
हिंदुस्तानी होना साधारण नहीं है। 1947 से हम अपनी पहचान से जूझते हुए लोग हैं। मुल्क के आजाद होते ही हम बंट गए। जमीन से भी, दिलों से भी। दुनिया के नक्शे पर नया देश उभरा जिसका नाम ‘पाकिस्तान’ था। भूगोल के बंटवारे और उसके बाद हुए कत्लेआम ने हमें पूरी तरह तोड़ दिया। उस हिस्से में रह गए लोग अचानक ‘पाकिस्तानी’ हो गए, जो कल तक हिंदुस्तानी थे। संभव हो अपनी पहचान बदलना उनका शौक न रहा हो। किंतु वे भारतीय से पाकिस्तानी हो गए। फिर एक दिन अचानक इन्हीं पाकिस्तानियों में कुछ लोग ‘बांग्लादेशी’ हो गए। कई ऐसे लोग होगें जिन्होंने एक ही जनम में तीन मुल्क देखे।
पैदा हिंदुस्तान में हुए, जवान पाकिस्तान में हुए तो बाकी जिंदगी बांग्लादेश में गुजरी। आज देखिए तो तीनों देशों के बीच रिश्ते कैसे हैं। अपने ही लोग रिश्तों में कैसे पराए हो जाते हैं, पाकिस्तान इसका पहले दिन से उदाहरण है तो बांगलादेश अब हिंदुस्तान के विरूद्ध ही अभियानों का केंद्र बन गया है।
एक समय में पाकिस्तान के अत्याचारों से कराह रहे लोगों को मुक्तिवाहिनी भेजकर उन्हें ‘अपना देश’ की खड़ा करने में मददगार रहा भारत आज बांग्लादेश की कुछ ताकतों की नजर में सबसे बड़ा दुश्मन है। वहीं बांग्लादेशियों की जान-माल, अस्मत लूटने वाले पाकिस्तान से फिर से प्यार की पेंगें बढ़ाई जा रही हैं। बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों के छात्र नारे लगा रहे हैं “तुम क्या, मैं क्या रजाकार…रजाकार”। आखिर ये रजाकार कौन हैं। बांग्लादेश में सन 1971 में जमात-ए-इस्लामी के वरिष्ठ सदस्य मौलाना अबुल कलाम मोहम्मद यूसुफ ने जमात के 96 सदस्यों की रजाकारों की पहली टीम बनाई थी।
बंगाली में ‘रेजाकार’ शब्द को ‘रजाकार’ कहा गया। इन रजाकारों में गरीब लोग शामिल थे। वे पाकिस्तानी सेना के मुखबिर बना दिए गए थे, उनको स्वतंत्रता सेनानियों के खिलाफ लड़ने के लिए हथियार भी दिए गए थे। इनमें से ज्यादातर बिहार के उर्दू भाषी प्रवासी थे जो भारत की आजादी और बंटवारे के दौरान बांग्लादेश चले गए थे। ये सब लोग पाकिस्तान के समर्थक थे। रजाकार बांग्लादेश की स्वतंत्रता के विरोधी थे, इन सबने बंगाली मुसलमानों के भाषा आंदोलन का भी विरोध किया था।
कल तक बांग्लादेश में रजाकार शब्द बेहद अपमानजनक शब्द था, क्योंकि ये पाक समर्थक थे। आज यही शब्द इस आंदोलन का नारा बन गया है। कट्टरता कैसे किसी देश को निगलती है,यह उसका उदाहरण है। बांग्लादेश के विश्वविद्यालयों में मौलानाओं की बढ़ती दखल युवा पीढ़ी को हिंसक बना रही है। यह इस देश को उसकी स्मृति से काटकर बांग्लादेशी संस्कृति को कमजोर करने का प्रयास है।
भारत और बांग्लादेश के रिश्तों को किसकी नजर लग गई है? आखिर अपनी सारी सदाशयता के बाद भी भारत निशाने पर क्यों है? अगर सोचेंगे तो पाएंगें इसका एक बड़ा कारण पंथ भी है। कभी भाषा के नाम पर अलग हुए देश अगर एक सुर अलाप रहे हैं तो जोड़ने वाली कड़ी क्या है? क्या कट्टरता और पांथिक एकता इसका मुख्य कारण है या और कुछ। क्या कारण है बांग्लादेशी मुस्लिम अपने ही देश के हिंदुओं की जान के दुश्मन हो गए हैं?
