पहले ऐतिहासिक नगर आगरा में ताजमहल का दीदार उतना ही आसान हुआ करता था, जितना उस समय लखनऊ में मुख्यमंत्री से भेंट करना। दोनों जगह कोई बंधन नहीं होता था। आगरा में प्रतिवर्ष दिसम्बर के अंतिम सप्ताह में वहां के भव्य प्रेक्षागृह सूरसदन में ‘रंगभारती’ के ‘सप्तरंग ऑर्केस्ट्रा’ का ‘एक शाम किशोर कुमार के नाम’ कार्यक्रम आयोजित होता था, जिसकी बड़ी धूम थी। उस सिलसिले में मेरा आगरे का चक्कर लगता रहता था। लगभग हर मौसम में मेरा वहां जाना होता था। मैं जब भी आगरा जाता था तो प्रयास रहता था कि ताजमहल हो लूं। रिक्शेवाला बाहरी प्रवेश द्वार पर छोड़ देता था, जहां से पैदल काफी भीतर जाकर ताजमहल तक पहुंचना होता था। उस समय ताजमहल की असलियत से मैं अवगत नहीं था। बस चूंकि मुझे ताजमहल अच्छा लगता था, इसलिए मैं वहां जाता था। मेरा इतनी बार वहां पर जाना हुआ कि पूरे परिसर के चप्पे-चप्पे से मैं परिचित हो गया था।
आगरा में मैं सदर के पास प्रतापपुरा चौराहे पर स्थित लोकनिर्माण विभाग के निरीक्षण भवन में अथवा छीपीटोला में टंकी के पास स्थित एक बंगाली होटल में रुकता था। होटल का मालिक मुखर्जी मुझे बहुत मानता था तथा उसका आग्रह रहता था कि मैं उसके यहां रुकूं। वहां रुकना मुझे इसलिए अच्छा लगता था कि शाम को जब मुझे मौका मिलता था, मैं अकेले किले तक पैदल घूमने चला जाता था। रास्ते में कई प्रकार के बाजार मिलते थे, जिनमें एक जगह कैसेटों की एक दुकान थी, जहां अकसर किशोर कुमार के गानों के बड़े अच्छे कैसेट मिल जाते थे।
मैं पैदल किले तक तो जाता ही था, वहां सामने आगरा किला रेल स्टेशन भी चला जाता था और वहां पर कुछ देर बैठना बड़ा अच्छा लगता था। मैं उस समय ट्रेन से यात्रा किया करता था तथा अधिकतर अवध एक्सप्रेस द्वारा आगरा आता-जाता था। स्टेशन पर अधीक्षक से लेकर कुलियों तक काफी लोगों से मेरी बहुत पहचान हो गई थी, इसलिए वहां बड़ा अपनापन भरा वातावरण मिलता था। दो-एक बार मैं स्टेशन पर ऊपर स्थित विश्रामालय(रिटायरिंग रूम) में भी रुका था।
वैसे मैं अधिकतर लोक निर्माण विभाग के निरीक्षण भवन में रुकता था और वहां पहुंचते ही व्यवस्थित होने के बाद सबसे पहले प्रतापपुरा वाले नुक्कड़ पर स्थित दूध की दुकान पर पहुंचता था। दूध मेरा सबसे प्रिय खाद्य पदार्थ है तथा बाहर जाने पर मैं केला व दूध के सहारे हफ्तों रह लेता हूं। आगरा में दूध की बड़ी सुविधा रहती है। जगह-जगह बड़े-बड़े कड़ाहों में दूध गरम होता रहता है। कड़ाहे में निरंतर दूध उड़ेला जाता है, इसलिए उसका स्वाद ताजगीभरा और स्वादिष्ट बना रहता है। उस नुक्कड़वाली दुकान पर जाकर मैं तीन बड़े कुल्हड़ दूध ढकोल लेता था।
जब मैं लखनऊ में शाम को हजरतगंज टहलने जाता था तो कभी-कभी नरही बाजार के बीच में मौजूद मिठाई की दुकान में रबड़ी खाने चला जाता था। उसके यहां कड़ाहे में दूध खौलता रहता था, जो सारे दिन खौलते रहने से लाल हो जाता था। मिठाईवाला मुझे बहुत मानता था। एक दिन मैंने उससे कहा कि वह आगरा हो आए, तब उसे पता लगेगा कि कड़ाहों में दूध कैसे गरम किया जाता है? शायद बाद में उसके लड़के की शादी आगरा में हुई थी।
आगरा में निरीक्षण भवन के पास खेल स्टेडियम है, जहां मैं स्टेडियम- छात्रावास में अकसर जाता था तथा वहां रह रहे सभी खिलाड़ियों से मेरी घनिष्ठता हो गई थी। एक बार स्टेडियम-छात्रावास के अधीक्षक छात्रावास के लड़कों के लिए अंडा खाना अनिवार्य कर रहे थे और इस प्रकार वहां के लड़कों को मांसाहारी बनाया जा रहा था। मैंने उसका कड़ा विरोध किया था और सुझाव दिया था कि लड़कों को भीगा सोयाबीन तथा अंकुर निकला चना व गेंहू खिलाया जाय, जिसमें अंडे से कई गुना अधिक पौष्टिक तत्व होते हैं।
