स्थान अर्जुन आश्रम अहमदाबाद का है, समय रात के साढ़े सात बजे। मंष प्रतिक्षारत था। मैं देखना चाहता था कि हिन्दू शेर हाशिये पर पहुंचने के साथ ही साथ कहीं ढेर तो नहीं हो गया। कहीं अपनी शेर की आवाज भूल तो नहीं गया, कहीं सर्कश या फिर चिड़िया घर का शेर तो बन कर नहीं रह गया? मेरे साथ धीरेन्द्र बारूट भी थे और अहमदाबाद के एक प्रोफेसर व पत्रकार प्रभुदयाल गुप्ता भी थे। एक कार आकर गेट पर रुकती है। कोई हलचल नहीं, कोई सनसनी नहीं, कोई अफरा-तफरी नहीं, कोई भीड़ नहीं, कोई उत्सुकता नहीं, कोई स्वागत नहीं,कारों की काफिला गायब थी, पुलिसकर्मियों की भीड़ गायब थी।
कार से प्रवीण भाई तगोड़िया निकलते हैं, उनके पास एक-दो सुरक्षाकर्मी होते हैं। वे सीधे गौशाला चले जाते हैं और गौशाला में गायों को चारा खिलाकर अर्जुन आश्रम में बैठ जाते हैं। सिर्फ अर्जुन आश्रम के प्रबंधन से जुड़े हुए कर्मचारी और अधिकारी ही आसपास होते हैं। जहां पर मुझे उनसे दो घंटे का शास्त्रार्थ यानी उनसे गर्म और उतेजनापूर्ण प्रश्न-उत्तर होता है, प्रश्नों के उत्तर में तल्खी और उत्तेजना जरूरी होती है पर आत्मविश्वास की कमी भी झलकती है।
दृश्य पहले का… जहां भी प्रवीण तगोड़िया जाते थे, उनके साथ कारों की काफिला होती थी, लोकल पुलिस और गुप्तचर विभाग की चौकसी चाकचौबंद होती थी। चारो तरफ सनसनी फैल जाती थी, तनाव हो जाता था। पुलिस और प्रशासन के अधिकारी तनाव के मद्देनजर परेशान रहते थे और शांतिपूर्ण ढंग से दौरे को संपन्न कराने के प्रति अति सक्रिय रहते थे। सैकड़ों लोग स्वागत में होते थे। मीडिया की भीड़ होती थी, मीडिया की बचैनी होती थी कि तगोड़िया ऐसा कुछ जरूर बोल दें, जो उनके लिए लीड समाचार बन जाये और पूरे देश में सनसनी फैल जाये।
मीडिया के सामने जब भी तोगड़िया बोलते थे, तब देश भर में हंगामा जरूर शुरू हो जाता था। मीडिया में चर्चा और बहस शुरू हो जाती थी, पक्ष और विपक्ष में विरोध और समर्थन की प्रतिद्वंदिता शुरू हो जाती थी। प्रतिद्वंदिता तेजाबी और विखंडनकारी भी हो जाती थी। हिन्दू समर्थक उनसे मिलना और उनकी एक झलक पाना सौभाग्य की बात समझते थे।
मेरे जैसे लोग प्रवीण तगोड़िया के समर्थक क्यों है? जबकि तगोड़िया एक विशेष वर्ग के लिए हमेशा डर और भय का पात्र रहे हैं। एक विशेष वर्ग को निशाने पर रखने वाले रहे हैं। एक विशेष वर्ग के राष्ट्रविरोधी करतूत को बेपर्द करने वाले रहे हैं। राष्ट्र की सुरक्षा की कसौटी पर और राष्ट्र की संस्कृति को आयातित संस्कृति के जेहाद से बचाने की कसौटी पर ही तोगड़िया जैसी आवाज का समर्थक मेरे जैसे लोग रहे हैं। जहां तक उनके प्रत्यक्ष सपंर्क रहने का प्रश्न है, तो मैं कभी भी उनके सानिध्य में नहीं रहा।
