Indian democracy: संसार के इतिहास का अवलोकन करने पर अनेक सशक्त राजशाहियों को भू-लुण्ठित होते देखा जा सकता है। बहुत कम राजतन्त्र ऐसे रहे हैं जिनके राजाओं को अन्त समय तक जनता का प्रबल समर्थन और स्नेह प्राप्त होता रहा। भारतीय इतिहास में दोनों तरह के राजाओं के वर्णन मिलते हैं। एक ओर श्रीराम के इक्ष्वाकु वंश में एक से बढ़कर एक प्रतापी राजा हुए जिनको कभी जनता के निरादर का सामना नहीं करना पड़ा। इनमें से कोई अधिनायकवादी अर्थात तानाशाह नहीं बना। श्रीराम और उनके बाद की पीढ़ियों का इतिहास भी यत्किन्चित दोष रहित माना गया है। महाराजा शीरध्वज जनक, सम्राट विक्रमादित्य, चन्द्रगुप्त मौर्य, महारानी अहिल्याबाई, महाराणा प्रताप और क्षत्रपति शिवाजी ऐसे ही राजा और शासक बनकर उभरे जिन्होंने निर्विवाद रूप से प्रजाजनों का स्नेह प्राप्त किया। इनकी राष्ट्रभक्ति और भारत माता के प्रति स्वाभिमान के भाव ने इतिहास को बहुत कुछ सीखने-सिखाने के लिए दिया है।
संसार के अनेक राजतन्त्र भारत की राजतन्त्र व्यवस्था को देखकर उत्पन्न होते रहे हैं। पर इन राजतन्त्रों के नायक प्राय: अधिनायक बनकर उभरे। इन्होंने भारतीय राजतन्त्र व्यवस्था में समाहित लोकतन्त्र के अनिवार्य गुणों के सम्मिश्रण की अनदेखी कर दी। सत्ता का वैभव मुकुट के साथ सदाचार और राग-द्वेष रहित कुशल शासन प्रणाली की कीर्ति से सुशोभित होता है। इस सिद्धान्त को व्यवहार में लाना संसार के विभिन्न देशों की राजशाहियों ने भुला दिया। वंशानुक्रम में स्थापित राजशाहियों का पतन होता रहा। बर्बरता और अन्याय जब सिर चढ़कर बोलता है तो महाभारत जैसे युद्ध अनिवार्य हो जाते हैं।
भारत में महाभारत का युद्ध ईसा पूर्व 3102 में हुआ था। इस महायुद्ध में 01 करोड़ 14 लाख से अधिक वीरों को प्राण गंवाने पड़े थे। ये वीर भारत और पड़ोसी देशों के 53 राजतन्त्रों के थे। युद्ध में भाग लेना इनकी विवशता रही होगी। क्योंकि हस्तिनापुर उस समय संसार का सबसे बड़ा चक्रवर्ती राजतन्त्र था। उस कालखण्ड का यह दुर्भाग्य कहें कि ऐसे विराट साम्राज्य का राजा केवल बाह्य नेत्रों से ही रहित नहीं था, उसके अन्त: चक्षु भी निमीलित थे। वह अपने पुत्र को राजवंश का उत्तराधिकारी बनाने की धृष्टता में अपनों से ही नहीं परमात्मा के साक्षात स्वरूप और सिद्धान्तों से भी वैर ठान बैठा। ऐसे सम्राट का विनाश जनाक्रोश की प्रतिक्रिया स्वरूप ही सम्भव हुआ। तभी तो अपना वचन निभाने के लिए परमात्मा के समस्त लक्षणों से युक्त श्रीकृष्ण ने नायकत्व सम्भाला।
संसार में विज्ञान और तकनीक के साथ व्यापार की आँधी चल रही है। दूसरी ओर सत्ता के उपक्रमों पर अधिनायकवाद अपने सम्पूर्ण विष दन्तों के साथ कुण्डली मारकर बैठ चुका है। भारत में भी अधिनायकवादी प्रवृत्तियां 1947 के बाद पनपती रही हैं। लोकतन्त्र की सीढ़ी पर चढ़कर जनप्रिय इन्दिरा गाँधी ने अपना ऐसा विकृत रूप बना लिया कि वह सदा के लिए भारतीय लोकतन्त्र के अधिनायकवाद की प्रतीक बन गयीं। उन्होंने 18 महीने की तानाशाही के कालखण्ड में अकेले नसबन्दी अभियान में 60 लाख से अधिक लोगों को गहरी चोट दी। इस कालखण्ड में 42 लाख से अधिक लोग जेल में डाले गये। यह संख्या 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन से अधिक थी।
