Pauranik Katha: रामायण का यह एक ऐसा पात्र है जिसकी चर्चा बहुत कम होती है। त्रिजटा को सीताजी ने बड़े प्रेम से मां कहा था। यह सौभाग्य और किसी को कभी नहीं मिला। सीताजी ने त्रिजटा से न केवल अपनी व्यथा सुनाई, बल्कि चिता जलाने के लिए मदद भी मांगी। त्रिजटा ने समझाया और मनाया। ठीक उसी तरह जैसे एक मां अपनी बेटी को डांटकर प्रेम से समझाती है। ऐसा अवसर भी किसी और को नहीं मिला। श्रीराम को अवतार और सीताजी को उनकी शक्ति बताया गया है। परमशक्ति भी किसी से सहायता मांग बैठे, यह प्रसंग आपको कहीं नहीं मिलेगा।
ऐसे वर्णन मिलते हैं कि त्रिजटा एक राक्षसी थी। रावण की सेविका थी, लेकिन बाद में उसका एक आदर्श स्वरूप देखने को मिलता है। त्रिजटा के पूर्वज शुरू से ही लंका राज्य के सेवक रहे थे। त्रिजटा ने भी कुलपरंपरा के अनुसार रावण की सेवा की। वृद्धावस्था आने पर उसे एक आरामदायक और सम्मानित पद दिया गया। वह अशोकवाटिका में तैनात स्त्री पहरेदारों की प्रमुख बनी। यह वाटिका राजकुल की स्त्रियों के विहार और मनोरंजन के लिए बनी थी। त्रिजटा का ये नाम क्यों पड़ा? दरअसल, उसमें तीन विशेषताएं थीं। वह ईश्वर में एवं अवतारों में विश्वास करती थी। अपने कार्यों में अति कुशल थी। उसमें अच्छे बुरे का विवेक था। अपने इन गुणों के चलते वह राक्षसों की भीड़ में बिल्कुल अलग दिखती थी। लंका के लोग व्यंग्य से उसे त्रिजटा कहते थे। राजकुमार विभीषण का प्रगाढ़ स्नेह उनपर था अतः परिहास में उन्हें विभीषण की पुत्री भी कहा जाता था
अब एक दिलचस्प बात है कि लंका में ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं थी जो रावण से नाराज थे। राक्षस अविन्ध्य, ऋषि विश्रवा, मंत्री माल्यवंत, महर्षि पुलस्त्य और विभीषण आदि लोग रावण की नीतियों के खिलाफ थे। परंतु ये लोग रावण से असहमत क्यों थे? क्योंकि रावण शक्ति के मद में पूरे विश्व से शत्रुता करता जा रहा था। उसने अयोध्या के सम्राट अनरण्य की हत्या की। देवराज इंद्र को बांधकर सरेआम अपमानित किया। महादेव के निवास स्थान कैलाश को उठाने की कोशिश की। सौतेले भाई कुबेर की पुत्रवधू पर अत्याचार किया। अपनी सगी बहन मीनाक्षी के पति कालकेय सम्राट विधुतजीव्ह को मारा।
रावण को ये सनक थी कि वह संसार की हर अद्वितीय वस्तु को लंका लाएगा। अपने पति की मृत्यु से विचलित उसकी बहन मीनाक्षी ने इसी को आधार बनाकर उसे सबक सिखाने की सोची। यहां एक बात जानते हैं। अपने बहनोई को मारने के बाद रावण ने बहन मीनाक्षी को दंडकारण्य का राज्य दे दिया था। वह खर और दूषण की सहायता से राज्य करती थी। हाथ पैरों के नाखून बढ़ाते जाने की सनक के चलते उसे आदिवासी लोग शुपनखा भी कहते थे। अपने वनवास के दौरान जब राम दंडकारण्य पहुँचे तो शुपनखा ने उनसे शत्रुता कर ली। युद्ध हुआ खर और दूषण मारे गए। अब मौका मिल चुका था। वह लंका पहुंची। भरे राज्यदरबार में रोने- धोने और रावण को फटकारने के बाद कहा- सीता सभी गुणों में एक अनन्य स्त्री है। ऐसा लगता है जैसे उसे खुद विधाता ने गढ़ा है। वह करोड़ों नारीरत्नों से भी बढ़कर है। उसे रावण के पास लंका में ही होना चाहिए।
रावण की मति मारी गयी। सीताजी का हरण हुआ। उन्हें अशोक वाटिका में रखा गया जो अंतःपुर का ही एक हिस्सा थी। अब यहां से त्रिजटा की भूमिका शुरू होती है। त्रिजटा ने तीन स्तरों पर अपने कार्य किये। सबसे पहले तो उसने श्रीराम की पत्नी और अयोध्या की महारानी जनकनंदिनी सीता को लंका की परिस्थिति समझाई। उन्हें एक विधान के बारे में बताया। दरअसल पुत्रवधू पर अत्याचार के बाद महर्षि पुलस्त्य, विश्रवा और नलकुबेर ने एक श्रापरूपी विधान बनाया था। इसके अनुसार रावण किसी स्त्री की अनुमति लिए बिना उसे नहीं अपना सकता था। त्रिजटा ने सीताजी से कहा कि वह किसी भी तरह के दबाव या डर में न आएं क्योंकि यह विधान उनकी रक्षा करेगा। उसने अन्य प्रहरियों को भी सीता को परेशान करने से रोका।