दस-बीस मुलाकातें चलते-फिरते या फिर कार्यक्रमों में जरूर हुई थी पर कभी भी उनसे गंभीर चर्चा नहीं हुई थी। जबकि अशोक सिंघल और गिरिराज किशोर, ओमकार भावे आदि से मेरी हमेशा चर्चा होती थी। अशोक सिंघल, गिरिराज किशोर और ओमकार भावे मुझे हमेशा किसी मुख्य प्रश्न पर विचार करने और मार्ग ढूंढने के लिए आमंत्रित करते थे। फिर भी तोगड़िया के बोलने और दंबग छवि सभी को भाती थी। इसी कारण उन्हें हिन्दू शेर की पदवी हासिल थी और हिन्दुत्व के रक्षकों के बीच उनकी छवि नायक की थी।
लेकिन ध्यैर्य और काल तथा परिस्थितियों का आकलन न करने की भूल सभी को भुगतना पड़ता है, क्या राजा, क्या प्रजा। फिर तोगड़िया अपवाद कैसे हो सकते थे। उन्होंने ध्यैर्य खोया, अपने आप को अपराजेय योद्धा मान लिया। अहंकार तो टूटना ही था। सीधे-सीधे उन्होंने अपनी ही संस्कृति को चुनौती दे डाली, विखंडनकारी बातें बोलने लगे, केन्द्रीय सरकार को ही अपने पैरों तले कुचलने की कुचेष्टा दिखाने लगे। भ्रम यह पाल लिया कि केन्द्र की सरकार उनके रहमोकरम पर है। उनके आदेश और विचार की अवहेलना हुई तो फिर केन्द्रीय सरकार धड़ाम से गिर जायेगी।
इसी अहंकार में उन्होंने अपनी मातृ संगठन से बगावत कर दिया और मातृ संगठन यानी संघ को भी चुनौती दे डाली। संघ को ही समाप्त कर देने की धमकी भी पिलानी शुरू कर दी। समय का चक्र चला। नरेन्द्र मोदी ने तोगड़िया के राम जन्म भूमि मंदिर के निर्माण की पीड़ा एक झटके में दूर कर दी। लेकिन तब तक तोगड़िया संगठन से निकल चुके थे। ऐसे तोगड़िया भी अपनी कुछ अन्य कमजोरियों और गलतियों के लिए जानें जाते हैं, जिन पर चर्चा अभी तक नहीं हुई और न ही उन सबके लिए उन्हें कभी गुनहगार की श्रेणी में खड़ा किया गया। वे केशुभाई पटेल के प्रति चुनाव के समय हमदर्दी जताते हैं, अपनी ही समर्थक पार्टी को चुनाव के दौरान असहज स्थिति में खड़े करने के लिए सक्रिय हो जाते हैं, अपनी जाति के प्रति अति आग्रही हो जाते हैं।
शक्ति संगठन में निहित होती है। संगठन सर्वश्रेष्ठ होता है, निर्णायक होता है। संगठन को चुनौती देकर कोई अपने आप महाशक्ति नहीं बन सकता है। कभी बलराज मधोक भी ऐसी ही गुस्ताखी की थी, बलराज मधोक अब इस दुनिया में नहीं हैं। बलराज मधोक के ज्ञान और समर्पण के सामने तोगड़िया कुछ भी नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी के सर्वमान्य शक्ति और सत्ता के सामने गोविंदाचार्य ने सच का आइना तो दिखाया जरूर था, पर उन्हें इसकी कितनी कीमत चुकानी पड़ी, कोई गोविंदाचार्य से तो पूछे।
गोविंदाचार्य आजतक संघ और भाजपा से बाहर हैं, जिनकी उंगलियों धर कर, चल कर मंत्री से लेकर राजनीतिक पटल तक पहुंचे थे। वे आज गोविंदाचार्य से साक्षात करने से भी दूर रहते हैं। कल्याण सिंह भी कभी अटल बिहारी वाजपेयी से दुश्मनी मोल लेकर अलग हुए थे और अटल बिहारी वाजपेयी तथा भाजपा को समाप्त करने की कसमें खायी थीं। उस कल्याण सिंह को अंत में भाजपा में वापसी करनी ही पड़ी। तोगड़िया अपना संगठन जरूर बना लिये हैं और उनकी आवाज अभी भी शेर की दहाड़ वाली है। फिर भी उनकी शेर दहाड़ वाली आवाज की वैसी शक्ति नहीं बनती है, जैसी शक्ति उनके मूल संगठन के दौरान बनती थी।
