Reservation On The Basis Of Religion: भारत में मुसलिम वोट बैंक अब अपना मूल्य माँग रहा है। मुसलमानों के सहारे राजनीति करने वाले दल अब इससे बचकर भाग नहीं सकते। मुसलमानों की (Reservation On The Basis Of Religion) माँग तभी पूरी हो सकती है जब कानून में बदलाव हो। संसद में प्रचण्ड बहुमत वाली कोई सरकार ही ऐसा कर सकती है। 2024 के चुनाव में खण्डित जनादेश इसकी वर्जना करता है। संसद में नया विधान बनाने के लिए सत्तारूढ़ दल के पास दो तिहाई बहुमत आवश्यक होता है। संविधान में जो प्रावधान अभी तक हैं उसमें धर्म के आधार पर आरक्षण का मार्ग अवरुद्ध है।
विपक्षी दल कांग्रेस और उसकी विचारधारा के आधार पर गठित अन्य अन्य दल बार-बार मुसलमानों की ओर से उठायी जा रही इस मांग के पक्ष में बोल रहे हैं। कांग्रेस ने तो कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के समय किये गये वायदे के अनुरूप पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के हिस्से वाले आरक्षण में फाँट कर दिये। इससे जिन जातियों को हानि होने वाली है वह रुष्ट हैं।
बिहार में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की संगति के समय जाति आधारित जनगणना का मुद्दा बहुत मुखर हुआ। हिन्दु समाज के पिछड़े वर्ग का वोट बैंक भारत में बड़ा प्रभाव रखता है। बिहार में यह माँग उठने के बाद उत्तर प्रदेश, बंगाल, मध्य प्रदेश, राजस्थान सहित कई प्रान्तों में यह माँग उठ रही है। इससे स्पष्ट है कि लोकतान्त्रिक भारत का कोई राजनीतिक दल अधिक दिनों तक पिछड़ी और अनुसूचित जातियों की इस माँग पर अब मौन नहीं रह सकेगा।
वर्ष 2019 में लोकसभा चुनाव के समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने आरक्षण की नीति की समीक्षा की बात उठायी थी। उन्होंने कहा था कि आरक्षण का जो फार्मूला संविधान में दिया गया है, उसकी समीक्षा एक लम्बे अन्तराल के बाद करनी चाहिए। श्री भागवत का आशय था कि आरक्षण मिलने के बाद भी बहुत से लोग वंचित हैं। समीक्षा होगी तो वस्तु स्थिति का सही आकलन हो पाएगा। पर राजनीतिक विश्लेषकों ने अर्थ का अनर्थ कर डाला। मोहन भागवत ने क्या कहा इसका ठीक प्रकार से परीक्षण करने की बजाय उनपर दोष मढ़ दिया कि वह आरक्षण विरोधी हैं।
वर्ष 2024 के आम चुनाव में भी भाजपा को लेने के देने पड़ गये। जब इस पार्टी के एक अपरिपक्व नेता ने संविधान में आवश्यक बदलाव करने की बात कह दी। वह क्या कहना चाहते थे यह व्याख्या न तो उनके मुँह से कभी सुनी गयी न ही भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने बात स्पष्ट की। स्वयं प्रधानमन्त्री को बारम्बार दुहाई देनी पड़ी कि संविधान में कोई बदलाव नहीं होने देंगे। बड़ी विचित्र बात है एक ओर कांग्रेस और उसके सहयोगी छद्म सेक्युलरवादी दल धर्म के आधार पर मुसलमानों को आरक्षण की परीधि में लाकर खड़े करने की बात कर रहे हैं तो दूसरी ओर वह संविधान से कोई छेड़छाड़ नहीं होने देने की बातें करते हैं। संविधान की वर्तमान व्यवस्थाओं के अनुसार सरकारी नौकरियों में 50 प्रतिशत से अधिक आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं की जा सकती।
विभिन्न दलों की सरकारों पर पड़ने वाले सामाजिक समूहों के दबाव आरक्षण की सीमा को बढ़ाने के लिए हो रहे हैं। वर्तमान व्यवस्था यह है कि अति पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान है। इसी तरह अनुसूचित जातियों को 10 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजातियों को 7.5 प्रतिशत और निर्धन सवर्णों को 10 प्रतिशत आरक्षण का विधान लागू है। यह 59 प्रतिशत बनता है। संविधान की बात करें तो सरकारों ने नौ प्रतिशत अतिरिक्त आरक्षण की व्यवस्था कर रखी है। जिसे लागू करने में कठिनाइयां आ रही हैं।
