जमीनी समस्या बेरोजगारी है। मंहगाई है, जिसमें सभी पुराने 25 से 30 साल के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। उस पर चैनलों को सांप सूंघ गया है। कौन सी ऐसी चीज है, जिसके दाम आसमान नहीं छू रहे हैं, लेकिन मजाल है कि एंकर जो खुलकर इस पर बात करना चाहता हो। आज बनारस की गालियों में 40 से 45 डिग्री में खड़े हो रहे टीवी एंकर मंहगाई के मुद्दे पर स्टूडियो से निकले हों। ऑटो में बैठने वाली सवारी हो या उसके चालक से बात की हो। एक रिक्शा-ट्रॉली चलाने वाले लोगों से बात की हो।
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