
UP politics: राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। अवसरवाद के दौर में कौन नेता कब किस दल में शामिल हो जाएं कुछ कहा नहीं जा सकता। उत्तर प्रदेश की राजनीति में कई ऐसे पड़ाव आए जहां नेता एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गये और हालात बदलते ही दोस्त बनने में भी देरी न लगी। 1990 के दशक में यूपी की राजनीति अपने सबसे बुरे दौर से गुजर रही थी। प्रदेश में किसी भी दल को चुनाव में पूर्ण बहुमत नहीं मिल रहा था, जिसकी वजह से विचार धारा के विपरीत जाकर गठबंधन सरकारें तो बनीं लेकिन ज्यादा दिन वो चल नहीं पाईं।
यह वह दौर था, जब सत्ता के भूखे नेता एक-दूसरे की जान के प्यासे हो चुके थे। मायावती के साथ 2 जून, 1995 को गेस्ट हाउस कांड हुआ, जिससे सपा-बसपा एक-दूसरे के जानी दुश्मन बन गए। वहीं अक्टूबर 1997 को विधानसभा के अंदर ही विधायकों के बीच जमकर मारपीट और सिर फुटव्वल हुआ। प्रदेश की सियासत में जारी धमासान के बीच ऐसा बहुत कुछ होना बाकी था, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। 1997-1998 में उत्तर प्रदेश की राजनीति अस्थिरता के दौर से गुजर रही थी। प्रदेश में बीजेपी गठबंधन की सरकार थी और उसे कल्याण सिंह लीड कर रहे थे।
छह छह महीने के टर्म पर बीजेपी और बसपा का गठबंधन की सरकार चल रहा थी, लेकिन कल्याण सिंह ने सीएम बनाते ही मायावती सरकार के कई फैसलों को पलट दिया, जिससे मायावती ने नाराज होकर अपना समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद अल्पमत में आई कल्याण सरकार को स्थिर करने के लिए कांग्रेस विधायक नरेश अग्रवाल ने तुरंत लोकतांत्रिक कांग्रेस पार्टी का गठन किया, जिसमें कांग्रेस छोड़ आये करीब दो दर्शन विधायकों ने समर्थन देकर बीजेपी की सरकार को स्थिरता प्रदान की। इस तरह कल्याण सिंह की सरकार बच गई।
अब प्रदेश की सियासत में वो तूफान आना था, जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी। 21 फरवरी, 1998 को तत्कालीन राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया और जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी। राज्यपाल के इस कदम के बाद लखनऊ से लेकर दिल्ली तक के सियासी गलियारों में हलचल बढ़ गई थी। उधर कल्याण सिंह दावा कर रहे थे कि उनके पास बहुमत है और उन्हें विधानसभा में विश्वास मत साबित करने का मौका दिया जाना चाहिए, लेकिन राज्यपाल किसी की भी सुनने को तैयार नहीं थे।
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रोमेश भंडारी के इस फैसले के खिलाफ कल्याण सिंह और बीजेपी इलाहाबाद हाई कोर्ट पहुंचे, जहां 23 फरवरी को कोर्ट ने रोमेश भंडारी के फैसले को असंवैधानिक ठहराया और कल्याण सिंह की सरकार को बहाल कर दिया। विधानसभा में कल्याण सिंह और जगदंबिका पाल दोनों को बहुमत साबित करने का मौका मिला, जिसमें कल्याण सिंह को 225 वोट और जगदंबिका पाल को 196 वोट मिले।
विधानसभा में बहुमत हासिल करते ही कल्याण सिंह दोबारा सीएम बन गए, जबकि बहुमत साबित करने में असफल हुए जगदंबिका पाल वापस कांग्रेस में शामिल हो गए। जगदंबिका पाल का कार्यकाल 21 फरवरी से 23 फरवरी, 1998 तक चला, लेकिन वह प्रभावी रूप से सिर्फ एक दिन ही मुख्यमंत्री रहे। यही वजह है कि, उन्हें “वन-डे चीफ मिनिस्टर” के नाम से जाना जाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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