रग रग में पीड़ा बहती है,
जो चिर जीवन तक रहती है।
जगजीव, मनुष्य की देह सदा,
क्षण क्षण पल प्रतिपल ढहती है।।
कर्मों का फल तो मिला नहीं,
इस बात से मुझको गिला नहीं।
मैं उस बगिया का पुष्प हुआ,
जो मुरझाया पर खिला नहीं।।
वसुधा पर जीवन पाया है,
अनुपम ‘नर–चेतन’ काया है।
मैं व्यर्थ प्रपंचों में उलझा,
ये सब ईश्वर की माया है।।
अगणित जोधा मर मिटे यहां,
दुःख भव्य मिले, सुख सार कहां।
गर सुख परिभाषित कर दूं तो,
पूछेंगे सब वो द्वार कहां।।
वो द्वार बंद ही रहने दो,
अब टूट चुका है अंतर्मन।
लो छोड़ चला मैं ये जीवन,
लो छोड़ चला मैं ये जीवन।।
संघर्षों के रण दंगल में,
इक कायर घूम रहा था।
जो डरकर बढ़ता, शायद,
रुकने छाया ढूंढ रहा था।।
क्या पता उसे रण में,
मीलों तक छांव नहीं होती।
क्या पता उसे भव में,
पग पग पर नाव नहीं होती।।
संघर्ष किया,पर हार गया,
हंसकर कहता, लो ‘भार’ गया।
मैं भी विस्मित उस व्यक्ति से,
जो इच्छाओं को मार गया।।
मैंने तो कायर कह डाला,
संभवतः गलत कहा होगा।
जो हारा अपितु जीत गया,
वो व्यक्ति वीर रहा होगा।।
उस वीर ने इस जगमाया के,
अब तोड़ दिए सारे बंधन।
लो छोड़ चला वो ये जीवन,
लो छोड़ चला वो ये जीवन।।
– कार्तिक रिछारिया
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