आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
नरेन्द्र मोदी क्या जीत का गठबंधन बना रहे है या हार का गठबंधन बना रहे हैं? क्या आत्मघाती गठबंधन बना कर नरेन्द्र मोदी अपनी राजनीतिक मौत की कहानी नहीं लिख रहे हैं? पहले जीतन राम मांझी जो दिन-प्रतिदिन नहीं बल्कि पल-पल में रंग बदलते हैं, कभी लालू को महान बताते हैं, कभी नीतीश कुमार को महान बताते हैं, भाजपा को सरेआम गालियां बकते थे। जीतन राम मांझी अब एनडीए का सदस्य और भाजपा के लिए वंदनीय हो गये। जीतनराम मांझी के बाद ओमप्रकाश राजभर भी एनडीए का सदस्य हो गए। ओम प्रकाश राजभर ने पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के पहले ही भाजपा को लात मारकर अखिलेश यादव की गोद में जा बैठे थे। नीतीश कुमार को गले लगाने के हश्र के बाद भी भाजपा की ऐसी नीति क्या कही जायेगी? कहा यह जा रहा है कि पसमांदा मुसलमानों को नजदीक लाने के लिए मुसलमान समर्थक पार्टियों और नेताओं की चरणवंदना की जा रही है। इसकी प्रतिक्रिया में अगर राष्ट्रवाद और संस्कृति की उग्रता व उत्साह कमजोर हुआ, शिथिल पड़ा तो फिर मोदी भी 2004 की तरह अटल बिहारी वाजपेई बन जायेंगे।
जिस दिन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पसमांदा मुसलमानों की बात कही थी और उन्हें विकास की योजनाओं से जोड़ने, उनके हितों की रक्षा करने, उन्हें सम्मान दिलाने आदि की प्रेरणा दिखायी थी, उसी दिन यह तय हो गया था कि अब उग्र हिन्दुत्व के दिन लद गये और भाजपा भी वोट की राजनीति करेगी, तुष्टिकरण करने से भी नहीं हटेगी। कहने का अर्थ यह है कि भाजपा भी कांग्रेस की बी टीम की तरह अपनी राजनीतिक पहचान बनायेगी। एकाएक मुसलमानों के लिए नयी-नयी बातें होंगी और उनके लिए कई घोषणाएं भी होंगी। इसी कारण बहुत सारे वैसे प्रश्नों को छोड़ दिया गया है जो वोट के समय बहुत ही उग्र माने जाते थे। लोकसभा चुनावों की उल्टी गिनती भी शुरू हो गयी है। इसी कारण देश की राजनीति में शह-मात का खेल जारी है। नरेन्द्र मोदी एक तरफ तो दूसरे तरफ कांग्रेस का मोर्चा सामने हैं। दोनों के बीच में कुश्ती जारी है।
पर घोर आश्चर्य की बात और रणनीति ओमप्रकाश राजभर को लेकर सामने आयी है। ओमप्रकाश राजभर अब फिर से एनडीए का सदस्य बन गये हैं। उनकी पार्टी अब एनडीए का हिस्सा है। ओमप्रकाश राजभर ने घोषणा भी की है कि उनके आने से पिछड़ों और मुसलमानों का झुकाव भाजपा की ओर बढ़ेगा। इसके पीछे तर्क उन्होंने यह दिया है कि वे खुद पिछड़ों और मुसलमानों के रखवाले और मसीहा हैं। इसलिए उनके कहने पर पिछड़ों और मुसलमानों का वोट भाजपा को मिलेगा। ओमप्रकाश राजभर कभी एनडीए का ही हिस्सा थे और उनकी पार्टी भाजपा के चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़ी थी। 2017 से लेकर 2019 तक वे भाजपा के साथ थे और उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री भी थे। फिर उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं लक्ष्मण रेखा लांघने लगी। दुष्परिणाम यह हुआ कि अनुशासन और सम्मान खतरे में पड़ गया। ऐसा लगने लगा था कि भाजपा उनके पैरों के नीचे खड़ी है और उसने घोषणा भी कर दी थी कि अगर मैंने समर्थन नहीं दिया तो फिर 2019 में नरेन्द्र मोदी सत्ता तक नहीं पहुंच पाएंगे और उनकी बहुत बड़ी हार होगी। 2019 में नरेन्द्र मोदी की जीत के बाद उसने भाजपा को ब्लैक मेल करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। इतना ही नहीं बल्कि उसने नरेन्द्र मोदी और योगी आदित्यनाथ के संबंध में ऐसी-ऐसी बातें कहने लगे थे, जो अशोभनीय होती थी और अपमानजन भी होती थी।
पिछले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में ओमप्रकश राजभर ने खूब पैंतरेबाजी दिखायी थी। योगी सरकार को दफन करने की कसमें खायी थीं। अखिलेश यादव की राजनीतिक समझ पर प्रश्न चिन्ह लगे थे और औकात से अधिक ही नहीं बल्कि मुंह मांगी विधानसभा सीटें दी थी। लेकिन कोई चत्मकार नहीं हो सका। अखिलेश यादव अपनी सरकार नहीं बना पाये। योगी आदित्यनाथ फिर से मुख्यमंत्री बन गये। इस दौरान ओमप्रकाश राजभर अपने स्वभाव के अनुसार रंग बदलने लगे। जिस अखिलेश यादव का वह गुनगान करने से नहीं चुकते थे उसी अखिलेश यादव के खिलाफ बागी हो गये और अनाप-शनाप बकने लगे। वास्तव में ओमप्रकाश राजभर को लगने लगा कि अखिलेश यादव तो सत्ता में तो अब आएंगे नहीं, फिर उसके साथ क्यों रहना। अखिलेश यादव के साथ रहने का अर्थ घाटे का सौदा है। इस दौरान उन्होंने भाजपा में आने की खूब पैंतरेबाजी की, योगी आदित्यनाथ के पास गये। अमित शाह तक दौड़ लगा दी। पर बात नहीं बनी।
