बलबीर पुंज

अनादिकाल से भारत एक महान आध्यात्मिक शक्ति रहा है। 250 वर्ष पहले तक हम विश्व की सबसे मजबूत आर्थिक शक्ति थे। लगातार संघर्ष के बाद भी हम लगभग 600 वर्षों इस्लाम, तो 200 साल अंग्रेजों के अधीन रहे। यह तब हुआ, जब हम शौर्य और किसी भी साधन में कम नहीं थे। शताब्दियों तक चली इस परतंत्रता का एक बड़ा कारण वह वर्ग रहा, जो अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी न किसी शत्रु से जा मिला और हम कमजोर होते गए। क्या इस दुखद इतिहास में हमने कुछ सीखा? शायद नहीं। हाल ही में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने मतदान प्रतिशत बढ़ाने के नाम पर भारत में 182 करोड़ के भारी-भरकम अमेरिकी वित्तपोषण का खुलासा करते हुए इसे बंद कर दिया। यह पर्दाफाश इस बात को रेखांकित करता है कि बढ़ते भारत पर लगाम लगाने के लिए विदेशी शक्तियां किस तरह बेसब्र है।

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने अपने पूर्ववर्ती बाइडेन प्रशासन पर आरोप लगाया कि उसने भारत में चुनाव प्रभावित करने के लिए 21 मिलियन डॉलर खर्च किए। ट्रंप ने सवाल उठाया कि क्या इसके जरिए बाइडेन किसी और को जिताने की कोशिश कर रहे थे। ट्रंप का यह बयान उस समय आया, जब अमेरिकी ‘सरकारी दक्षता विभाग’ ने 16 फरवरी को अपनी एक रिपोर्ट में ‘यूनाइटेड स्टेट्स एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट’ (यूएस-एड) द्वारा भारत में मतदान प्रतिशत हेतु अमेरिकी वित्तपोषण का भंडाफोड़ किया था। इसी रिपोर्ट में यह भी कहा गया कि बांग्लादेश में राजनीतिक हालात मजबूत करने के नाम पर भी 29 मिलियन डॉलर (251 करोड़ रुपये) खर्च किए गए थे। बांग्लादेश में पिछले साल एक नाटकीय घटनाक्रम में शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देना और अपनी जान बचाने के लिए देश छोड़कर भागना पड़ा था। तब से वहां अल्पसंख्यक, विशेषकर बांग्लादेशी हिंदुओं को चिन्हित करके प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रशासनिक समर्थन से उनका मजहबी दमन किया जा रहा है। ऐसे में ट्रंप के खुलासे से मामले की गंभीरता से कहीं अधिक बढ़ जाती है।

दरअसल, यह बाहरी दखल उस तानाशाही और विस्तारवादी सोच की नुमाइंदगी करता है, जिसका काम अपने स्वार्थ और एजेंडे के लिए इतिहास, भूगोल और संस्कृति को बदलना है। वो जमाना लद चुका, जब सेना भेजकर किसी देश पर कब्जा करके वहां के स्थानीय समाज-संस्कृति को मिटा दिया जाता था। वह मानसिकता आज भी जिंदा है, लेकिन उसका तरीका बदल गया है। अब इनके हथियार राजनीतिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, मजहब और आर्थिकी से जुड़े झूठे नैरेटिव हैं। वे चिन्हित देशों में ऐसे बिकाऊ लोगों की फौज खड़ी करते हैं, जो कई मुखौटे (एनजीओ सहित) पहनकर उनके एक इशारे पर अपने ही देश के खिलाफ काम करने लगते हैं। इनमें से कई वैचारिक, राजनीतिक और मजहबी कारणों से, तो कुछ सिर्फ चंद पैसों के लिए देशविरोधी गतिविधियों में शामिल हो जाते है।

Donald Trump

इसी कुनबे में कुछ राजनीतिज्ञों के साथ मीडिया का एक वर्ग और कई स्वयंसेवी संगठन (एनजीओ) भी शामिल है। वे न केवल विदेशियों से सत्ता पाने के लिए सहयोग लेते है, बल्कि विदेश जाकर खुलेआम ‘लोकतंत्र बचाने’ के नाम पर मदद भी मांगते है। यह दिलचस्प है कि स्वयं अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप सार्वजनिक रूप से चार बार से अधिक भारतीय चुनाव में अमेरिकी दखलअंदाजी की बात स्वीकार कर चुके है, लेकिन भारत में एक वर्ग इसे झुठलाने में लगा है। कहीं यह अपनी असलियत सामने आने की बौखलाहट तो नहीं?

