अवधेश कुमार

भारतीय राजनीति और कांग्रेस के इतिहास में 8 मार्च उस दिन के लिए याद किया जाएगा जब शीर्ष नेता स्वयं अपनी ही पार्टी नेताओं को दूसरी पार्टी के लिए काम करने का आरोप लगाने से लेकर उन्हें बारात के घोड़े तक की संज्ञा दे दी। राहुल गांधी गुजरात के दो दिवसीय दौरे पर थे और उन्होंने अहमदाबाद में पार्टी प्रदेश कार्यालय में प्रमुख नेताओं के साथ बैठक की। अपने ही कार्यकर्ताओं के बीच गुस्से या खीझ में वक्तव्य देने का केवल गुजरात नहीं, पूरे देश के आम कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के अंदर संदेश सकारात्मक नहीं गया होगा। राहुल गांधी और उनके रणनीतिकार – सलाहकार कह सकते हैं कि कांग्रेस को जगह-जगह चुनावी जीत दिलाना और राष्ट्रीय स्तर पर भी सत्ता में लाना है तो भीतरघात करने वालों तथा पार्टी के विचार और लक्ष्य के अनुरूप न काम करने वालों को बाहर करना पड़ेगा।

किसी पार्टी या संगठन में अगर भीतरघाती या दूसरी पार्टी या संगठन के लिए काम करने वाले हों तो इसे सामान्य भाषा में गद्दारी कहते हैं और ऐसे लोगों के साथ इतिहास ने भी कभी अच्छा व्यवहार नहीं किया। सामान्य तौर पर राहुल गांधी की बातों को स्वीकार कर ले तो उन्हें ऐसे लोगों को बाहर करने से रोकने वाला कोई नहीं है। किंतु यह इतना सामान्य नहीं है और उन्होंने जो कहा उसका निहितार्थ उतना ही सपाट भी नहीं है।

पिछले लंबे समय से कांग्रेस के अंदर गहरा वैचारिक अंतर्द्वंद चल रहा है और इसका प्रस्फुटन भी समय-समय पर होता है। केरल के तिरुवनंतपुरम से सांसद और वरिष्ठ नेता शशि थरूर का मामला सामने है। यूपीए शासनकाल में शशि थरूर का कांग्रेस ने स्वागत किया था। शशि थरूर बड़े नेता हैं इसलिए उनका मामला देशव्यापी चर्चा में आ गया। हर राज्य में ऐसे नेताओं की बड़ी संख्या है जिन्हें इसी तरह संदेह की दृष्टि से देखा जा रहा है। जिस पार्टी के अंदर ही एक दूसरे को लेकर संदेह का माहौल हो कल्पना कर सकते हैं कि उसकी दशा क्या होगी। आप कांग्रेस के केंद्रीय कार्यालय में चले जाइए तो कोई न कोई बातचीत करता मिल जाएगा कि पार्टी में आरएसएस तथा मोदी समर्थकों की संख्या बढ़ गई है और इनसे छुटकारा पाए बिना हम सत्ता में नहीं आ सकते। क्या यह सच है?

शशि थरूर के भारत ,राष्ट्र ,हिंदुत्व, अध्यात्म आदि विषयों पर विचारधारा को देखा जाए तो वह कभी हृदय से संघ और भाजपा के समर्थक नहीं हो सकते। उनका हृदय परिवर्तन हो गया हो और उस दृष्टि से भारत, राष्ट्र-राज्य, हिंदुत्व, इसकी सभ्यता – संस्कृति को समझ गए हो तो अलग बात है। अभी तक लेखन और वक्तव्य में उन्होंने ऐसे वैचारिक बदलाव का कोई संकेत दिया नहीं है। यह अलग बात है कि सरकार की कई नीतियों खासकर मोदी सरकार की विदेश नीति पर उनके वक्तव्य व्यवहारिक तथ्यों के साथ रहे हैं। सही को सही कहना भी किसी पार्टी में भाजपा समर्थन या आंतरिक अनुशासन तोड़ना है तो इसका कोई रास्ता नहीं है। एक दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही शशि थरूर के ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दिए गए भाषण, जिसमें उन्होंने अंग्रेजों की आलोचना एवं भारत की प्रशंसा की थी, की तारीफ की तो क्या मोदी थरूर या कांग्रेस समर्थक हो गए?

