भारत को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए सशस्त्र क्रान्ति की परम्परा 1947 तक निरन्तर चलती रही। भारत में ब्रिटिश राज की स्थापना के साथ ही सशस्त्र आन्दोलन प्रारम्भ हो गये थे। उदाहरण के लिए बंगाल में सैनिक विद्रोह क्रान्तिकारी आन्दोलन की एक बड़ी घटना सिद्ध हुई। बंगाल में सैनिक विद्रोह 1757, 1764 और 1773 के प्रारम्भ में ही भड़क उठे थे। सैनिक विद्रोह जिसे 1857 का भारतीय विद्रोह भी कहा जाता है।
चुआड़ क्रांति
पश्चिम बंगाल और झारखण्ड के बहुत बड़े आदिवासी प्रधान क्षेत्रों में अंग्रेजों और उनके पिछलग्गू भारतीय जमीदारों के विरुद्ध किसानों और खेतिहर श्रमिकों ने 1766 में संघर्ष किया था। ब्रिटिश सेना ने इसे कुचलने के लिए बड़ी कठोर कार्रवाई की। भारत माता के निर्धन भक्तों ने अनेक सन्तों की अगुवाई में अंग्रेज सैनिकों का डटकर सामना किया। इसमें बड़ी संख्या में किसान मारे गये। इसे चुआड़ क्रान्ति कहा गया। भारत के कुटिल इतिहासकारों ने अपने ही देश के क्रान्तिवीरों को विद्रोही बताकर उनका अपमान किया। भला कोई राष्ट्रभक्त अपने स्वातन्त्र्य के लिए संघर्ष करते हुए बलिदानी बने तो उसे विद्रोही कहा जाना चाहिए। कांग्रेस के हाथों में सत्ता आयी तो चुआड़ और बंगाल की सैनिक क्रान्ति को अंग्रेजों की भाषा में विद्रोह कहा गया। यह हुतात्माओं का घोर अपमान जिन इतिहासकारों ने किया वह घृणा के पात्र हैं।
संन्यासी समूहों की क्रान्ति
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन काल में बंगाल, बिहार, ओडिसा में मुख्य रूप से बहुत से किसानों की भूमि कम्पनी के ठेकेदारों ने हथिया ली थी। अनेक किसानों को बाध्य किया जाता था कि कम्पनी की इच्छा के अनुसार फसलें उगायें। यह अन्याय उत्तर प्रदेश में भी व्यापक रूप से होने लगा। यह बात 1763-1800 ईस्वी के मध्य की है। इस अन्याय के विरुद्ध इन राज्यों के सन्तों, वैरागियों और साधुओं ने संगठित होकर सशस्त्र आन्दोलन प्रारम्भ किया। इस आन्दोलन की सफलता को देखते हुए बंगाल के कुछ क्षेत्रों में मुसलिम फकीर भी सम्मिलित होने लगे। आन्दोलन इतना प्रखर हुआ कि कम्पनी के अधिकारी भागने लगे। कई स्थानों पर कम्पनी के अनाज भण्डारों को साधुओं ने नियन्त्रण में लेकर समाज के लिए उनके द्वार खोल दिये।
साधु-सन्तों के इस आन्दोलन से प्रभावित होकर सभी राज्यों में कम्पनी के कुशासन पर किसान धावा बोलने लगे। बन्दूकों से निकलने वाली गोलियों की बौछार से बहुत से किसान और साधु मारे जाते रहे। इन बलिदानियों को कुचलने के लिए इग्लैण्ड से सशस्त्र सैनिक भारत आये। बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिसा में कितने साधु और किसान मारे गये इसका आंकड़ा ब्रिटिश सरकार ने कभी नहीं दिया। कांग्रेस ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के इतिहास से साधु-सन्तों, किसानों, फकीरों और सामान्य जनमानस के अनगिन बलिदानियों को दूर रखा। इतना ही नहीं साधुओं के इस स्वतन्त्रता संग्राम को डाकुओं का कृत्य बताकर अपमानित किया गया। जबकि ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अत्याचारों की प्रतिक्रिया कहा है। कांग्रेस के महान नेतृत्व ने ऐसे हुतात्माओं के प्रति किये गये अपमान के लिए कभी दुख नहीं जताया।
