Pauranik Katha: वैदिककाल की बात है। सप्त ऋषियों में से एक ऋषि हुए है महर्षि वशिष्ठ। महर्षि वशिष्ठ राजा दशरथ के कुलगुरु और श्रीराम के आचार्य थे। उन दिनों महर्षि वशिष्ठ का आश्रम नदी के तट के सुरम्य वातावरण में था। महर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुन्धती के साथ गृहस्थ जीवन की जिम्मेदारियों को निभाने के साथ-साथ योगाभ्यास और तपस्या में भी लीन रहते थे।
उन्हीं दिनों राजा विश्वामित्र जो अब राजपाट अपने पुत्र के हवाले कर घोर तपस्या में संलग्न थे। महर्षि विश्वामित्र का आश्रम भी थोड़ी ही दूर नदी के दूसरी ओर स्थित था। असल में बात यह थी कि महर्षि वशिष्ठ द्वारा नन्दनी गाय नहीं दिए जाने के कारण राजा विश्वामित्र उसे छिनकर ले जाना चाहते थे। तब नन्दनी गाय ने महर्षि वशिष्ठ की अनुमति से विश्वामित्र की सम्पूर्ण सेना को धराशायी कर दिया था। अतः महर्षि वशिष्ठ से अपनी हार का बदला लेने के लिए विश्वामित्र घोर तपस्या कर रहे थे।
महर्षि वशिष्ठ एकाकी जीवन की कठिनाइयों से भलीभांति परिचित थे। अतः उन्होंने महर्षि विश्वामित्र के भोजन की व्यवस्था अपने ही आश्रम में कर रखी थी। विश्वामित्र भी भली प्रकार जानते थे कि महर्षि वशिष्ठ की पत्नी बहुत ही सुसंस्कारी है। अतः उनके हाथों से बना भोजन उनकी साधना में कोई अड़चन पैदा नहीं करेगा। हमेशा की तरह एक दिन अरुन्धती महर्षि विश्वामित्र का भोजन लेकर निकलीं। वर्षाकाल का समय था। पानी इतना गिरा कि नदी से निकलना मुश्किल हो गया। मार्ग की कठिनाई से व्यथित होकर उन्होंने यह समस्या महर्षि वशिष्ठ को बताई।
महर्षि वशिष्ठ बोले- हे देवी, तुम संकल्प पूर्वक नदी से यह निवेदन करो कि यदि तुम एक निराहारी ऋषि की सेवा में भोजन ले जा रही हो तो वह तुम्हें मार्ग प्रदान करें, इतना सुनकर अरुन्धती चल पड़ीं। महर्षि के कहे अनुसार उन्होंने नदी से विनती की और नदी ने उन्हें रास्ता प्रदान किया। अरुन्धती ने ख़ुशी-ख़ुशी विश्वामित्र तक भोजन पहुंचा दिया। भोजन देने के बाद जब वह वापस लौटने लगीं तब भी नदी का उफ़ान जोरों पर था। व्यथित होकर वह वापस आकर आश्रम में बैठ गईं। तब महर्षि ने वापस लौटने का कारण पूछा तो वह बोलीं- ऋषिवर, नदी का उफान रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। लगता है आज यही रुकना पड़ेगा।
इसपर महर्षि विश्वामित्र बोले- हे देवी, इसमें रुकने की कोई आवश्यकता नहीं। आप जाइये और संकल्प पूर्वक नदी से विनती कीजिये कि यदि मैं आजीवन ब्रह्मचारी महर्षि की सेवा में जा रही हूँ तो मुझे रास्ता प्रदान करें। महर्षि के कहे अनुसार अरुन्धती ने विनती की और नदी ने रास्ता दे दिया। वह पूर्ववत अपने स्वामी के पास लौट गईं। जब घर आकर उन्होंने प्रार्थना के साथ किये गये संकल्पों पर विचार किया तो उनका माथा ठनका। उन्हें आश्चर्य हुआ कि यदि मैं महर्षि विश्वामित्र को प्रतिदिन भोजन देकर आती हूँ तो फिर वह निराहारी कैसे हुए? और जबकि मैं अपने पति के कई पुत्रों की माँ बन चुकी हूँ तो फिर ये ब्रह्मचारी कैसे? वो भी आजीवन? अरुन्धती बहुत सोचने पर भी इस रहस्य को समझ नहीं पाईं। अतः वह दोनों प्रश्न लेकर अपने पति महर्षि वशिष्ठ के पास गईं और पूछने लगीं।
इसे भी पढ़ें: मर्यादा और संयम की प्रतीक माँ सीता
तब महर्षि वशिष्ठ बोले- हे देवी, तुमने बड़ी ही सुन्दर जिज्ञासा व्यक्त की है। जिस तरह निष्काम भाव से किया गया कर्म मनुष्य को कर्मफल में नहीं बांधता। जिस तरह जल में खिलकर भी कमल सदा उससे दूर रहता है। उसी तरह जो तपस्वी केवल जीवन रक्षा के लिए भोजन ग्रहण करता है वह सदा ही निराहारी है और जो गृहस्थ लोक कल्याण के उद्देश्य से केवल पुत्र प्राप्ति के लिए निष्काम भाव से अपनी पत्नी से सम्बन्ध स्थापित करता है, वह आजीवन ब्रह्मचारी ही है।अब अरुन्धती की शंका का समाधान हो चूका था। इस दृष्टान्त से हमें यह सीख मिलती है कि असल में कोई कर्म बुरा नहीं है बल्कि उस कर्म के प्रति आसक्ति बुरी है। जहाँ आसक्ति है वहाँ दुःख होगा और जहाँ दुःख है वहाँ बंधन निश्चित है।
इसे भी पढ़ें: क्षीरसागर का कछुवा कैसे बना गंगा घाट का केवट