लखनऊ जाने में मुझे लगे 19 घंटे। ये 19 घंटे की चुनौती मेरे लिए बहुत ही खास थी, दुरूह थी और भविष्य के कई सपनों को कब्र बनाने वाली थी। वह कैसे? इस पर विचार करने से पूर्व 19 घंटे क्यों लगे, कैसे लगे? क्या यह अविश्वसनीय नहीं है? नहीं, यह अविश्वसनीय कदापि नहीं है। विश्वसनीय है। इसकी विश्वसनीयता भी चाकचौबंद है। पूरी कहानी इस प्रकार है। मुझे एक अर्जेंट निमंत्रण पर लखनऊ जाना था। मैंने पूरी कोशिश की लेकिन किसी ट्रेन में रिजर्वेशन नहीं मिला। मेरे सामने निमत्रण को अस्वीकार करने का भी विकल्प था। पर मेरे एक सहयोगी ने दावे के साथ कह दिया कि आप वोल्वों बस से चले जाइये, बहुत ही लगजरी होती है। थकावट नहीं होगी, समय पर लखनऊ पहुंच जाइयेगा।
मैंने अपने सहयोगी के अनुसार लखनऊ जाने के लिए दिल्ली के अंतरराज्यीय बस अड्डा पर नौ बजे रात को पहुंच गया। वहां पर सारी वोल्वो बसें पहले से ही भरी हुई थी। पता करने पर मालूम हुआ कि पहले से बसे ओवर फूल हैं, दिल्ली से लखनऊ जाने के लिए चार-चार हजार रुपये देने पर भी सीटें नहीं मिल रही हैं। जुगाड़ का विकल्प दिया जा रहा है। यात्रियों की अफरातफरी थी। मैंने फिर सरकारी बस का विकल्प तलाशा पर मिली नहीं। इस दौरान बस अड्डे के चारों तरफ कई चक्कर लगा दिये। हारकर मुझे आनन्द बिहार बस अड्डा जाना पड़ा और वहां से मुझे लखनऊ तो नहीं बल्कि कानपुर की बस मिल गयी। बस प्राइवेट थी, उसके स्टॉप मनमर्जी के थे। सुबह ग्यारह बजे कानपुर पहुंची। कानपुर से फिर बस पकड़ी तो चार बजे लखनऊ पहुंचा। नौ बजे रात्रि को दिल्ली से चला और दूसरे दिन चार बजे लखनऊ पहुंचा। यात्रा का पूर्ण विवरण यह है कि जान बची और लाखों पायें।
दिल्ली और लखनऊ की दूरी छह सौ किलोमीटर है। इस दूरी को तय करने में हमें लग गये 19 घंटे। छह सौ किलोमीटर की दूरी निजी वाहन से अमेरिका में तीन घंटे और यूरोप में चार घंटे का समय लगता है। ऐसा इसलिए कि उनकी सड़कों की क्वालिटी अव्वल दर्जे की होती है, ठोकरों और अवरोधकों से उनकी सड़के मुक्त होती हैं। सड़कों पर उनकी आबादी भी बहुत ही कम होती है। आबादी होती है भी तो वह आबादी सड़कों को अतिक्रमण कर बैठी नहीं होती है। सड़के अतिक्रमण मुक्त होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके वाहन डग्गामार नहीं होते हैं। सभी कलपूर्जे ढीले और बाजा बजने जैसे नहीं होते हैं। सरकारी मापदंडों को पूरा करने वाले होते हैं। हमारे यहां तो वाहनों का फिटनेस तो आश्चर्यजनक बात होती है, फिटनेस तो अपवाद होती है। अतिक्रमित सड़कों पर जब ऐसी बसे चलती हैं तो फिर स्पीड जानेलवा बन जाती है, जिस कारण सड़क दुर्घटनाएं भी आम बात बन जाती है। सड़क दुर्घटनाओं के मामले में भारत इसी कारण अव्वल है।
आधुनिकता के इस दौर में ऐसी स्थितियां चिंताजन है। आधुनिकता के इस दौर में सभी कुछ स्मार्ट होने की अनिवार्यता है। यानी कि सड़के भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिए। बसे भी अनिवार्य तौर स्मार्ट होनी चाहिए। टेक्नोलॉजी भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिए। यहां तक की आदमी के जीवन की क्रियाएं भी अनिवार्य तौर पर स्मार्ट होनी चाहिए है। लेकिन इस स्मार्ट की कसौटी पर हम कहां हैं? हमारी स्थिति कहां हैं? आबादी के अनुपात में उपयोगी और रक्षक संसाधनों की कमी क्यों हैं? आवागमन सुगम क्यों नहीं है? यात्रा की जरूरतों को रेलवे, हवाई जहाज, बसे क्यों नहीं पूरी कर कर पा रहे हैं? इन सभी दुश्वारियों का विश्लेषण करने पर हम पिछड़े हुए और एक थके-हारे हुए सभ्यता के लोग ही नजर आयेंगे। अमेरिका और यूरोप की सभ्यता और सस्कृति का हम चाहे जितना भी आलोचना कर लें, जितनी भी खिल्ली उड़ा ले फिर भी वे हमसे काफी उपर हैं। हम उनकी तुलना में कहीं भी नहीं ठहरते हैं, किसी भी क्षेत्र में हम उनसे आगे नहीं है। उन्होंने टेक्नोलॉजी को सुलभ बनाया, अपनी नैतिकता और दयाशीलता को समृद्ध किया। हमने क्या किया।
