Pauranik Katha: अभिमन्यु वध से व्यथित और क्रोधित अर्जुन ने प्रतिज्ञा की कि ‘मैं कल सूर्यास्त तक अभिमन्यु की मृत्यु में कारण बने जयद्रथ का वध कर डालूँगा, नहीं तो अग्नि-समाधि ले लूँगा।’ जब यह बात कौरव-पक्ष में पहुँची तो कौरवों के प्रधान सेनापति द्रोणाचार्य ने जयद्रथ और दुर्योधन को यह कहते हुए आश्वस्त किया कि ‘मैं कल कमल व्यूह बनाऊँगा और जयद्रथ उसमें सुरक्षित रहेगा, अर्जुन वहाँ तक पहुँच ही नहीं पायेगा।’ इधर कृष्ण ने सुभद्रा, द्रौपदी और उत्तराको आश्वासन दिया कि पार्थ कल अवश्य ही जयद्रथ का वध करेंगे।
उन्होंने अर्जुन को अगले दिनके युद्ध के लिये शुभकामना देते हुए उनसे शयन करने को कहा और स्वयं अपने शिविर में चले गये। वहाँ उन्होंने अपने सारथी दारुक को बुलाया और कहा कि ‘कल युद्ध बड़ा ही भयंकर होगा और मुझे किसी भी प्रकार से अर्जुन को सुरक्षित रखते हुए जयद्रथ का वध कराना है। मेरे रथ को तुम मेरे शस्त्रास्त्रों (सुदर्शन चक्र, कौमोदकी गदा, नन्दन खड्ग, शार्ङ्ग धनुष एवं अक्षय तूणीरों) से सुसज्जित रखना और मेरे पांचजन्य का उद्घोष करने पर उसे तुरंत मेरे पास ले आना।
भगवान् कृष्ण युद्ध की परिस्थितियों को समझ रहें थे, अतः उन्होंने अपनी योगमाया द्वारा अर्जुन की स्वप्नावस्था में प्रवेश किया और उन्हें लेकर भगवान शंकर के दिव्य कैलाश लोक को गये और वहाँ उनके दर्शन कराये। भगवान शंकर नर-नारायणरूप अर्जुन और श्रीकृष्ण को देखकर बहुत प्रसन्न हुए और आने का कारण पूछा। तब अर्जुन और श्रीकृष्ण ने उनकी स्तुति की और दिव्य पाशुपतास्त्र का ज्ञान पुनः देने का निवेदन किया।
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तब भगवान शंकर ने कहा-‘हे श्रेष्ठ वीरो! यहाँ निकट ही एक अमृतमय दिव्य सरोवर है, उसी में मैंने अपना दिव्य धनुष और बाण रख दिया है, उन्हें लेते आओ। शिवजी की आज्ञा से जब कृष्ण और अर्जुन उस की सरोवरपर गये तो वहाँ उन्हें दो महान नागों के दर्शन हुए। तब श्रीकृष्ण और अर्जुन ने पुनः भगवान् शंकर का में शतरुद्रिय से स्तवन किया, जिसके प्रभाव से वे दोनों महानाग धनुष और बाण के रूप में परिवर्तित हो गये। तब उन में दोनों ने लाकर उन्हें भगवान शंकर को समर्पित कर दिया। तदनन्तर भगवान शंकर की पसलियों से एक ब्रह्मचारी प्रकट हुआ। उसने वीरासन में बैठकर उस धनुष पर विधिवत बाण का संधान किया। अर्जुन ने उस क्रिया को ध्यानपूर्वक देखकर हृदयस्थ कर लिया। उस समय भगवान शंकर ने जो मन्त्र पढ़ा, उसको भी उन्होंने याद कर लिया। तब प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने अपना पाशुपत नामक घोर अस्त्र अर्जुन को दे दिया। उसे पाकर अर्जुन के हर्ष की सीमा न रही और उन्होंने अपने आपको कृतकृत्य मानकर भगवान शंकर को प्रणाम किया और उनकी आज्ञा ले वे अपने शिविर में वापस लौट गये। इस प्रकार जयद्रथ वध के पूर्व स्वप्न में अर्जुन को भगवान शंकर के दर्शन हुए।
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