दूसरे स्तर पर त्रिजटा ने विभीषण, अविन्ध्य आदि प्रभावशाली लोगों को इसकी सूचना दी। अविन्ध्य उन्हें श्रीराम के बारे में समाचार भेजते थे। उन्होंने ही त्रिजटा को श्रीराम और सुग्रीव की मित्रता के बारे में बताया। इन समाचारों से वह सीता का मनोबल बनाये रखती थीं। तीसरे स्तर पर उन्होंने राजकुल की स्त्रियों को विश्वास में लिया। उन्हें बताया कि सीताजी अयोध्या नरेश राम की पत्नी और मिथिला के सम्राट जनक की पुत्री हैं। ऐसी स्त्री का हरण विनाशकारी है। लंका की महारानी मंदोदरी ने सीता को छोड़ देने की सलाह अपने पति रावण को दी। मेघनाद की पत्नी सुलोचना ने खुलकर सीताजी का समर्थन किया। रावण की चतुराई धरी रह गयी। उसने बहुत गोपनीय ढंग से सीताहरण किया था। लेकिन सारी लंका जान गई। जल्दी ही हनुमान भी आ पहुंचे। अतुलित बल के धाम। श्रीरामचन्द्रजी के दूत। विभीषण ने उन्हें अशोकवाटिका में जाने की युक्ति बताई।
उस शाम को रावण भी वहां आया। धमकी दी कि यदि एक महीने तक सीता ने निर्णय नहीं किया तो वह उनका वध कर देगा। उसके जाने के बाद त्रिजटा ने सीताजी को अपना सपना सुनाया। श्रीरामचरितमानस के अनुसार त्रिजटा ने कहा- सपने वानर लंका जारी, जातुधान सेना सब मारी। मतलब-वानर ने लंका में आग लगाई है और राक्षस सेना को मारा है। अब एक सवाल लेते हैं। त्रिजटा ने ऐसा क्यों कहा? देखिए, इसे समझना बहुत ही सरल है। वह जानती थी कि राम के दूत जरूर आएंगे। उनके द्वारा कोई ऐसा कार्य जरूर होना चाहिए, जिससे शासक वर्ग भयभीत हो उठे। रावण का मनोबल टूटना बहुत जरूरी था। यह कार्य आग ने किया।
रावण की प्रतिष्ठा उसकी अजेयता में थी। उसकी राजधानी में शत्रु द्वारा आग लगाने से उसकी यह प्रतिष्ठा धूल में मिल गयी। उसके मित्र राजाओं ने सोचा जो अपनी राजधानी नहीं बचा सका, वो हमारी रक्षा कैसे करेगा। इसका नतीजा क्या निकला? श्रीराम की सेना पूरा दक्षिण भारत पार करती हुई समुद्र तट पर आ पहुँची। किसी राज्य ने उन्हें नहीं रोका। भयंकर युद्ध हुआ। रावण ने जब पराजय होती देखी, तो मनोवैज्ञानिक अस्त्र चलाया। एक नकली मस्तक बनवाया जिसका चेहरा हूबहू श्रीराम के जैसा था। यह सिर अशोक वाटिका में सीता को भेजा गया। वह चाहता था कि निराश होकर सीताजी अपने प्राण दे दें। त्रिजटा ने रावण की माया भांप ली और सीताजी की रक्षा की।
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युद्ध का परिणाम धर्म की विजय में हुआ। बल, छल और आडंबर पर आधारित राक्षसी संस्कृति नष्ट हुई। विभीषण सम्राट बने। सत्ता परिवर्तन के उस दौर में त्रिजटा का कोई जिक्र नहीं आता। लंका के तमाम निवासियों ने नगर के बाहर जाकर रामजी के दर्शन किए। त्रिजटा नहीं गयी। शायद वो इस बात से दुखित थी कि सीता जैसी सत्यस्वरूपा स्त्री को अग्नि परीक्षा देने हेतु कहा गया था। इसके बाद हमकुछ अस्पष्ट संकेत मिलते हैं। इनसे पता चलता है कि त्रिजटा ने अपने आपको धर्म और अध्यात्म में लीन कर लिया। जो भी हो, माता सीता को त्रिजटा याद रहीं। एक कथा बताती है कि श्रीराम और माता सीता उससे मिलने हेतु लंका भी आये। त्रिजटा ने काशी में रहकर महादेव की भक्ति करने की इच्छा जताई। ऐसा ही हुआ।
कहते है काशी में आज भी त्रिजटा का एक मंदिर है। यह मंदिर काशी विश्वनाथ के पास है। साल में एक दिन यहां त्रिजटा की विशेष पूजा होती है। सुहागिन स्त्रियों द्वारा यहां सब्जियां चढ़ाकर अपने सुहाग की मंगलकामना की जाती है। त्रिजटा की कथा बताती है कि परमशक्ति के साथ जुड़ाव और अच्छे लोगों की मदद करना कभी व्यर्थ नहीं जाता। माता सीता की मदद करके न केवल उसने अपने पूर्व जीवन का प्रायश्चित किया बल्कि श्रीराम की विजय में भी सहायक बनी। इस एक घटना ने लंकावासी राक्षसी त्रिजटा को काशीवासी साध्वी त्रिजटा में बदल दिया।
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