भारत में परिस्थितियों ने बहुत तीव्र गति से मोड़ लिये हैं। नयी तरह की अधिनायकवादी प्रवृत्तियां भारतीय लोकतन्त्र को ग्रास बनाने के लिए उभर रही हैं। 1947 में महात्मा गाँधी के अनुनय पर 03 करोड़ 20 लाख मुसलमान भारत में रुक गये थे। इनको धर्म निरपेक्षता की छतरी तले संरक्षण देने का वचन गाँधी और नेहरू ने दिया था। धर्म निरपेक्षता कानून भारत में लागू भी हुआ। पर इसमें एक कसर छोड़ दी गयी। धर्म निरपेक्षता का स्वांग किया जाने लगा। गैर हिन्दुओं के लिए यह कवच बन गया। उन्हें अपने मत, मजहब और रिलीजन का पालन करने की पूर्ण स्वतन्त्रता मिली। साथ ही यह अधिकार दे दिया गया कि अपनी सामर्थ्यभर छल, बल और धन का दुरुपयोग करके हिन्दुओं का मतान्तरण करते रहें। इस असंवैधानिक अधिकार का निर्लज्जता पूर्वक प्रयोग करके भारत के 16 करोड़ से अधिक हिन्दुओं का मतान्तरण 1947 से 2023 तक हो गया। इस अन्याय को प्रोत्साहन देने वाले राजनेता और उनके दल अब दम्भ में चूर हैं कि वह एक दिन भारत को गैर हिन्दू देश के रूप में पहिचान दिलाकर रहेंगे।
भारतीय लोकतन्त्र कुछ मायनों में सदा से विपन्न रहा है। यहाँ के बहुसंख्य राजनेता सत्ता प्राप्त करते ही विमूढ़ लोभी की तरह व्यवहार करने लगते हैं। पार्टियों की सीमाओं के भीतर लोकतन्त्र कितना है। यह प्रश्न भले ही आम जन के विचार के लिए प्रस्तुत नहीं किया जाता। पर प्रतीति यही होती है कि भारतीय दलों का संचालन लोकतन्त्र की मर्यादाओं की परिधि को तोड़कर होता है। ऐसे सिद्धान्तों की व्याख्या हर पार्टी का सशक्त नेता अपने ढंग से करके गोटे बिछा लेता है। वस्तुत: यही सिद्ध होता है कि अधिनायकवादी राजतन्त्र की कुप्रवृत्तियों की छाया भारत से दूर नहीं हुई। भारत के सदाचारी, धर्मनिष्ठ महा नायकों के नाम इनकी वाणी में तो उभरते हैं पर आचरण से दूर रहते हैं।
लोकतन्त्र और अधिनायकवाद पूर्णतया विपरीत धाराएं हैं। सुव्यवस्थित लोकतन्त्र के पाँच प्रधान गुण माने जाते हैं। मन की निर्मलता नायक का प्रथम गुण है। अपने सहायकों के चरित्र और व्यवहार का समय-समय पर आकलन करते हुए सटीक निर्णय लेना दूसरी अनिवार्यता है। गणतन्त्र के सहायक नेता हों या अधिकारी उनकी स्वच्छन्दता की अनदेखी करना बहुत घातक सिद्ध होता है। इसलिए इसे तीसरी बड़ी अनिवार्यता माना गया है। चौथी अनिवार्यता हर काल की व्यवस्था में सदा प्रासंगिक रही है। यह कि जन-जन को परिस्थिति जन्य क्षोभ प्रकट करने के व्यापक अवसर होने चाहिए। पाँचवीं बात इससे भी महत्वपूर्ण है कि देश की अस्मिता और स्वाभिमान का निरादर करने वालों के साथ अक्षम्य दृष्टि से नीतियों की रचना करने का सामर्थ्य नायक में है या नहीं।
इन पाँच अनिवार्यताओं से इतर भारतीय राजनीतिक दलों की समीक्षा होने लगी है। यही कहा जाता है कि किस दल के नेता में बहुसंख्य समूहों को अकर्षित करने का सामार्थ्य है। ऐसे समीकरण बनाये बिगाड़े जाते हैं जिनमें सर्वजन हिताय की भावना तिरोहित होने लगती है। यह सही है कि लोकतन्त्र का आधार संख्याबल है। तब यह विचार भी उन लोगों को क्षुब्ध कर देता है जो समाज में अपने न्यून संख्या बल को देखकर क्षुब्ध बैठे रहते हैं। भारतीय राजनीतिक दलों में स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के स्थान पर शत्रुता की पराकाष्ठा ने जन्म ले लिया है। यह परिस्थिति भारत के लोकतन्त्र पर पूर्ण ग्रहण का आभास करा रही है। भारत के जन-जन को पता है कि किस दल या गठबन्धन की सत्ता उनके हितों की संरक्षक होगी तथा किसकी पराजय उन्हें सुख देगी।