आज की परिस्थितियां कितनी प्रतिकूल है? इसका आकलन तोगड़िया नहीं करते हैं। तोगड़िया बोलते हैं, तो फिर सुनने के लिए अपेक्षित लोग नहीं होते हैं, उफान और तहलका मचाने वाले उनके साथ नहीं होते हैं। मीडिया उन्हें नोटिस तक नहीं लेता है। जब उनकी आवाज मीडिया में भी दब कर रह जायेगी तो फिर वे धीरे-धीरे बलराज मधोक ही बन जायेंगे। यह बात तोगड़िया को आज भी समझ में नहीं आ रही है। मैंने संघे शक्ति कलयुगे का सिद्धांत भी समझाया, सनातन की आवश्यकता का पाठ भी पढ़ाया, हाशिये पर जाने का भय भी दिखाया। फिर भी अहंकार और बदले की भावना से मुक्त होना उन्हें स्वीकार नहीं था। बदले की भावना का प्रतिफल निकलने वाला कहां है। माना कि आपके साथ न्याय नहीं हुआ और अप्रिय घटनाओं का शिकार भी आप बनें। लेकिन उसके लिए आपका अध्यैर्य, अति महत्वाकांक्षा के साथ ही साथ शिखर पुरुष के साथ व्यक्तिगत दुश्मनी भी जिम्मेदार है।
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घर वापसी में हिचक कैसा? सुबह का भूला रात में घर वापस आ जाता है, तो फिर उसकी पुरानी स्थिति और पुराना सम्मान क्या समाप्त हो जाता है? कल्याण सिंह भी घर वापसी की थी। गृहमंत्री जैसे पद को सुशोभित करने वाले गोवर्द्धन झलकिया भी सफल और समानजनक घर वापसी का पराक्रम सुनिश्चित किया है। उमा भारती अपनी पार्टी बनायी, फिर घर वापसी की, बाबूलाल मंराडी भी भाजपा को समाप्त करने ही नहीं बल्कि भाजपा को दाह संस्कार करने की कसमें खाते थे, फिर भी ये भाजपा में वापसी करने के लिए बाध्य हुए। आपको तो उसी घर में वापस आना है जिस घर को आपने भी मजबूत किया है।
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राष्ट्रहित के सामने व्यक्तिगत इच्छा, व्यक्तिगत स्वार्थ, अहंकार और महत्वकांक्षाएं गौण होती हैं। राष्ट्रहित सभी हितों से बड़ा है। राष्ट्रहित की सर्वश्रेष्ठता हर स्थिति अक्षुण रहनी चाहिए। प्रवीण तोगड़िया अगर फिर से अपनी जगह पर आते हैं तो फिर राष्ट्रभक्ति को ही बल मिलेगी, राष्ट को खंडित करने और या फिर राष्ट्र को आयातित संस्कृति की घेरे में कैद कर रखने की मानसिकताएं रखने वालों को चुनौती मिलगी। राष्ट्र को सर्वश्रेष्ठ मानने वाले राष्ट्रभक्तों की पीड़ा यह है कि आप जैसी एक सनातनी आवाज जिसमें अभी भी अपार संभावनाएं थी और विधर्मियों को धूल चटाने के लिए शक्ति रखती थी, अब वह शक्ति बेमौत मरेगी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)