Kahan: कुंभ स्नान चल रहा था। राम घाट पर भारी भीड़ लगी थी। शिव पार्वती आकाश से गुजरे। पार्वती जी ने इतनी भीड़ का कारण पूछा आशुतोष ने कहा, कुम्भ पर्व पर स्नान करने वाले स्वर्ग जाते हैं। उसी लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है।
माता पार्वती का कौतूहल तो शांत हो गया पर नया संदेह उपज पड़ा। इतने लोग स्वर्ग कहां पहुंच पाते हैं नाथ? भगवती ने अपना नया सन्देह प्रकट किया और समाधान चाहा। भगवान शिव बोले- शरीर को गीला करना एक बात है और मन की मलीनता धोने वाला स्नान ज्यादा जरूरी है। मन को धोने वाले ही स्वर्ग जाते हैं। एसे लोगों को ही स्वर्ग मिलता है।
सन्देह घटा नहीं, और बढ़ गया। पार्वती बोलीं- यह कैसे पता चले कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया? यह कार्य से जाना जाता है। शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया। मार्ग में शिव कुरूप कोढ़ी बनकर पड़े रहे। पार्वती को भी बहुत सुंदर सजा दिया, दोनों बैठे थे। स्नानार्थियों की भीड़ उन्हें देखने के लिए रुकती। अनमेल स्थिति के बारे में पूछताछ करती।
पार्वती जी रटाया हुआ विवरण सुनातीं, यह कोढ़ी मेरा पति है। गंगा स्नान की इच्छा से आए हैं। गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ। बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं। अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती। वे सुंदरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते। पार्वती लज्जा से गढ़ गई। भला ऐसे भी लोग स्नान को आते हैं क्या? निराशा देखते ही बनती थी।
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संध्या हो चली। एक उदारचेता आए। विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर आए। सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर तट तक पहुँचाया। जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया। साथ ही सुंदरी को बार-बार नमन करते हुए कहा- आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं। धन्य हैं माता आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं।
प्रयोजन पूरा हुआ। शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए। रास्ते में कहा- पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया। स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की भी शर्त लगी हुई है। पार्वती तो समझ गईं कि स्नान महात्म्य सही होते हुए भी, क्यों लोग उसके पुण्य फल से वंचित रहते हैं?
मन मैला और तन को धोये।
फूल तो चाहे, कांटे बोये ll
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