कीमत बड़ी चुकाई जरा से उधार की,
नथनी के बदले नथ पे नजर थी सुनार की।
अब क्या मिसाल दीजिए किस्मत की मार की,
घर में कुँआरी रह गई बेटी कहार की।
सीने को छोड़ो पीठ पे बांधा करो कवच,
इस दौर की लड़ाई है पीछे से वार की।
मुर्दे पे ख़ाक डाल के हाथों को झाड़ के,
हंस-हंस के बातें होने लगी कारोबार की।
ये ज़िंदगी सुनार है और मौत है लोहार,
लाज़िम है सौ सुनार कि और इक लोहार की।
थमते ही रक़्स चाक का थमती है ज़िन्दगी,
मिट्टी में मिट्टी होती है मिट्टी कुम्हार की।
पत्थर दुबारा आदमी होते ही रो पड़ा,
हद हो गई थी सब्र की और इंतज़ार की।
अय रहनुमा ख़ुदा न बनो आदमी रहो
इतनी सी इल्तिजा है ‘शुभ’ ख़ाकसार की।
– विजय तिवारी
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