हमने जातियां बढ़ायी, गुंडागर्दी बढ़ायी, अनैतिकता बढ़ायी, अराजकता पसारी, हर बुरे काम को राजनीतिक चश्में से सही करार देने का काम किया। आबादी इतनी बढ़ायी कि दुनिया में सबसे अधिक आबादी वाला देश भारत बन गया। किसी के अधिकार को कुचल कर अपना हित समृद्ध करने की नीति बनायी गयी। अतिक्रमण कर लो,चाहे इससे सामूहिकता ही क्यों न दफन हो जाये, सामूहिकता ही क्यों न कराहने लगे। इसी सोच से उत्तर प्रदेश जैसा राज्य भी विकास की दौड़ में पिछड़ गया। भारत का मैनचेस्टर कहे जाने वाला कानपुर इसी मानसिकता की कब्र में दफन हो गया, सोने की चिड़ियां कहे जाने वाले भारत में गरीबी, भुखमरी आदि दुश्वारियां मनुष्यता को चिढ़ाने लगी और मनुष्यता पर प्रश्नचिन्ह खड़ी करने लगी।
भारत नॅालेज हब है। नॉलेज की कसौटी पर हम चैम्पियन है। हमारे नॉलेज का डंका पूरी दुनिया में बज रहा है। आदि-आदि शोर है। गर्व के साथ ऐसी अनुभूति प्रवाह में है। पर हम क्या सच में नॉलेज हब हैं? सूचना क्रांति में हमने अपनी उपियोगिता जरूर साबित की है। सूचना क्रांति के अवसर को हमनें जरूर भूनाया है। सूचना क्रांति ने दुनिया के जीवन को बदल दिया है और दुनिया में समृद्धि के नये अवसर उत्पन्न किये हैं। हमनें अवसर को पकड़ा और दुनिया में हमारे सूचना क्रांति के वीर छा गये। आज हर बड़ी कंपनी में शीर्ष पर भारतीय टेक्नोक्रेट हैं। दुनिया के हर बड़ी कंपनियों के सीओ भारतीय हैं। वैज्ञानिक संस्थानों में काम करने वाले भी भारतीय हैं। पर हमारी शिक्षण संस्थाओं की क्या स्थिति है? यह किसी से छिपी हुई बात नहीं है? हमारे यहां पढ़ाई और शोध का स्तर बहुत ही खतरनाक और निम्न स्तर का है। जबकि अमेरिका और यूरोप में पढ़ाई और शोध का स्तर बहुत ही उपर है। दुनिया कें टॉप 10 विश्वविद्यालयों में भारत के एक भी विश्वविद्यालय नहीं है। अगर हम नॉलेज हब हैं तो फिर हमारे विश्वविद्यालयो का स्तर भी अमेरिका और यूरोप के टॉप विश्वविद्यालयों के समकक्ष होना चाहिए। सिर्फ योग के भरोसे हम विश्व शक्ति नहीं बन सकते हैं।
हमारी अर्थव्यवस्था कृषि, सनातन और प्राकृतिक संसाधनों के दोहन पर निर्भर है। ये तीनों क्षेत्रों में प्रगति और प्रचुरता के कारण हम अर्थव्यवस्था के विकास और समृद्धि की कसौटी पर चीन को टक्कर दे रहे हैं और दुनिया को आश्चर्यचकित कर रहे हैं। पर हमें सोचना चाहिए कि ये तीनों कसौटियों की आयु भी कालजयी नहीं है। कृषि में सुधार की उम्मीद नहीं है, लागत अधिक होने से कृषि क्षेत्र में परेशानियां बढ़ रही हैं, किसान की स्थिति खुद जर्जर है। सनातन के भगवान-दर्शन, मंदिर भ्रमण और सनातन पर्व त्योहारों से रोजगार और समृद्धि के अवसर विकसित होते हैं। पर सनातन संस्कृति पर कुठराघात और सेक्युलर राजनीति का बुलडोजर चल रहा है। प्राकृतिक संसाधनों की भी एक सीमा है, प्राकृतिक संसाधनों का अतिरिक्त दोहन भी देश को खंडहर में तब्दील कर सकता है। अमेरिका खुद अपने प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण करता है, अतिरिक्त दोहन करने से बचता है।
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लोकतंत्र में कोई भी शासक बहुत कुछ कर नहीं सकता है। एक सीमा से आगे बढ़कर कोई सुधार नहीं कर सकता है। सड़कों पर अतिक्रमण हटाने के लिए कोई शासक अगर दुकानों को तोड़ता है। घरों पर बुलडोजर चलाता है, सरकारी जमीनों से अवैध कब्जा हटाना चाहता है। भ्रष्टाचार मिटाना चाहता है, सरकारी कर्मचारियों को ईमानदारी और कर्मठशीलता का पाठ पढ़ाना चाहता है तो फिर वह समूहबाजी का शिकार हो जायेगा। गिरोहबाजी का शिकार हो जायेगा। यूनियनबाजी का शिकार हो जायेगा। अलोकप्रियता का शिकार हो जायेगा। सभी अवैध कब्जेधारी, अनैतिक, भ्रष्ट और यूनियनबाज लोग उसकी सत्ता का संहार कर देंगे। आबादी नियंत्रण पर मजहब संहार की कूटनीति और राजनीति खड़ी हो जायेगी । ईमानदारी होनी चाहिए, नैतिकता होनी चाहिए पर इसका पालन हम नहीं करेंगे। ऐसी मानसिकता हमारे देश से गायब नहीं होने वाली है। फिर कोई भी शासक भारत को विश्वशक्ति कदापि नहीं बना सकता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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