ये ऊपर वाले की रहमत ही थी कि त्रिलोक दीप सर का मेरी जिंदगी में आना हुआ। दिल्ली न आता तो शायद इस बहुत खास आदमी से मेरी मुलाकातें न होतीं। देश की नामवर पत्रिकाओं में जिनका नाम पढ़कर पत्रकारिता का ककहरा सीखा, वे उनमें से एक हैं। सोचा न था कि इस ख्यातिनाम संपादक के बगल में बैठने और उनसे बातें करने का मौका मिलेगा।
भारतीय जन संचार संस्थान का महानिदेशक बनने के बाद छत्तीसगढ़ सरकार के जनसंपर्क अधिकारियों के प्रशिक्षण कार्यक्रम के लिए मैं ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो छत्तीसगढ़ से जुड़ा रहा हो। मुझे नाम तो कई ध्यान में आए किंतु वरिष्ठता की दृष्टि से त्रिलोक जी का नाम सबसे उपयुक्त लगा। बिना पूर्व संपर्क हमने उन्हें फोन किया और वे सहजता से तैयार हो गए। उसके बाद उनका आना होता रहा। वे हैं ही ऐसे कि जिंदगी में खुद ब खुद शामिल हो जाते हैं। इस आयु में भी उनकी ऊर्जा, नई पीढ़ी से संवाद बनाने की उनकी क्षमता, याददाश्त सब कुछ विलक्षण है।
दिल्ली की हिंदी पत्रकारिता में दिनमान और संडे मेल के माध्यम से उन्होंने जो कुछ किया, वह पत्रकारिता का उजला इतिहास है। उनके साथ बैठना इतिहास की छांव में बैठने जैसा है। वे इतिहास के सुनहरे पन्नों का एक-एक सफा बहुत ध्यान से बताते हैं। उनमें वर्णन की अप्रतिम क्षमता है। इतिहास को बरतना उनसे सीखने की चीज है। उनकी सबसे बड़ी चीज यह है कि जिंदगी से कोई शिकायत नहीं, बेहद सकारात्मक और पेशे के प्रति ईमानदारी। वरिष्ठता की गरिष्ठता भी उनमें नहीं है। आने वाली पीढ़ी को उम्मीदों से देखना और उसे प्रोत्साहित करने की उनमें ललक है। वे अहंकार से दबे, कुठांओं से घिरे और नई पीढ़ी के आलोचक नहीं हैं।
उन्हें सुनते हुए लगता है कि उनकी आंखें, अनुभव और कथ्य कुछ भी पुराना नहीं हुआ है। दिल्ली की भागमभाग ने और जीवन के संघर्षों ने उन्हें थकाया नहीं है, बल्कि ज्यादा उदार बना दिया है। वे इतने सकारात्मक हैं कि आश्चर्य होता है। पाकिस्तान से बस्ती, वहां से रायपुर और दिल्ली तक की उनकी यात्रा में संघर्ष और जीवन के झंझावात बहुत हैं, किंतु वे कहीं से भी अपनी भाषा, लेखन और प्रस्तुति में यह कसैलापन नहीं आने देते। उनकी देहभाषा ऊर्जा का संचार करती है। मेरे जैसे अनेक युवाओं के वे प्रेरक हैं। प्रेरणाश्रोत हैं।
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दिनमान की पत्रकारिता अज्ञेय, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, श्रीकांत वर्मा, प्रयाग शुक्ल जैसे अनेक नायकों से सजी है। इस कड़ी का बेहद नायाब नाम हैं त्रिलोक दीप। यह बात सोचकर भी रोमांच होता है। दिग्गजों को जोड़कर रखना और उनसे समन्वय बिठाकर संस्था को आगे ले जाना आसान नहीं होता, किंतु त्रिलोक दीप से मिलकर आपको यही लगेगा कि ये काम वे ही कर सकते थे। यह समन्वय और समन्वित दृष्टि ही त्रिलोक दीप को एक शानदार पत्रकार और संपादक बनाती है। बाद के दिनों में ‘संडे मेल’ के संपादक के रूप में वे कैसी शानदार पत्रकारिता की पारी खेलते हैं, वह हमारी यादों में आज भी ताजा है।
उनकी पत्रकारिता पर कोई रंग, कोई विचार इस तरह हावी नहीं है कि आप उससे उन्हें चीन्ह सकें। वे पत्रकारिता के आदर्शों, मूल्यों की जमीन पर खड़े होकर अपेक्षित तटस्थता के साथ काम करते नजर आते हैं। आज जबकि पत्रकारों से ज्याद पक्षकारों की चर्चा है। सबने अपने-अपने खूंटे गाड़ दिए हैं, त्रिलोक दीप जैसे नाम हमें आश्वस्त करते हैं कि पत्रकारिता का कोई पक्ष है तो सिर्फ जनपक्ष ही होना चाहिए और इससे भी सफल-सार्थक पत्रकारिता की जा सकती है।
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आज की दुनिया में हम सोशल मीडिया पर बहुत निर्भर हैं। ऐसे में त्रिलोक सर वाट्सएप और फेसबुक के माध्यम से मेरी गतिविधियों पर नजर रखते हैं। उनकी दाद और शाबासियां मुझे मिलती रहती हैं। उनका यह चैतन्य और आनेवाली पीढ़ी की गतिविधियों पर सर्तक दृष्टि रखना मुझे बहुत प्रभावित करता है। वे सही राह दिखानेवाले, दिलों में जगह बनाने वाले शख्स हैं। उनके साथ काम करने का मौका तो नहीं मिला पर उनके साथ काम करने वालों से मेरा संवाद हुआ है। वे सब त्रिलोक जी को बहुत शानदार बास की तरह याद करते हैं। भारतीय जन संचार संस्थान के पुस्तकालय के लिए उन्होंने अपनी सालों से संजोई घरेलू लाइब्रेरी से अनेक महत्वपूर्ण किताबें दीं। इसके लिए हम उनके कृतज्ञ हैं। वे शतायु हों, उनकी कृपा और आशीष इसी तरह हम सभी को मिलता रहे यही कामना है। बहुत-बहुत शुभकामनाएं सर।
(लेखक भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के पूर्व महानिदेशक हैं)