संथाल और भूमिज क्रान्ति
संथाल झारखंड राज्य की एक प्रमुख अनूसूचित जनजाति है। यह मुख्य रूप से संथाल परगना प्रमण्डल एवं पश्चिमी तथा पूर्वी सिंहभूमि, हजारीबाग, रामगढ़, धनबाद तथा गिरीडीह जिलों में निवास करती है। संथालों की बस्तियां बिहार राज्य के भागलपुर पूर्णिया, सहरसा तथा मुंगेर प्रमण्डल में भी बसी हैं। संथाल अनुसूचित जनजाति के लोग अपनी भूमि से आत्मीय लगाव रखते हैं। धरती को माता कहते हैं। प्रकृति पूजा में विश्वास करते हैं। पेड़, पौधों, नदियों में देवताओं का वास मानते हैं। सामान्यत: संथाल सरल और दयालु प्रकृति के होते हैं किन्तु शौर्य में किसी से कम नहीं होते। इन संथालों को निरीह समझकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अंग्रेज अधिकारियों ने इनका उत्पीड़न और दोहन शुरू किया। जिससे इनके स्वाभिमान को बड़ा आघात लगा।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधिकारियों के विरुद्ध 1855 में संथाल जनजाति ने आक्रामक रुख अपना लिया। अपनी धरती, अपने वृक्षों और देवताओं के विरुद्ध अपमान को रोकने के लिए संथालों ने जब तीर, कमान और धनुष सम्भाले तो कई स्थानों पर अंग्रेज अपनी बन्दूकें फेंक कर भाग खड़े हुए। स्वाभिमान और स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए यह आन्दोलन एक वर्ष से अधिक समय तक चला। बहुत से संथाल युवक, महिलाएं और बुजुर्गों ने प्राणाहुति दी। इस आन्दोलन को भी भारत के छद्म इतिहासकारों ने अंग्रेजों की भाषा में जनक्रान्ति नहीं विद्रोह कहा। आन्दोलन की हुतात्माओं को भारतीय इतिहास में सदा के लिए विस्मृत कर दिया गया। विचित्रता यह कि अंग्रेज इतिहासकारों ने संथाल और भूमिज विद्रोह को भारतीय इतिहास की ही नहीं संसार में किसानों के स्वाभिमान की विचित्र घटना कहा है। विदेशी इतिहासकार मानते हैं कि अनपढ़ कहे जाने वाले भारतीय किसानों ने स्वाभिमान और मातृ भूमि के लिए बलिदान दिया। कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व ने इस क्रान्ति को स्वतन्त्रता आन्दोलन का अंग नहीं माना। कांग्रेस ने सत्ता पाकर भी इस भूल का प्रछालन नहीं किया।
संथाल आन्दोलन के पूर्व भूमिज क्रान्ति भी किसानों ने की थी। इस आन्दोलन को वैरागी और सन्त समाज का बड़ा समर्थन मिला। इसका नेतृत्व गंगा नारायण नामक एक सन्त ने किया जो कृषक था। 1832-1833 के मध्य अविभाजित बंगाल राज्य के मिदनापुर जिले के धालभूमि और जंगल महल क्षेत्रों में स्थित भूमिज आदिवासियों द्वारा अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध किसानों और श्रमिकों ने क्रान्ति की थी। इस क्रान्ति में बहुत से किसानों का बलिदान हुआ। भारत के इतिहासकारों ने विद्रोह ही बताया।
