आचार्य विष्णु हरि सरस्वती
मैंने कभी लव जिहाद शब्द का नाम दिया था, कभी मैंने नमाजी हिंसा जिहाद शब्द का नाम दिया था, आज मैं हलाल कांवड शब्द का नाम दे रहा हूं। हलाल कांवड का कन्सेप्ट अभी तक विचारण और विमर्श से बाहर क्यों है? तुम्हारी पैरों के नीचे से जमीन सिखक रही है और तुम अभी भी अपरिचित और अज्ञानी बने बैठो हों, तो फिर भगवान भी तुम्हें बचा नहीं सकते हैं। मेरे परिचित को एक-एक कावंड़ चाहिए था। कांवड़ खोजने हम लोग निकले। बहुत खोजने के बाद अब्दुल करीम नामक व्यक्ति की दुकान से कांवड़ मिला। मेरा दोस्त आश्चर्यचकित नहीं था, उसे क्या मतलब कि कांवड़ कौन बेच रहा है? उसे कांवड़ खरीदना है और फिर हरिद्वार से गंगा से जल लाकर भगवान शिव मंदिर पर चढ़ा देना है, धर्म-पुण्य का कार्य उसका पूरा हो जाता है।
लेकिन मेरे लिए आश्चर्य की बात है। जो लोग हिन्दू धर्म को गाली देते हैं, कांवड़ यात्रा को मूर्ति पूजा का प्रतीक और अंधविश्वास बता कर आलोचना करते है, खिल्ली उड़ाते हैं, वे लोग ही कांवड़ का भी व्यापार करते हैं? साक्षात मैंने उसे देखा था। अब्दुल करीम की दुकान में सिर्फ कांवड़ ही नहीं था, बल्कि उसके पास भगवा रंग के रेडिमेड कपड़े भी थे और डमरू भी था, इसके साथ ही साथ भगवान शंकर के पहने वाले व भगवान शंकर की रूचि वाले अन्य वस्तुएं भी थी।
मैंने पूछ दिया कि करीम अब्दुल तुम तो मुसलमान हो फिर इन वस्तुओं की बिक्री कैसे करते हो और इसके प्रति रुझान क्यों बढ़ा। उसने कहना शुरू कर दिया कि मैं तो सिर्फ वस्तुए बेचता हूं, वह भी हलाल। हलाल का अर्थ होता है अगर सजीव है, तो आधी गर्दन रेत कर छोड़ देना और अगर निर्जीव है तो फिर उस पर थूक देना। उसने आगे कहना शुरू कर दिया कि एक महीने के दौरान कांवड़ से उसे अच्छी-खासी कमाई हो जाती है। सैकड़ों मुस्लिम मजदूरों को रोजगार मिल जाता है। उसने बताया कि कांवड़ यात्रा से जुड़े वर्क दिल्ली के मुस्लिम इलाके में होते हैं। अधिकतर अपने घरों में कांवड़ बनाते हैं। कांवड़ बनाने के दौरान धर्म पवित्रता का ख्याल कितना रखा जाता होगा, यह भी विचारणीय विषय है।
फिर अब्दुल करीम ने जानकारी दी कि सिर्फ दिल्ली में ही नहीं बल्कि देश के हर जगहों पर कांवड़ यात्रा के दौरान मुस्लिम वर्ग कमाई में लगा रहता है। विशेषकर कानपुर में कांवड़ से जुड़ी हुए अस्थायी सैकड़ों फैक्टिरियां हैं, जहां पर कांवड़ यात्रा से जुड़ी हुई आधुनिक वस्तुए बनायी जाती है और देश के कोने-कोने में आपूर्ति होती है। कानपुर की ये सैकड़ो फैक्टिरियां मुसलमानों की ही होती है, जहां पर कार्य करने वाले कारीगर अधिकतर मुसलमान ही होते हैं।
हरिद्वारा और ऋषिकेश से प्रतिवर्ष एक करोड़ से अधिक लोग कांवड़ यात्रा शुरू करते हैं और विभिन्न क्षेत्रों में जाकर जल अर्पित करते हैं। कोई उत्तराखंड, तो कोई दिल्ली, तो कोई राजस्थान, तो कोई उत्तर प्रदेश, तो कोई हरियाणा जल लेकर जाता है। सब कांवड़ लेते हैं, जल के लिए कोई पीतल का वर्तन उपयोग करता है, तो कोई टीन या प्लास्टिक का डब्बा उपयोग करता है। इसी तरह से झारखंड के देवघर में श्रावण मास के दौरान एक करोड़ लोग जलाभिषक करते हैं। इसी तरह से देश के अन्य भागों में श्रावण मास के दौरान जलाभिषक होता है। देश का कोई ऐसा कोना नहीं है जहां पर श्रावण मास के दौरान कंवाड़ यात्रा नहीं होती है। सबसे बड़ी बात यह है कि अमरनाथ यात्रा के दौरान घोड़े और खच्चर वाले इतना कमाई कर लेते हैं कि उनके कई महीनों का जीविकापार्जन हो जाता है। अमरनाथ यात्रा के दौरान खच्चर और घोड़े उपलब्ध कराने वाले सभी मुसलमान होते हैं।
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मैंने जब शोध किया और विस्तृत जानकारी जुटाई, राज्यों से हिन्दू एक्टिविस्टों से जानकारी मांगी तो बहुत सी ऐसी जानकारियां भी सामने आयी जो अभी तक विचारण व विमर्श से बाहर है। सिर्फ कांवड़ वस्तुए ही नहीं बल्कि वाहन, होटल आदि वाले अधिकतर मुस्लिम होते हैं और आर्थिक कमाई करते हैं। महाकाल की नगरी उज्जैन से जानकारी मिली है कि इस नगर के अधिकतर होटल मुसलमानों का है जो हिन्दू नामों से संचालित हैं और हिन्दू सेक्युलर मानसिकता के कारण उनमें ठहरता है। सिर्फ कांवड़ यात्रा के कांवड़, वाहन, खानपान आदि के माध्यम दौरान दो हजार करोड़ रुपये की कमाई मुस्लिम आबादी करती है। फिर भी मुस्लिम और कम्युनिस्ट कांवड़ यात्रा को अंधविश्वास का प्रतीक, पानी की बर्बादी और पर्यावरण नुकसान का प्रतीक बता कर आलोचना करते हैं, खिल्ली उड़ाते हैं। आप विचार कीजिये कि संकट कितना घना है। हिन्दुओं के पैरों के नीचे जमीन खिसक रही है और हिन्दुओं को पता ही नहीं, हलाल कांवड़ भी उपयोग करने से भी बाज नहीं आते हैं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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