वर्तमान भारतीय राजनीति का पहला सच यह है कि हर पार्टी के अंदर प्रकट या मौन हिंदुत्व समर्थकों की संख्या बढ़ी है। दूसरे, कुछ नेताओं और पार्टियों का इस सच से सामना हुआ है कि किसी भी स्थिति में हिंदुत्व विरोधी दिखने से उनके जनाधार पर विपरीत असर पड़ेगा और भयवश उन्हें सार्वजनिक तौर पर स्वयं को हिंदुत्वनिष्ठ, धर्मनिष्ठ, राष्ट्रनिष्ठ प्रदर्शित करना पड़ रहा है। हां, ऐसा करते हुए अपने को भाजपा से अलग दिखाने के लिये संघ और भाजपा को गलत हिंदुत्ववादी बताते हैं। राहुल गांधी और उनके पूर्व के रणनीतिकार भी धर्मनिष्ठ होने का प्रदर्शन कर रहे थे। क्या राहुल गांधी को जनेऊधारी हिंदू ब्राह्मण नहीं बताया गया? क्या वे राज्यों के दौरों पर मंदिर- मंदिर नहीं जा रहे थे?

उनकी कैलाश मानसरोवर की यात्रा तक हुई। इसके पीछे रणनीति इतनी ही थी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सामना करना है तो कांग्रेस और उसके नेतृत्व को भी हिंदुत्व और हिंदुत्व प्रेरित राष्ट्रवाद पर किस रूप में आना पड़ेगा। कांग्रेस के अनेक नेता सार्वजनिक मंचों से स्वयं को हिंदू और धर्मनिष्ठ होने का दावा करने लगे थे। क्या राहुल गांधी भाजपा , संघ या मोदी समर्थक हो गए थे? नहीं। तो उनका हिंदुत्व तथा राष्ट्रवाद कांग्रेस का हिंदुत्व राष्ट्रवाद था लेकिन पार्टी के दूसरों का भाजपा समर्थन हो गया?

ऐसी स्थिति तभी आती है जब पार्टी नेतृत्व अपने भविष्य को असुरक्षित महसूस करता है और इस कारण विचार व रणनीति पर एक स्टैंड नहीं ले पता है। दो नावों पर पैर रखने वाला नेतृत्व और संगठन इसी दशा का शिकार होता है। वास्तव में 2019 लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी केंद्रित कांग्रेस को अतिवाममार्गी, सेक्युलर तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एवं राजनीति में भाजपा की हिंदुत्व विचारधारा के विरुद्ध आक्रामक व्यक्तित्व साबित करने की रणनीति अपनाई गई है। इस समय भारत सहित विश्व भर में एक अजीब किस्म का शक्तिसंपन्न डरावना चरम लेफ़्टिज्म, सेक्युलरिज्म जो राष्ट्र, राज्य से लेकर सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक नीतियों पर्यावरण, विकास, शिक्षा आदि मुद्दों पर अतिवादी प्रचंड विचार अभियान चला रहा है।

सारे प्रमुख देशों में इसका प्रभाव दिख रहा है। यह सीधे-सीधे नये रूप का फंडामेंटलिज्म और फेनेटिसिज्म है, जिसका भावानुवाद कट्टरवाद या धार्मिक कट्टरता नहीं हो सकता। विदेश यात्राओं में राहुल गांधी को समय-समय पर ऐसे लोगों या समूहों के साथ देखा गया है। उनके रणनीतिकार और सलाहकारों में ऐसे लोग भरे हैं। राहुल गांधी की एक आक्रामक अति सेक्युलरवादी वामपंथी नेता का स्वरूप सामने आया है। राहुल की यह धारा वास्तव में हिंदुत्व, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, नरेंद्र मोदी या हिंदुत्व विचार के पुरोधाओं के विरुद्ध वैचारिक फंडामेंटलिज्म या सेक्यूलर फेनेटिसिज्म की श्रेणी में आएगा। इसमें वोट के लिए कट्टर मुस्लिमवाद को प्रश्रय देने का व्यवहार अपने आप शामिल हो जाता है।