भारत का लोकतन्त्र कहीं बिक्री की वस्तु तो नहीं बन रहा है। 2024 के लोकसभा चुनाव में ही नहीं इसके पहले भी संसार के अनेक कुटिल धनपतियों, संस्थानों और सरकारों के षडयन्त्र भारत को प्रभावित करते रहे हैं। विदेशी शक्तियां कदापि नहीं चाहती कि भारत में स्थिरता आ सके। पार्टियां आती-जाती रहें पर नीतियों और मान्यताओं की दृष्टि से भारत की एकात्मकता अक्षुण्ण बनी रहे। भारत की एकात्मकता को तोड़ना संसार की कम्युनिस्ट तानाशाहियों का दुर्लक्ष्य है। पश्चिमी जगत भारत की सनातन सांस्कृतिक परम्परा को मिटाने के लिए सदा से उद्यत है। भारतीय संस्कृति, विज्ञान और साहित्य के महान ग्रन्थों की चोरी करके ले जाने वाले देश हमारी शोध को अपने शब्दों में ढालकर महान बनने का ढोल पीटते आये हैं। पश्चिम जगत सदा से यही चाहता है कि भारत सहित दुनिया के समस्त देश उनकी सुविधा के बाजार और बाटिका बने रहें।
भारत में सुव्यवस्थित, स्वाभिमानी, आत्मनिर्भर और सशक्त लोकतन्त्र की अनिवार्यता प्रतीति होती है। यह लक्ष्य वही नायक सुलभ बना सकता है जो ऊपर वर्णित लोकतन्त्र की पाँच कसौटियों पर निरन्तर दृष्टि गड़ाये रहे। यह क्षुब्ध करने वाली बात है कि एक ओर देश का बहुसंख्य समाज चरित्रवान, नैतिक मूल्यों पर खरे उतरने वाले नेताओं की अपेक्षा करता है। पर दूसरी ओर उसे सबल नेतृत्व द्वारा भी बड़बोले, चरित्र हीनता से ग्रस्त ऐसे प्रतिनिधि चुनने के लिए कहा जाता है जो किसी रूप में भारतीय राष्ट्रधर्म अथवा कहें कि रामराज्य के विधानों से मेल नहीं खाते। राजनीतिक तन्त्र उन्हें क्यों नहीं परख पाता जिन्हें जनमानस राजनीति का कूड़ादान मानता है। जिनके चरित्र और चाल में कोई साम्य नहीं है। ऐसे व्यक्ति धनबल, बाहुबल के आधार थोपे जाते रहे तो एक दिन भारत माता कराह उठेगी। यह दुर्दैव नहीं है। अपितु नायक के चातुर्य की खोट दर्शाता है। भारत के लोकतन्त्र का एक और बड़ा दुर्भाग्य है कि उसकी गाड़ी का दूसरा पहिया कभी बदला ही नहीं जाता। प्रशासनिक तन्त्र ऐसा पहिया है जिसका ढर्रा बदलने का साहस 1947 से अब तक किंचित कुछ अवसरों पर ही गिने-चुने राजनेताओं ने किया। पर अन्तत: नौकरशाही लोकतन्त्र के लिए शूल बनी रही।
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लोकतान्त्रिक शासन तन्त्र मानव समाज की सर्वमान्य शासन व्यवस्था कहा जाता है। इसका मूल कारण यह है कि लोकतन्त्र में सभी को अपनी बात कहने, अपना गुस्सा प्रकट करने का अवसर रहता है। पर यह अवसर अत्यन्त सीमित हो चुके हैं। मीडिया का बहुत बड़ा वर्ग उन राहों का हमराही बन चुका है जिनपर सत्ता के घोड़े दौड़ते रहते हैं। एकमात्र अवसर तभी मिलता है जब नये चुनाव की बारी आये। इसके पहले क्षुब्ध होना, माथा पकड़कर बैठे रहना ही सामान्य जन के कोप प्रकट करने के उपाय हैं। भारत में रेलवे स्टेशनों पर भीड़ उमड़ने के अवसर बार-बार आते हैं। देश के अनेक स्टेशन कई दशकों से टुटहिल व्यवस्था में जकड़े हुए हैं। तीर्थ स्थलों में जितना सुधार होना चाहिए नहीं हो रहा। यातायात सहित तमाम जन सुविधाओं के संकटों की बात छिड़ने पर एकमात्र उत्तर यही मिलता है कि यह विशाल जनसंख्या वाला देश है।
सच है कि विकास का रथ धीरे चलता है। पर अपेक्षाओं की चादर कौन बढ़ाता है। जन-जन को लुभाने के लिए भारत में असम्भव सिद्ध होने वाले नारे 1952 के चुनाव से सुने जाते आ रहे हैं। इन्दिरा ने 1971 में गरीबी मिटाने की बात कहकर बड़ा जनसमर्थन प्राप्त किया था। उनकी बहू और पौत्र की पार्टी ने 2024 के चुनाव में हर महीने जनता को हजारों रुपये देने का वचन देकर स्थापित व्यवस्था को पलटने का पाँसा चला। परिणामों की बातें समय-समय पर आकलन का विषय बनी रहेंगी। किन्तु भारत के लोकतन्त्र की ही नहीं भारत राष्ट्र की अस्मिता को समाप्त करने की कुचेष्टाओं कौन रोकेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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