भारत में 1857 का स्वतन्त्र्य समर
भारत में अंग्रेजों के अत्याचारों के विरुद्ध 1857 की क्रान्ति को भी न्यून करके आंका गया। भारत के इतिहासकारों ने कहा कि 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ी गयी लड़ाई स्वतन्त्रता का संघर्ष नहीं था। अपितु यह तो भारत के कतिपय राजाओं द्वारा अंग्रेजों के विरुद्ध किया गया विद्रोह था। क्रान्तिवीरों के इस अपमान का उद्देश्य एक निहित स्वार्थ भर था। ऐसे इतिहासकार यह सिद्ध करना चाहते रहे कि कांग्रेस ने ही मूलत: स्वतन्त्रता आन्दोलन का नेतृत्व किया। जबकि तथ्यों के आधार पर यह प्रमाणित होता है कि अंग्रेजों के भारत में पांव जमाने से लेकर उन्हें बहिष्कृत किये जाने तक क्रान्ति की अग्नि कभी ठण्डी नहीं पड़ी। 1857 की क्रान्ति इतनी प्रबल थी कि अंग्रेज झुण्ड बनाकर भारत से भाग खड़े हुए थे। इसके कुछ ही वर्षों बाद पंजाब में कूका क्रान्ति हुई। फिर महाराष्ट्र में वासुदेव बलवन्त फड़के ने छापामार युद्ध शुरू किया।
संयुक्त प्रान्त में गेंदालाल दीक्षित की शिवाजी समिति और मातृ देवी नामक संस्थानें स्वतन्त्रता की ज्वाला को प्रबल किया। बंगाल में स्वतन्त्रता की देवी के समक्ष बलिदानियों ने अपने शौर्य का प्रदर्शन कभी बन्द नहीं किया। सरदार अजीत सिंह, रास बिहारी बोस, दादा शचीन्द्र नाथ शान्याल के प्रयासों से हजारों क्रान्तिकारी युवक बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश ओडिसा, मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली से लेकर पंजाब और पेशावर तक अंग्रेजों को छकाते रहे। कई बार बड़ी क्रान्ति की भूमि तैयार हुई। अफगान प्रदेश तक छापामार संगठन सक्रिय हुए। अनेक स्थानों पर समानान्तर शासन व्यवस्था ने अंग्रेजों का छकाया। क्रान्तिवीरों ने ब्रिटिश सैनिकों से सीधे युद्ध की तैयारी की। इन वीरों ने ब्रिटिश सत्ता को बहुत छकाया। रास बिहारी बोस ने तो जापान में गठित आजाद हिन्द फौज के लिए भारत में अनुकूल वातावरण तैयार किया।
आज़ाद हिन्द फौज को संगठित करने का काम मलाया और सिंगापुर में बहुत सुव्यवस्थित ढंग से हुआ। सुभाष चन्द्र बोस ने इस कार्य को गति दी। उन्होंने भारत भूमि पर भारत की स्वतन्त्रता का झण्डा लहराया। आज़ाद हिन्द फौज का भारत में स्वागत होने लगा। भारतवासियों का सारा ध्यान अन्य नेताओं विशेषकर कांग्रेस के आन्दोलन से उचट कर नेताजी की ओर केन्द्रित हो गया। भारतीयों का नाविक विद्रोह तो ब्रिटिश शासन पर बड़ा प्रहार था। अंग्रेज़, मुट्ठी-भर गोरे सैनिकों के बल पर नहीं, अपितु भारतीयों की फौज के बल पर शासन कर रहे थे। आरम्भिक सशस्त्र विद्रोह में क्रान्तिकारियों को भारतीय जनता की व्यापक सहानुभूति और समर्थन मिला।