गुजरात में कांग्रेस जिले-जिले से टूट कर भाजपा में समाहित हुई या अन्य राज्यों में या उसकी राष्ट्रव्यापी दुर्दशा है तो इसके कारणों को समझना होगा। कांग्रेस के अंदर वैचारिक या नेताओं -कार्यकर्ताओं के बीच सामंजस्य का गंभीर संकट पैदा हुआ। जी 23 के पीछे सतह पर अनेक कारण थे लेकिन उनमें एक प्रमुख वैचारिकी यह भी था। उनको लगा कि देश की मुख्य भावना के विरुद्ध अतिवादी विचार एवं ऐसे लोगों को पार्टी में महत्व देने से कांग्रेस का और बंटाधार होगा। राहुल के कई पूर्व निकटस्थ विश्वसनीय रणनीतिकार और सलाहकार मुख्यधारा से बाहर हुए या नेपथ्य में चले गए। उदाहरण के लिए पूर्व मीडिया प्रमुख रणदीप सुरजेवाला का स्थान जयराम रमेश ने लिया। समस्या यह है कि भारत की तासीर धर्म और आध्यात्म है। इसका मूल हिंदुत्व में है। हमारा राष्ट्र भाव इसी से उत्प्रेत और व्यापक है। सेक्युलरवाद हमारे यहां सर्वपंथ समभाव है।

राहुल और उनके रणनीतिकारों के व्यवहार से बड़ी संख्या में पार्टी के अंदर लोग असहज महसूस करते हैं और समय-समय पर प्रकट भी होता है। उदाहरण के लिए जब मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाने का विधेयक लाया तो नेतृत्व के विपरीत कई नेताओं ने समर्थन किया। गृह मंत्री अमित शाह के राज्यसभा एवं लोकसभा में भाषणों का प्रत्युत्तर देखिए, कई नेताओं ने भाग नहीं लिया और कई का स्वर मद्धिम था। संसद के बाहर भूपेंद्र हुड्डा- दीपेंद्र हुड्डा जैसे अनेक नेताओं ने कहा कि 370 हटाना बिल्कुल सही है। अयोध्या में मंदिर निर्माण और श्री रामलला की प्राण प्रतिष्ठा पर भी लगभग हर राज्य से कांग्रेस नेताओं ने केंद्र के स्टैंड और भावनाओं के परे रुख अपनाया तथा कुछ ने सार्वजनिक बयान दिया। यह बिलकुल स्वाभाविक है।

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महाकुंभ में आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, पुनर्जागरण का दिखा विराट रूप बदलते हुए भारत का प्रमाण था जिसे हर पार्टी के नेताओं का बड़ा वर्ग प्रत्यक्ष महसूस कर रहा है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के इस वक्तव्य से बड़े वर्ग की असहमति थी कि क्या गंगा नहाने से गरीबी मिट जाएगी? अनेक कांग्रेसी नेता सार्वजनिक तौर पर प्रयागराज संगम में डुबकी लगाने गए। इनमें कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार भी थे जिनके बारे में सूचना है कि राहुल गांधी की मंडली उनसे नाराज है। अगर राहुल और उनके रणनीतिकार सेक्युलर फंडामेंटलिज्म तथा संघ, भाजपा, मोदी और वीर सावरकर जैसे हिंदुत्व विभुतियों के विरुद्ध फंडामेंटलिज्म और उससे निकली घृणा के भाव में व्यवहार करेंगे तो कल हर व्यक्ति भाजपा समर्थक नजर आएगा। यह कांग्रेस के डगमगाते नाव को बीच तूफान में खेबने वाले नाविकों को ही उत्तेजित कर उसे छोड़ने व डुबोने की भूमिका हो जाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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