आचार्य विष्णु हरि
शब्दों में जनभवनाएं और अवधारणाएं निहित होती हैं। जनभावनाओं और अवधारणाओं के अनुसार ही शब्दों की उत्पति होती है और शब्दों का अर्थ होता है। परिस्थितियां शब्दों को नकारात्मक भी बना देती हैं और सकारात्मक भी बनाती हैं। नायक भी बना देती हैं और खलनायक भी बना देती हैं। आईकॉन भी बना देती हैं और घृणा का प्रतीक भी बना देती हैं। उदाहरण के लिए हम बिहारी शब्द का प्रयोग करते हैं। बिहारी शब्द एक समय बहुत ही सकारात्मक और सम्मान का प्रतीक हुआ करता था। लोकतंत्र की पहली पाठशाला बिहार थी, चाणक्य का गौरवमय इतिहास की धरोहर बिहार था। गुरू गोविन्द सिंह, महावीर सहित न जाने कितने महापुरुषों की विरासत बिहार रहा है, महात्मा बुद्ध की कर्म और ज्ञान भूमि बिहार रही है। शेरशाह और अंतिम हिन्दू राजा विक्रमादित्य हेमू की जन्मभूमि बिहार थी।
आज की परिस्थितियां बिहारी शब्द को कितना तिरस्कार, घृणा और लांक्षणा से भर दी है, यह बताने की जरूरत नहीं है। बिहार से बाहर बिहारी शब्द का प्रयोग घृणा करने और तिरस्कार करने, लांक्षणा लगाने और उन पर हिंसा फैलाने के लिए किया जाता है। यह सिर्फ समाजिक प्रश्न नहीं रहा है, यह प्रसंग राजनीतिक भी बन गया है। यह प्रश्न और मानसिकताएं सर्वश्रेष्ठता की ग्रंथि से निकलती है, ज्वंलतशीलता से निकली हुई है, परपमरा या फिर सच की कसौटी का कहीं कोई अस्तित्व तक नहीं होता है, पर देखने की दृष्टि स्वतंत्र होनी चाहिए। निष्पक्ष होनी चाहिए और अपने आप को सर्वश्रेष्ठ बताने की ग्रंथि से मुक्त होना होगा। क्षेत्रवाद की हिंसक और विघटन मानसिकता की दृष्टि आपको छोड़नी होगी।
मैंने विशैला अनुभव किया है। मैंने बैहाया अनुभव किया है। मैंने ज्वलनशीलता का अनुभव किया है। झुठ और मनगढंत ग्रथियों की हिंसक प्रक्रियाओं का अनुभव किया है। उदाहरण गुजरात के शहर अहमदाबाद को देता हूं। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनावों के समय मैं नरेन्द्र मोदी के चुनाव अभियान का एक प्रमुख सदस्य था। इस कारण मैं अहमदाबाद की चुनावी परस्थितियों का अध्ययन कर रहा था। मैं पत्रकारिता के छात्राओं से रूबरू था। मैंने उनसे पूछ लिया कि अहमदाबाद की सबसे बड़ी समस्या क्या है?