क्रान्तिवीरों की गतिविधियों का प्रचार जनता में नहीं था। क्योंकि वह अपनी गतिविधियां गुप्त रखते थे। तद्यपि क्रान्तिकारियों द्वारा जो घटनाएं की जाती थीं उसके प्रति जनमानस उत्सुक रहता था। अंग्रेजों के क्रूर अमानवीय व्यवहारों से ही जनता को इनके विषय में जानकारी मिलती रही। काकोरी काण्ड के क्रान्तिवीरों तथा भगतसिंह और उनके साथियों ने जनता का प्रेम व सहानुभूति अर्जित की। भगतसिंह ने अपना बलिदान क्रान्ति के प्रचार के लिए ही किया था। दूसरी ओर गांधी (बापू) के व्यक्तित्व के कारण कांग्रेस की छोटी गतिविधियों को भी व्यापक प्रचार मिलता रहा। इससे कांग्रेस की ओर से जनता को यह समझाने में सहायता मिली कि स्वतन्त्रता के आन्दोलन का सारा श्रेय उन्हीं का है।
कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान
बंगाल की प्रसिद्ध क्रान्तिकारी कमला दासगुप्त ने एक बार कहा था- क्रान्तिकारी संगठनों की निधि है “कम व्यक्ति अधिकतम बलिदान”, दूसरी और महात्मा गांधी की कांग्रेस की निधि है “अधिकतम व्यक्ति न्यूनतम बलिदान”। सन् 1942 के बाद बापू ने अधिकतम व्यक्ति तथा अधिकतम बलिदान का मंत्र दिया था। भारत की स्वतंत्रता प्राप्ति में क्रान्तिकारियों की भूमिका को कांग्रेस के नेतृत्व ने एक बार भी महत्त्वपूर्ण नहीं माना। अंग्रेज सरकार जब भी किसी क्रान्तिकारी को पकड़कर क्रूरतम व्यवहार करती तो बापू सहित कांग्रेस का कोई नेता क्रान्तिवीरों के बचाव में नहीं खड़ा होता। भगत सिंह और उनके साथियों को एक छद्म मुकदमे में फांसी की सजा दी गयी।
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इन तीनों क्रान्तिवीरों को एक दिन पहले संध्या काल में मारकर टुकड़ों में काटा गया तब भी बापू और उनके सभी कांग्रेसी साथी मौन बने रहे। इस दुर्दान्त घटना के तीसरे दिन कांग्रेस का अधिवेशन कराची में हुआ। वहाँ श्रद्धान्जलि देना तो दूर अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार के लिए शोक तक व्यक्त करना उचित नहीं समझा गया। ऐसे प्रकरण अनेक बार घटित हुए। कांग्रेस ने प्रारम्भ से लेकर अन्त तक देशभर के क्रान्तिकारियों के प्रयासों को निरर्थक, अनावश्यक और निन्दनीय माना। गांधी जी ऐसे प्रयासों का विरोध अहिंसा के महात्मा कहलाने के नाम पर करते रहे। उन्होंने यह नहीं सोचा कि लक्ष्य सभी का एक है। हर कोई अपने ढंग से भारत माता की बेड़ियां खण्डित करने के लिए प्रयत्नशील है।
क्रान्ति की ज्वाला अखण्ड जलती रही
भारतीय क्रांतिकारियों के कार्य सिरफिरे युवकों के अनियोजित कार्य नहीं थे। भारत माता के पैरों में बंधी जंजीर तोड़ने के लिए सतत संघर्ष करने वाले देशभक्तों की एक अखण्ड परम्परा थी। देश की रक्षा के लिए कर्तव्य समझकर उन्होंने शस्त्र उठाये। क्रान्तिकारियों का उद्देश्य अंग्रेजों का रक्त बहाना नहीं था। वे तो अपने देश का सम्मान लौटाना चाहते थे। क्रान्तिकारियों के हृदय में स्वतन्त्रता की ज्वाला धधक रही थी, तो दूसरी ओर हंसते हुए फाँसी के फंदे का चुम्बन करने वालों की महानता किसी महात्मा या शूरवीर से कम नहीं थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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