कुछ सरकारों ने जिनमें आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के नाम प्रमुख हैं। मुसलमानों को संन्तुष्ट करने के लिए आरक्षण का प्रावधान कर दिया है। इसे धर्म के आधार पर आरक्षण न कहते हुए पिछड़ी और अनुसूचित जातियों के लिए निर्दिष्ट अंश में पैठ करायी गयी है। सर्वोच्च न्यायालय को तय करना होगा कि मुसलमानों को दिये जा रहे आरक्षण के प्रावधान धर्म के आधार पर माने जाएंगे अथवा नहीं। राजनीतिक दल आरक्षण के जटिल विषय से बचते हैं। आरक्षण का मुद्दा इतना संवेदनशील हो चुका है कि अन्य कोई विषय इससे जटिल नहीं रह गया। मणिपुर में लम्बे समय तक चली हिंसा के पीछे आरक्षण का विषय छिपा है। बिहार और उत्तर प्रदेश आरक्षण के विषय पर आन्तरिक रूप से उबल रहे हैं। राजनीतिक दलों में इस सन्दर्भ में सम्मति बनाने की सूझ का कोई अर्थ नहीं है।
संविधान के अनुच्छेद 16(4) के अनुसार, राज्य सरकारें अपने नागरिकों के उन सभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण हेतु प्रावधान कर सकती हैं, जिनका राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। इसी प्रावधान का लाभ लेकर प्राय: राज्य सरकारें अपने यहाँ आरक्षण के विषय पर उलटफेर करती देखी जाती हैं।
केंद्र सरकार और राज्य सरकार द्वारा विभिन्न अनुपात में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों (मुख्यत: जन्मजात जाति के आधार पर) के लिए सीटें आरक्षित किया जाता है। यह जाति जन्म के आधार पर निर्धारित होती है। इसे बदला नहीं जा सकता। कोई व्यक्ति अपना धर्म परिवर्तन कर सकता है और उसकी आर्थिक स्थिति में उतार -चढ़ाव हो सकता है। धर्म बदलने पर जाति प्रभावी नहीं रह जाती। इससे बचने के लिए आरक्षण का लाभ लेने वाले हिन्दु समाज के लोग अपनी जाति बदलने या धर्म बदलने की बात आरक्षण लेते समय स्वीकार नहीं करते। ऐसा छद्म आरक्षण लेने वाले लोग प्राय: अनुसूचित जातियों के होते हैं, जो बहकावे अथवा लालच में अपना धर्म तो बेच देते हैं पर जाति को संजोये रहते हैं।
केंद्र सरकार द्वारा वित्त पोषित उच्च शिक्षा संस्थानों में उपलब्ध सीटों में से 22.5% अनुसूचित जाति (दलित) और अनुसूचित जनजाति (आदिवासी) के छात्रों के लिए आरक्षित हैं (अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 7.5%)। ओबीसी के लिए अतिरिक्त 27% आरक्षण को शामिल करके आरक्षण का यह प्रतिशत 49.5% तक बढ़ा दिया गया है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (AIIMS) में सीटें 14% अनुसूचित जातियों और 8% अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा, अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के विद्यार्थियों के लिए केवल 50% अंक ग्रहणीय है। संसद और सभी चुनावों में यह अनुपात लागू होता है।
कुछ समुदाय के लोगों के लिए चुनाव क्षेत्र निश्चित किये गये हैं। तमिलनाडु जैसे कुछ राज्यों में आरक्षण का प्रतिशत अनुसूचित जातियों के लिए 18% और अनुसूचित जनजातियों के लिए 1% है। यह राज्य जनसांख्यिकी पर आधारित है। आंध्र प्रदेश में, शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में पिछड़े वर्गों के लिए 25%, अनुसूचित जातियों के लिए 15%, अनुसूचित जनजातियों के लिए 6% और मुसलमानों के लिए 4% का आरक्षण रखा गया है।
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आरक्षण की जटिलता देश में राजनीतिक उथल-पुथल का कारक बन चुकी है। कुशल नेतृत्व क्षमता के धनी नरेन्द्र मोदी को 2024 के लोकसभा चुनाव में आरक्षण के विषय ने ही बड़ा आघात दिया है। अनेक राजनीतिक विश्लेषक यह समझने में भूल कर बैठे कि अयोध्या में श्रीराम मन्दिर बनने के बाद मोदी पर वोटों की बरसात क्यों नहीं हुई। वस्तुत: इस चुनाव में कांग्रेस और उसके साथी कुछ दलों ने आरक्षण और प्रत्येक मतदाता को कुछ न कुछ सीधा आर्थिक लाभ देने का खुला आश्वासन दे दिया। इससे गुड गवर्नेन्स का मोदी का दावा फीका पड़ गया। भाजपा के सांगठनिक ढाँचे की लचर व्यवस्था ने उत्तर प्रदेश में नरेन्द्र मोदी को गहरे संकट में फंसा दिया। 2014 के 10 साल बाद भाजपा संगठन की यह विफलता केन्द्रीय नेतृत्व के लिए चिन्ता का विषय अवश्य है तो भी आरक्षण के जटिल प्रश्न का समाधान करने की चुनौती भाजपा नेतृत्व के समक्ष है। जिसे मोदी के नेतृत्व वाली गठबन्धन सरकार को समय रहते सुलझाना होगा। विपक्ष इसी मुद्दे पर उसके साथ जोर आजमाइश करेगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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