Kahani: लंका में युद्ध अपने अंतिम पड़ाव पर था। श्रीराम की सेना आगे बढ़ती ही जा रही थी और रावण के अनेकानेक महारथी रण में वीरगति को प्राप्त हो चुके थे। अब तक रावण भी समझ गया था कि श्रीराम की सेना से जीतना उतना सरल कार्य नहीं है, जितना वो समझ रहा था। तब उसने अपने छोटे भाई कुम्भकर्ण को जगाने का निर्णय लिया जो ब्रह्मदेव के वरदान के कारण छह महीने तक सोता रहता था। जब कुम्भकर्ण नींद से जागा तो रावण ने उसे स्थिति से अवगत कराया।
इस पर कुम्भकर्ण ने रावण को उसके कार्य के लिए खरी-खोटी तो अवश्य सुनाई किन्तु अपने भाई की सहायता से पीछे नहीं हटा। जब वो रणभूमि में पहुँचा तो उसकी काया देख कर वानर सेना में खलबली मच गयी और राक्षस सेना निश्चिंत हो गयी। कुम्भकर्ण इस युद्ध को अधिक खींचना नहीं चाहता था, इसी कारण उसने सीधे श्रीराम से युद्ध करने की ठानी, किन्तु वानर वीरों के होते हुए वो श्रीराम तक कैसे पहुँचता। लगभग पूरी वानर सेना उसके भय से भाग खड़ी हुई किन्तु वानरों में जो महारथी थे, उन्होंने कुम्भकर्ण को रोकने का प्रयास किया।
सबसे पहले नल, फिर नील, द्विविन्द आदि वीरों ने कुम्भकर्ण को रोकने का प्रयास किया, किन्तु उसके बल से पार न पा सके। फिर वानरराज सुग्रीव एवं अंगद ने सम्मलित रूप से कुम्भकर्ण को रोकने का प्रयास किया, जिससे कुम्भकर्ण थोड़ा विचलित हुआ, किन्तु शीघ्र ही वो अपनी गति से आगे बढ़ता ही रहा। तब ऋक्षराज जामवंत ने एक भीषण मुष्टि प्रहार कुम्भकर्ण पर किया, जिससे वो थोड़ी देर रुका और उसने जामवंत के बल की प्रशंसा की, किन्तु वानर सेना का संहार जारी रखा। तब और कोई चारा न देख कर जामवंत ने हनुमान से उसका मुकाबला करने को कहा।
महाबली हनुमान का बल अपार था। उन्होंने युद्धक्षेत्र में आकर कुम्भकर्ण को ललकारा। कुम्भकर्ण के विशालकाय शरीर के सामने बजरंगबली ने भी अपना विराट रूप धरा और फिर दोनों में महान द्वन्द आरम्भ हुआ। दोनों ओर की सेनाएँ हाथ रोक कर उन दो महापराक्रमी योद्धाओं का युद्ध देखने लगी। आपस में लड़ते हुए दोनों को अपने प्रतिद्वंदी के बल का भान हुआ और दोनों मन ही मन दूसरे की सराहना करने लगे। जब युद्ध थोड़ा लम्बा खिंच गया तब कुम्भकर्ण ने हनुमान की प्रशंसा करते हुए कहा..
हे महाबली! मेरे हाँथों कितने ही महान योद्धाओं का अंत हुआ है, किन्तु मैंने आज तक तुम जैसे वीर का सामना नहीं किया। किन्तु मेरे और तुम्हारे युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकलने वाला, क्योंकि तुम मुझे परास्त नहीं कर पाओगे और युद्ध इसी प्रकार चलता रहेगा। मेरी तुमसे कोई शत्रुता नहीं है और मैं यहाँ राम का वध करने आया हूँ। अतः जाओ और अपने लिये कोई और प्रतिद्वंदी ढूंढो। तब हनुमान ने कहा.. हे वीर! अगर मुझ जैसे सेवक के रहते मेरे स्वामी को युद्ध करना पड़े तो ये मेरे लिए लज्जा की बात है। अगर तुम्हे लगता है कि इस युद्ध का कोई परिणाम नहीं निकलने वाला है, तो वापस लौट जाओ। ऐसा कह कर दोनों पुनः युद्ध करने लगे।
दोनों के युद्ध ने उग्र रूप ले लिया। तब कुम्भकर्ण ने काल की भांति एक त्रिशूल हनुमान पर फेंका, जिसे हनुमान ने बीच में ही पकड़ कर तोड़ दिया। इसपर कुम्भकर्ण ने हतप्रभ होते हुए कहा… आश्चर्य ! ये त्रिशूल भगवान शंकर के त्रिशूल के समकक्ष ही था, जिसे तुमने तोड़ दिया। तुम अवश्य ही रुद्रावतार हो। तब हनुमान ने क्रोधित हो कहा.. रे राक्षस! अब मैं तुझपर ऐसा प्रहार करूँगा कि तेरा अंत हो जाएगा। ऐसा कहकर हनुमान ने अपने असीम बल से वहीं पास के एक पूरे पर्वत को बात ही बात में उखाड़ लिया। जब कुम्भकर्ण ने हनुमान का ऐसा पराक्रम देखा, तो पुनः उनकी प्रशंसा करते हुए कहा..
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धन्य हो! तू वास्तव में सभी वीरों से श्रेष्ठ है, किन्तु मैं वचन देता हूँ कि तेरे इस प्रहार से अगर मैं तनिक भी विचलित हुआ, तो ये रणभूमि छोड़ कर वापस चला जाऊँगा। अन्यथा आज मेरे हाँथों राम का अंत होकर रहेगा। कुम्भकर्ण की ऐसी चुनौती सुनकर हनुमान ने अपनी पूरी शक्ति से वो पर्वत कुम्भकर्ण की ओर फेंका किन्तु आश्चर्य! महाबली के इस भीषण प्रहार से भी कुम्भकर्ण अपने स्थान से तनिक भी नहीं हिला और कुम्भकर्ण के वज्रतुल्य वक्ष से टकराकर वो पर्वत चूर-चूर हो गया।
ऐसे भीषण कर्म को देख कर हनुमान जी भी कुम्भकर्ण की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सके और फिर उन्होंने निर्णय किया कि ये योद्धा तो श्रीराम के हाँथों ही मृत्यु पाने के योग्य है। इसके बाद कुम्भकर्ण का युद्ध क्रमशः लक्ष्मण एवं श्रीराम के साथ हुआ और श्रीराम के हाथों ही उसकी मृत्यु हुई।
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