छीपीटोला वाले होटल का मालिक उस स्टेडियम का नाम ‘नेताजी सुभाष स्टेडियम’ रखे जाने का इच्छुक था तथा इसके लिए प्रयासरत था। उसके प्रयास में मैं भी सहयोग देने लगा। लेकिन कांग्रेसी लोग स्टेडियम का नाम ‘नेहरू स्टेडियम’ रखने पर तुले हुए थे, जिसका मैंने कड़ाई से विरोध किया। बाद में जब कांग्रेस का जमाना खत्म हुआ तो उस स्टेडियम का नाम ‘एकलव्य स्टेडियम’ रखा गया।
स्टेडियम के आगे आगरा का सदर बाजार है। बहुत वर्ष पूर्व मेरे जिगरी दोस्त राज ने कभी उस सदर बाजार की प्रशंसा की थी। जब पहली बार मैं उस सदर बाजार में गया तो वास्तव में वह मुझे इतना प्यारा लगा कि मुझे उससे लगाव हो गया। आगरा जाने पर जिस प्रकार मैं ताजमहल का चक्कर लगा लिया करता था, वैसे ही सदर बाजार घूमने भी अवश्य जाता था। अनेक दुकानदारों से मेरी घनिष्ठता हो गई थी। चौराहे के बगल में पेठे की दुकान थी, जिसका मालिक मुझे बहुत मानता था और मैं कुछ देर उस दुकान पर बैठा करता था।
एक बार सूरसदन में हुए हमारे ऑर्केस्ट्रा-कार्यक्रम के अगले दिन कई कलाकार रुक गए थे, जिनके साथ शाम को सदर बाजार घूमने गया। चूंकि ‘रंगभारती’ के कार्यक्रमों की आगरा में बहुत लोकप्रियता थी, इसलिए सदर बाजार में हमारे कलाकारों को पहचानकर लोगों ने घेर लिया और कुछ आइटम दिखाने का आग्रह करने लगे। एक दुकानदार ने झटपट स्पीकर पर टेपरिकॉर्डर फिट कर दिया। फिर तो वहां सड़क के किनारे मैं व मेरे कलाकार घंटों तक ऐसा नाचे कि धूम मच गई तथा पूरी सड़क आसपास से आए लोगों से खचाखच भर गई।
शरद पूर्णिमा वाली रात मैं आठ बजे के लगभग ताजमहल पहुंच जाता था और रात लगभग दो बजे तक वहां मुख्य भवनवाले प्रांगण में चारदीवारी से टेक लगाकर चांदनी में नहाए हुए ताजमहल को निहारा करता था। वह दीदार एक प्रकार से ताजमहल के सौंदर्य का रसपान होता था, जिसे चक्षु-मैथुन कह सकते हैं। शरद पूर्णिमा की अर्द्धरात्रि में ताजमहल सुनहरा हो उठता था और बिलकुल विशाल स्वर्णकलश प्रतीत होता था।
मैं अधिकतर यात्राएं अकेले करता रहा हूं। मेरा स्वभाव है कि यात्रा में या तो मेरे-जैसी रुचि वाला व्यक्ति साथ हो, अन्यथा मुझे अकेले घूमने में आनंद मिलता है। शरद पूर्णिमा को ताजमहल के सामने बैठने में मुझे परम सुख मिलता था। उस रात वहां देशभर से आए लोगों की भारी भीड़ उमड़ती थी, इसलिए ताजमहल का परिसर पूरी तरह भर जाता था। उसमें हर तरह के लोग होते थे तथा रोचक अनुभव हुआ करते थे।
इसे भी पढ़ें: भारत की सांस्कृतिक पहिचान पर गम्भीर संकट
हर साल एक बड़ी विषम स्थिति का भी सामना करना पड़ता था। पता नहीं कैसे यह अफवाह फैली हुई थी कि शरद पूर्णिमा की रात ताजमहल में अचानक कोई खास चमक पैदा हो जाया करती है, जिसे ‘चमकी’ कहते थे। जिसे देखो, वह एक-दूसरे से पूछता था-‘चमकी दिखी?’ मुझे पहले साल जब यह बात सुनाई दी थी तो मैं भी ‘चमकी’ के चक्कर में पड़ा था। लेकिन हर साल शरद पूर्णिमा पर जाते रहने से मेरा भ्रम दूर हो गया। खैर, मेरा अपना भ्रम तो दूर हो गया था, किन्तु उस अफवाह के कारण लोगों से बार-बार ‘चमकी’ सुनकर मेरे आनंद में बाधा पड़ती थी। हो सकता है कि जिस समय ताजमहल में बहुमूल्य रत्न जड़े हुए थे, उस समय शरद पूर्णिमा की रात उन रत्नों में खास चमक दिखाई दिया करती थी, जिसके फलस्वरूप ‘चमकी’ का जन्म हुआ। उस रात यह याद भी आती थी कि आज शरद पूर्णिमा पर मां और पत्नी ने छत पर चांदनी में खीर रखी होगी। लेकिन चंद्रमा से बरसने वाले अमृत में भीगे हुए ताजमहल का सुनहरा सौंदर्य सुधबुध भुला दिया करता था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
इसे भी पढ़ें: देवबन्द मन्दिर की उपेक्षा का परिणाम है मुस्लिम पहिचान