Arvind Sharma
अरविंद शर्मा ‘अजनबी’

छोटे से गाँव की गीली मिट्टी,
चाँदी सी मुस्कान लिए,
बोली में था मोर नाचता,
आँखों में अरमान लिए।

नाम था उसका पूनम लाल,
माँ की गोदी की रानी थी,
पिता की आँखों की रौशनी,
आँगन की वह कहानी थी।

गुल्लक में हर पल सपने थे,
चूड़ियाँ रंग बिरंगी सी,
चुनरी बाँध के गुड़िया शादी,
रचती माँग सिंदूरी सी।

गाँव के मेले जब आते,
वह तितली सी चहक उठती,
दादी-नानी के मन में,
आशीषों सी बसती थी।

कोई कहे, बहुत सीधी है,
कोई कहे, राज करेगी,
माँ बोले, मेरे जीवन की,
यह पूनम ही लाज सहेगी।

कभी ताल के गीतों में वह,
मधुर रागिनी गाती थी,
कभी खेत में दौड़ लगाकर,
गोधूलि सी छा जाती थी।

शब्द नहीं थे भावों में पर,
मन में नई उड़ानें थीं,
हर तारा उसका साथी था,
सपनों की पहचानें थीं।

फटी पुरानी डायरी में,
राजा रानी की कथा लिखी,
छोटी सी उस हथेली ने,
तक़दीर स्वयं रचाई थी।

जब आई उम्र जवानी की,
तब पायल धीरे बोल पड़ी,
दर्पण, चूड़ी, कंगन बोले,
अब तू दुल्हन सी दिख रही!

तब पूनम ने मन के भीतर,
सपनों के दीप जलाए थे,
भावों की कोमल कलियों से,
ससुराल के चित्र बनाए थे।

सोचा मेरी भी डोली होगी,
फूलों सी हँसती जाएगी,
जैसे माँ कहती थी बिटिया,
ब्याह कर रानी बन जाएगी।

सज धज कर जब पिहर की,
पिया संग ड्योढ़ी पार करूँगी,
नैनों से नैन मिलाकर मैं,
हर साँझ उसे दीदार करूँगी।

पहली चिट्ठी आएगी जब,
पिया लिखेगा नेह भरा,
मैं चूड़ी खनका कह दूँगी,
चली साजन के साथ जिया।

फिर मायके जब आऊँगी मैं,
कच्चे रस्ते पार करूँगी,
माँ की रसोई, बाबू की बगिया,
फिर अपनी मुस्कान भरूँगी।

उसी कल्पना में बुन डाले थे,
जीवन के उत्सव सारे,
साजन, ससुराल, स्नेह, समर्पण,
गीत, श्रृंगार, उजियारे।

पर वहाँ कहाँ फूल बिछे थे,
वह घर तो काँटों से भरा मिला,
सपनों की जो सेज बुनी थी,
वह छप्पर सा टपका मिला।

सास, ननद के रोज़ के ताने,
पति की आँखें बदल गईं,
हरसिंगार सी वह बिटिया,
अंधियारे में बिखर गई।

तेरा बाप है कौन अमीर,
जो सोने के कंगन लाया?
दहेज नहीं तो बहू भी क्या?
किस हक से तुझे अपनाया?”

हर दिन वह जलती तानों में,
हर रात आँसू पीती थी,
जो पूनम हँसी में पली,
अब चुपचाप सिसकती थी।

मायके के पेड़ पौधे तक,
यादों में आ-आकर रोते,
आ बेटा, झूला झूल यहाँ,
माँ की बगिया भी कहते।

पर वह ना लौट सकी कभी,
आँचल में अग्नि समेटे,
हर चुप्पी उसकी चीख बनी,
हर साँझ रही शूल सहेजे।

सपनों की डायरी अब भी थी,
पर अक्षर काँप रहे थे,
गुड़िया, गगरी, पोखर, खेत,
सब चित्र धुँधले पड़ते थे।

पिता को पत्र न भेज सकी,
कैसे लिखे, क्या हाल कहे?
कैसे कहे कि यह जीवन,
अब मृत्यु सरीखा लग रहे?

एक रात वह बुझा दी गई,
जैसे कोई दीपक बुझता है,
सास बोली खुद जल मरी है,
पति छत पर सोता है।

कहते हैं यह दुर्घटना थी,
पर चूल्हा कुछ और बताता था,
उसकी चीखें, उसकी साड़ी,
सब कुछ सच दोहराता था।

बस एक ख़ता थी पूनम की,
वह गरीब बाप की बेटी थी,
जो लाड़ प्यार में पली बढ़ी,
वह दुनिया को ना भाती थी।

ना उसने माँगा गहनों को,
ना आँचल में लालच था,
पर उसका होना उसके लिए,
जैसे कोई अपराध बना।

अब गाँव की गलियों में जब
कोई चाँद सी बेटी हँसती है,
माँ कहती पूनम मत बनना,
वह चुप्पी में रोज ही रहती है।

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