पत्रकारिता के छात्र-छात्राओं का उत्तर था कि बिहारियों ने बेड़ा गर्क कर दिया है। गंदगी फैला रखी है, अपराध बढा दिया है। समाज को गंदा कर रहे हैं, इसके अलावा भी कई आरोप लगाये। मैं यह सुनकर अवाक था, मेरे मुंह बंद हो गये थे। मुश्किल से मैं बोला कि पिछले छह महीने से अहमदाबाद में हूं, मुझे तो बिहारियों के दर्शन नहीं हुए। इस तरह के लक्षण भी नहीं दिखे। मैं यहां खुद बिहारियों को ढूंढ रहा था। मेरे ढुंढने के पीछे भोजन था, क्योंकि गुजराती भोजन में मीठे की अधिकता के कारण मेरा स्वास्थ्य खराब चल रहा था। मैंने पत्रकारिता के छात्र-छात्राओं को अध्ययन के लिए प्रेरित किया और निकल पड़े अहमदाबाद की सड़कों पर।
सड़कों के किनारे छोटे-मोटे जरूरी समान बेचने वाले, सड़कों के किनारे ठेला-रेहड़ी लगाने वाले में कोई बिहारी नहीं मिला। सड़कों पर ठेला, रेहड़ी लगाने वाले और जरूरी समान बेचने वाले अधिकतर लोग राजस्थान के थे। कुछ उत्तर प्रदेश के लोग थे, महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश के लोग थे। मैंने पत्रकारिता के छा़त्र-छात्राओं से पूछा कि ये लोग तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और महराष्ट्र के हैं, इनमें एक भी बिहारी नहीं है। प्रतिउत्तर यह मिला कि यही तो बिहारी हैं। मैं समझ गया कि सड़कों के किनारे जो भी सेवा देता मिलेगा, उसे बिहारी ही कहा जायेगा। मुझे एक महान ज्ञान की प्राप्ति हो चुकी थी।
देश की राजधानी दिल्ली में बिहारी शब्द का प्रयोग आम हो गया है, गालियां बकनी है, घृणा प्रदर्शित करना है, अपमानित करना है, लांक्षणा लगाना है तो बिहारी शब्द का प्रयोग अनिवार्य होता है। अरविन्द केजरीवाल तक बिहारी शब्द का प्रयोग कर बिहारियों को अपमानित करने का काम किया है। अरविन्द केजरीवाल का कहना था कि बिहारियों के कारण सरकारी अस्पतालों पर अतिरिक्त भार पड़ा है। अस्पताल गंदे हुए हैं। दिल्ली की जनता के लिए निर्धारित स्वास्थ्य सेवाओं का उपभोग बिहारी कर रहे हैं। दिल्ली में गंदगी के लिए बिहारियों को दोषी ठहराया जाता है। दिल्ली में अपराध के लिए बिहारियों को दोषी ठहराया जाता है।
दिल्ली में बड़ी संख्या में बिहारी हैं, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन क्या दिल्ली में सिर्फ बिहारी ही हैं। कोई सर्वे कर लें, स्वतंत्र और निष्पक्ष अध्ययन कर लें, स्थिति स्पष्ट हो जायेगी। बिहारियों से ज्यादा उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के लोग मिल जायेंगे। बिहारियों से चौगुन-पांच गुने उत्तर प्रदेश के लोग मिल जायेंगे। उत्तराखंड की पूरी पहाड़ी आबादी ही दिल्ली आकर बस गयी। दिल्ली में पहाड़ी आबादी वाले मुहल्ले दर्जनों मिल जायेंगे। उत्तराखंड के लोग सरेआम क्षेत्रवाद करते मिल जायेंगे। दिल्ली देश की राजधानी है। दिल्ली किसी एक क्षेत्र आबादी की नहीं है। दिल्ली में पूरे देश की आबादी की है। इसलिए पूरे देश की आबादी का भार दिल्ली उठाती है।
तीन कसौटियां हैं, इन्हीं तीनों कसौटियों पर इसके पीछे के कारण को जनाना-समझना होगा। पहली कसौटी समाजिक है, दूसरी कसौटी आर्थिक और तीसरी कसौटी राजनीतिक है। समाजिक कसौटी में रहन-सहन से घृणा होती है, क्योकि बिहार से पलायन कर आने वाली आबादी मजदूर संस्कृति की होती हैं। ये सड़कों के किनारे अपना सहारा डालते हैं। सड़कों पर रहने वाले लोगों के वस्त्रों और चेहरे पर चमक का अभाव होना स्वाभाविक हैं। आर्थिक कसौटी पर बिहारी लोग स्थानीय लोगों की आर्थिक स्थिति में अंतर उत्पन्न करते हैं। राजनीतिक कसौटी में बिहारियों की आलोचना कर स्थानीय आबादी के बीच स्थान बनाना एक बड़ा उद्देश्य होता है। इसीलिए न केवल अभियान चलता है, बल्कि कहीं-कहीं तो हिंसक अभियान भी चलता है।