यह कोई पहली बार नहीं है। विशेषकर 2014 के बाद जब भी किसी देशविरोधी कृत्यों में शामिल होने के आरोप में किसी एनजीओ या व्यक्ति के खिलाफ कानूनी कार्रवाई होती है, तो उसे ‘वाम-जिहादी-सेकुलर’ कुनबा ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ और ‘लोकतंत्र पर कुठाराघात’ बता देता है। सच तो यह है कि आजादी के बाद कई राजनीतिक दलों ने अलग-अलग समय, देश में विदेशी शक्तियों से उपजे खतरे का संज्ञान लिया है। चाहे वर्ष 1984 में सीपीएम नेता प्रकाश करात हो, या 2012 में तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह या फिर 2022 में केरल के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन— इन सभी ने अलग-अलग शब्दों मं् विदेशी ताकतों (एनजीओ सहित) के जहरीले मंसूबों को रेखांकित किया है।

एक आंकड़े के अनुसार, वित्तवर्ष 2017-18 और 2021-22 के बीच एनजीओ को लगभग 89 हजार करोड़ रुपये का विदेशी चंदा प्राप्त हुआ था। वर्ष 2012 से 2024 तक गृह मंत्रालय कुल 20,721 एनजीओ का विदेशी अंशदान पंजीकरण (एफसीआरए) रद्द कर चुकी है। आखिर विदेशों से एनजीओ को मिल रहे बेहिसाब पैसे का असल मकसद क्या है? क्या यह सच नहीं कि पर्यावरण या मानवाधिकार आदि का मुखौटा लगाकर कुछ संगठन और व्यक्ति-विशेष विदेशी शक्तियों के एजेंडे में भारत की स्वतंत्रता को कमजोर करना, उसकी एकता-अखंडता को तोड़ना और उसकी आर्थिक तरक्की को रोकना चाहते है?

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बात केवल अमेरिका तक सीमित नहीं है। चीन भी एक नया उभरता हुआ साम्राज्यवादी खतरा बन गया है, जिसकी जड़ें पूरी दुनिया विशेषकर भारत के पड़ोसी देशों जैसे पाकिस्तान, नेपाल, श्रीलंका के साथ अफ्रीकी देशों तक फैल चुकी हैं। चीन आर्थिक समझौते के जरिए छोटे-कमजोर मुल्कों को कर्ज़ के जाल में फंसाकर उन्हें पूरी तरह खोखला कर रहा है। पिछले साल अमेरिकी तकनीकी कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में आगाह किया था कि चीन भारत में चुनावों को ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ (एआई) से प्रभावित करने की कोशिश कर सकता है। इसी पृष्ठभूमि में बीते दिनों ही चीन ने अपना स्वदेशी एआई उपक्रम ‘डीप-सीक’ विकसित किया है, जो तकनीकी इन्क़लाब कम, विस्तारवादी चीन का भोंपू ज़्यादा है।

उपरोक्त घटनाक्रम से हमें समझना होगा आधुनिक युद्ध अब सिर्फ सरहदों पर ही नहीं लड़े जाते। हमें बाहरी शत्रुओं के साथ अंदरुनी दुश्मनों से भी सावधान रहना होगा। एक बहुत बड़ी मानवीय-भूगौलिक कीमत चुकाकर जब हम सदियों की गुलामी से आजाद हुए, तो 40 साल की वामपंथ प्रेरित समाजवादी बेड़ियों ने हमारी कमर तोड़ दी। 1991 के आर्थिक सुधारों ने हमें सांस दी, तो 2014 के बाद इसमें पंख लग गए। आज भारत तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की राह पर है और वैश्विक राजनीति का एक दमदार खिलाड़ी है। लेकिन कुंठित औपनिवेशिक ताकतें, कुछ बिके और रास्ता भटके ‘भारतीय पासपोर्टधारकों’ के बल पर इसे बेपटरी करना चाहते हैं।

(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)

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