वर्षों से हम जिनके साथ रहते आए, काम करते आए वे अचानक हमें दुश्मन क्यों लगने लगे? अमन पसंद और उदार आवाजों पर क्यों बन आई है? इन सालों में हमने पाकिस्तान को समाप्त होते देखा है। उसे लेकर मजाक बनते हैं। क्या बांग्लादेश उसी रास्ते पर जा रहा है? उसे पाकिस्तान बनने से रोकने के उपाय नदारद हैं। देश की अमनपसंद आवाजें या तो खामोश हैं या खामोश कर दी गयी हैं। तसलीमा नसरीन जैसे लेखक सच लिखने के कारण जलावतन हैं। अखबारों के दफ्तर जलाए जा रहे हैं।
कलाकार, मीडिया के लोग निशान पर हैं। ‘डेली स्टार’ के संपादक महफूज अनम ने साफ कहा है कि “अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अब मुद्दा नहीं हैं, मुद्दा है जीवित रहने का अधिकार।” जाहिर है बांग्लादेश जिस रास्ते पर चल पड़ा है उसके भविष्य का अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान और चीन का बढ़ता हस्तक्षेप उसे अराजक, बदहाल और भारतविरोधी बना रहा है। हाल में ही माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल के विद्यार्थियों ने अपने प्रायोगिक पत्र ‘पहल’ का ‘बंगलादेश विजय विशेषांक’ प्रकाशित किया है। इसका मुख्य शीर्षक है, “जब दूसरे खत्म हो जाते हैं, तब आतंक अपनों को भी नहीं छोड़ता है।” यह अकेला वाक्य इस देश की त्रासदी बयां करने के लिए काफी है।
बांग्लादेश को देखें तो वह काफी अच्छा कर रहा था। लेकिन ताजा हालात में उसकी आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है। जमात ए इस्लामी और इस्लामी उग्रवादी समूहों का उभार भारत और बांग्लादेश दोनों के लिए चिंता का कारण है। अब जो चुनाव होने जा रहे हैं, वह भी आतंक के साए में हो रहे हैं। युवा नेता उस्मान हादी की हत्या से देश का माहौल खराब है और उसकी गाज निरीह हिंदुओं पर गिर रही है। एक हिंदू युवक को जिंदा जला देना इसकी ताजा मिसाल है।
सड़कों पर भीड़ के द्वारा हो रही ऐसी निर्लज्ज बर्बरता बताती है कि हालात कैसे हैं। इस सबके बावजूद बांग्लादेश से भारत के रिश्ते अच्छे बने रहें यह जरूरी है। अपनी सीमा सुरक्षा को मजबूत करते हुए हमें कूटनीतिक स्तर पर संवाद बनाए रखना आवश्यक है। भले ही शेख हसीना के युग जैसे अच्छे रिश्ते न हों किंतु संवाद, सहयोग से कट्टरपंथी प्रभावों को रोकना होगा। बेहतर होगा कि नई लोकप्रिय सरकार का गठन जल्द हो ताकि रिश्ते पटरी पर आ सकें। इसे हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि आज अफगानिस्तान से हमने कूटनीतिक प्रयासों से अपने संबंध सामान्य कर लिए हैं। हालात बदतर हैं लेकिन उम्मीद की जानी कि आने वाले समय में हम फिर कुछ रिश्तों को बहाल कर पाएंगें। अमरीका की वहां बढ़ती सक्रियता एक बड़ा खतरा है।
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अवामी लीग समर्थकों की हत्याएं, उनको जेलों में ठूंसकर, हत्याआरोपियों और आतंकी तत्वों की रिहाई ने वहां हालात बिगाड़े हैं और युनुस ने अपने कार्यकाल से बहुत निराश किया है। किंतु बांग्लादेश की भारत पर निर्भरता बहुत है, हमें भी उनकी जरूरत है। ऐसे में रिश्तों को कूटनीतिक स्तर पर बेहतर किए जाने की जरूरत तो है ही। हमें किसी भी स्तर पर उन्हें पाकिस्तान की गोद में जाने से रोकना है।
भारत एक बड़ा और जिम्मेदार देश है, उसे बहुत संयम और गंभीरता से इस चुनौती का सामना करना होगा। निश्चित ही आज का बांग्लादेश आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संकटों से जूझ रहा है। लेकिन पड़ोसी देश होने के नाते हम उसे उसके हाल पर नहीं छोड़ सकते। धर्मांधता की अंधी गली में उसका प्रवेश खतरनाक है। किंतु हम खामोश देखते रहें, यह विश्वमानवता के लिए ठीक नहीं होगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)
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