इसका उदाहरण अभी-अभी देखा जा सकता है। अभी-अभी हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सक्खू ने अपने यहां की प्राकृतिक आपदा के लिए बिहारियों को दोषी ठहरा कर तहलका मचा दिया। सक्खू ने कहा कि उनके प्रदेश में जो आपदा बरपा है, उसके लिए बिहारियों की करतूत है। बिहारी आर्किटेक्ट ने मंजिल पर मंजिल बना दिये, इसी कारण भारी वर्षा का दबाव बहुमंजिलें घर नहीं झेल सके। यह आरोप अतिरंजित है। इसलिए कि जिन्हें सक्खू आर्किटेक्ट कह रहे हैं, वे राज मिस्त्री होते हैं और उनकी हैसियत सिर्फ मजदूर की होती है। राज मिस्त्री काम देने वाला गुलाम होता है। काम देने वाला जैसा मकान चाहता है, वैसा मकान वह बनाता है। पहाड़ और भौगोलिक पारिस्थितिकी के अनुसार घर बन रहा है या नहीं, यह देखने का कार्य प्रशासन और सरकार का होता है। सरकार और प्रशासन तब खामोश क्यों था, जब बिना वैज्ञानिक आधार के बहुमंजिलें घर बन रहे होते हैं। व्यापारिक प्रतिष्ठानें बन रहे होते हैं। सच बहुत कड़वी होती है, बहुत ही खतरनाक होती है। सच तो यही है कि पर्यटनखोरी के कारण स्थितियां बदली हुई हैं। पर्यटनखोरी में अतिरिक्त निर्माण हुए, पहाड़ पर अतिरिक्त भार डाला गया।
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पर्यटनखोरी से हिमाचल प्रदेश की सरकार चलती है। देश के घनपशुओं और लूटरी मानसिकताओं ने हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों का दोहन किया। काला धन खफाया और रिसोर्ट पर रिसोर्ट बना दिये। ये रिसोर्ट मौज मस्ती के अड्डे हैं, जहां पर सभी प्रकार की व्यवस्थाएं और आदर्श टूटते हैं। प्रकृति विध्वंस तो अनिवार्य कड़ी है। इसलिए पहाड़ की प्राकृतिक आपदा के लिए उनकी खुद की पर्यटनखोरी, पर्यटनखोरी के माध्यम से धन की कमाई करने की मानसिकताएं दोषी हैं। इसके अलावा लूटरी और धनपशुओं की रिसोर्ट मानसिकता भी कम दोषी नहीं है। पर इस प्राकृतिक आपदा के लिए बिहारी मजदूरों को दोषी ठहराया जा रहा है, जो मनुष्यता की कसौटी न केवल अति रंजित है, बल्कि खतरनाक है। ऐसी मानसिकताएं केरल, महराष्ट्र और तमिलनाडु में देखी गयी है।
बिहारी मजदूर विकास की जरूरत है। बिहारी मजदूरों की जरूरत को निर्माण क्षेत्र समझता है। पंजाब का कृषि क्षेत्र बिहार के मजदूरों की जरूरत को समझता है। बिहार के अप्रशिक्षित मजदूर भी अन्य प्रदेशों के प्रशिक्षित मजदूरों से भी बेहतर और मेहनती होते हैं। लेकिन हमें बिहार की राजनीतिक पहलू को भी नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। बिहार में तीस सालों से लालू-नीतीश राज है। तीस सालों तक पलायन के कारणों यानी बाढ़ और सूखाड़ की समस्या का निदान नहीं हुआ। आधे बिहार में सूखाड़ तो आधे बिहार में बाढ़ की स्थिति बनी रहती है।
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क्या स्वयं बिहारी भी दोषी व जिम्मेदार हैं? बिहार को नॉलेज हब के रूप में विकसित किया जा सकता था। नालंदा के विरासत को जिंदा किया जा सकता था। बिहार के बच्चे दूसरे राज्यों में पढ़ने क्यों जाते? बल्कि दूसरे राज्यों के बच्चे बिहार को अपने ज्ञान की शरण स्थली बनाते। इसलिए बिहार की जनता भी कहीं न कहीं गलत राजनीतिक भाग्य विधाता चयन की दोषी है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)