ओमप्रकाश राजभर को भाजपा ने अपने साथ क्यों जोड़ा? ओमप्रकाश राजभर को जोड़ने में किसकी भूमिका अनिवार्य रही है, किंग मेकर कौन है? ओमप्राकश राजभर को एनडीए के सदस्य होने से अधिक लाभार्थी कौन होगा? राजनीति में कड़ियों को जोड़-जोड़ कर निष्कर्ष निकाले जाते हैं। इस प्रसंग में राजनीतिक कड़ियां क्या हैं? राजनीतिक कड़ियों की गौर से अध्ययन करेंगे तो स्पष्ट हो जायेगा कि इसके पीछे पसमांदा चिंतन है। उत्तर प्रदेश में दो घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। एक मुख्तार असारी को कानून के शिकंजे में कैद करना और कानूनी हिंसाब-किताब करना। दूसरी घटना है अतीक अहमद का हश्र। ये दोनों घटनाओं से मुस्लिम वर्ग भाजपा से नाराज है। इधर मुख्तार अंसारी भी पसमांदा जाति से आते हैं। मुख्तार अंसारी का ओमप्रकाश राजभर से अच्छे संबंध हैं। सिर्फ इतना ही नहीं बल्कि राजभर की पार्टी को चलाने का काम भी मुख्तार अंसारी चलाते हैं। इसका प्रमाण मुख्तार अंसारी का बेटा है जो राजभर की पार्टी का विधायक है। जब अखिलेश यादव और मायावती ने हिन्दुओं की प्रंचड उत्थान के डर से मुख्तार अंसारी के बेटे को विधानसभा का टिकट देने से इनकार कर दिया था तब ओमप्रकाश राजभर ने ही अपनी पार्टी से मुख्तार के बेटे को टिकट दिया था। मुख्तार का बेटा चुनाव जीतकर विधायक भी है। राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि ओमप्रकाश राजभर को मुख्तार अंसारी ने भाजपा से दोस्ती करायी है। इसका सर्वाधिक लाभ मुख्तार अंसारी को होगा। मुख्तार अंसारी के परिवार पर चल रहे कानूनी अभियान शिथिल हो जायेंगे। कानूनी प्रक्रियाएं धीमी हो जायेंगी, गवाहों को सुरक्षा और भरोसा दिलाने का काम बंद हो जायेंगे, सरकारी अभियोजन पक्ष कमजोर हो जायेंगे। इसका दुष्परिणाम होगा कि कोर्ट से सबूत के अभाव में मुख्तार अंसारी बरी होता चला जायेगा।
नरेन्द्र मोदी की सोच है कि पसमांदा मुसलमानों से अपनी किस्मत चमकायी जाये और बनायी जाये। पसमांदा मुसलमान उन मुसलमानों को कहा जाता है कि जो निम्न जाति कही जाती है और जिन पर घृणा की सोच बना कर रखी गयी है। पसमांदा को लेकर भ्रांतियां भी बहुत है। ये कहते हैं कि हमारे साथ जाति को लेकर ज्यादतियां हुई हैं। पर इस्लाम में जातिवाद है नहीं। अगर इस्लाम में जातिवाद है तो फिर इन्हें इस्लाम से विरोध व बगावत करना चाहिए। जिस प्रकार से दलित हिन्दू धर्म से विरोध करते हैं, बगावत करते हैं, उसी प्रकार से पसमांदा मुसलमान इस्लाम से विरोध और बगावत क्यों नहीं करते हैं? पसमांदा के अंदर से कोई भीमराव अंबेडकर जन्म क्यों नहीं लेता है। कभी पसमांदा मुसलमान दलित एक्टिविस्टों की तरह जातिवाद के लिए इस्लाम को जिम्मेदार क्यों नहीं मानते हैं? जबकि मुहम्मद साहब के समय ही इस्लाम कोई एक-दो नहीं बल्कि 72 जातियों में बंट गया था।
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पसमांदा भी इस्लाम के आधार पर वोट करते हैं और उसी पार्टी को अपना वोट करते हैं, जो भाजपा को हराने की शक्ति रखता है। काफिर मानसिकता भी पसमांदा मुसलमानों के सिर पर चढ़कर बोलती है। इसका उदाहरण असम का पिछला विधानसभा चुनाव है। जिन मुस्लिम एकाधिकार वाले बूथों पर भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा के दर्जनों सदस्य थे, उन बूथों पर भाजपा को एक भी वोट नहीं मिले थे। असम के मुख्यमंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने इस प्रसंग पर अपनी बात कह कर अपनी ही पार्टी के अल्पसंख्यक मोर्चा को बेनकाब कर दिया था।
बिना मुस्लिम चिंता और समर्थन के कोई एक बार नहीं, बल्कि दो बार नरेन्द्र मोदी अपनी सरकार और किस्मत बना चुके हैं। नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस की बी टीम बनने की जरूरत नहीं है, नरेन्द्र मोदी को कांग्रेस के फोटो कॉपी बनने की जरूरत नहीं है। कांग्रेस की गठबंधन राजनीति से भी डरने की जरूरत नहीं है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस नेतृत्व वाले गठबंधन का कोई अस्तित्व नहीं होगा। पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों में आपसी समझौते होने की काफी कम संभावनाएं हैं। इसलिए मोदी को आत्मघाती गठबंधन बनाने से बचना चाहिए। रंगबदलुओं और ब्लैकमेलरों से बचना चाहिए।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)
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