भारत की एक पहचान यहां जन्में ऋषियों, महायोगियों और सिद्ध सन्तों के कारण बनी है। भारत में ऐसे महान योगी हुये हैं, जो पर काया प्रवेश की योगिक विद्या में सिद्ध थे। दूसरे की काया में प्रवेश का तात्पर्य है कि किसी विशेष उद्देश्य के लिए अपनी आत्मा को शरीर से निकाल कर दूसरे जीव के शरीर में प्रवेश कराना। पर काया प्रवेश लक्ष्य सिद्ध मानी जाती है। ऐसे ऋषियों, महायोगियों और सिद्ध सन्तों के नाम आगम और निगम शास्त्रों अर्थात वेदों तथा ऋषियों द्धारा रचे गये ग्रन्थों में मिलते हैं। ऐसे ऋषियों और महायोगियों को देव तुल्य कहा गया है। इन्हें जन्मना प्राप्त काया को इच्छानुसार अनन्तकाल तक स्वस्थ बनाये रखने की क्रियाएं भी आती हैं। विशेष कार्य के निमित्त निर्धारित समय के लिए अपने आत्मा को दूसरे की काया में प्रवेश करा लेने की क्षमता रखते हैं। ऐसे सिद्ध सन्त जब चाहे सूक्ष्म रूप में आत्मवत रहते हैं। ऐसे ऋषियों की बड़ी संख्या कैलाश क्षेत्र में मानी जाती है। सूक्ष्म शरीर के रूप में रहना एक बड़ी क्रिया है।
महायोगी मत्स्येन्द्रनाथ दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में बंगाल के किसी स्थान में जन्मे। उनका प्रारम्भिक जीवन कैसा रहा। किसकी सन्तान थे, इस पर प्रर्याप्त अन्वेशण नहीं किये गये। सनातन हिन्दू जीवन शैली जीने वाले माता-पिता की सन्तान थे। जो प्रारम्भ से योग, ध्यान के साथ हठयोग में सिद्धि पाने के लिए तप करने में लग गये। वह संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड ज्ञाता ही नहीं ऐसे अन्वेशक थे, जिनके बारे में हिन्दू, बौद्ध और नाथ मत के अनेक ग्रन्थों में बड़ी रोचक कथायें मिलती हैं। अनेक प्रकार की सिद्धियां स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने प्रारम्भिक जीवन काल में ही अर्जित कर ली थीं।
स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ के अनेक नाम ग्रन्थों में वर्णित हैं। मचिन्द्रनाथ या मछिन्द्रनाथ नाम प्राय: मिल जाते हैं। बौद्ध गुरुओं के अनुसार वह 84 महायोगियों में से सर्व प्रमुख माने जाते थे। यह 84 महायोगी बौद्ध मत के हठ योग विद्या में पारांगत थे। यह वर्णन तो नहीं मिलता कि स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ को ऐसी विद्याएं किसने सिखायी थीं। विभिन्न कथाओं के आधार पर माना जाता है कि उन्होंने अनेक सिद्ध योगियों का सान्निध्य प्राप्त करके विशिष्ट क्रियाओं और विद्याओं को सीख कर स्वयं सिद्धियां प्राप्त कीं। योगी मत्स्येन्द्रनाथ मूलत: हिन्दू होते हुए बौद्ध मत में कब दीक्षित हुए इसके तो प्रमाण नहीं मिलते। तद्यपि बौद्ध ग्रन्थों में योगी मत्स्येन्द्रनाथ को वज्रयान शाखा का अग्रदूत अर्थात अग्रिम पंक्ति का ऋषि माना जाता है।
मत्स्येन्द्रनाथ को नाथ प्रथा अर्थात सम्प्रदाय का एक संस्थापक माना जाता है। उत्तर प्रदेश का गोरखपुर इस हिन्दू सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र है। भारत के 500 से अधिक स्थानों पर बड़े केन्द्र हैं। विदेशों में भी नाथ सम्प्रदाय के साधक मिलते हैं। मत्स्येन्द्रनाथ को योग विद्याओं का सार्वभौम शिक्षक भी कहा गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि मनुष्य ने एक योगी के रूप में जितनी योग क्रियाओं का अन्वेशण किया है, उन सभी विधाओं के प्रकाण्ड ज्ञाता और उद्भभट व्याख्याता के रूप में योगी मत्स्येन्द्रनाथ का नाम शीर्ष पर है।
स्वामी गोरखनाथ को महायोगी मत्स्येन्द्रनाथ का प्रधान शिष्य कहा गया है। नाथ मत में गुरु को ईश्वर मानते हैं। नाथ मतावलम्वी गुरु गोरखनाथ को पहला गुरु मानकर ईश्वर की तरह पूजते हैं। गोरखनाथ के गुरु ने हठयोग पाठशाला की स्थापना की थी। हठयोग की प्राथमिक रचनाओं को मत्स्येन्द्रनाथ से गोरखनाथ ने सीखा था। फिर इन विद्याओं और विधियों को अन्य शिष्यों को सिखाने का काम गोरखनाथ ने किया। इस प्रकार यह परम्परा जो अनेक सिद्धियों का मार्ग प्रशस्त करती है, गुरु शिष्य परम्परा के आधार पर विकसित हुई।
नाथ पन्थ का उदय सिद्ध महापुरुषों के महासुखवाद की प्रतिक्रिया स्वरूप उसके परिमार्जन के लिए होने की बात सामने आती है। नाथों की संख्या प्रारम्भ में 9 थी। गुरु गोरखनाथ नाथ सम्प्रदाय के प्रथम गुरु माने गये हैं। इस सम्प्रदाय को योग विद्याओं का एकत्रीकरण करके उनके विराट रूप को विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण ख्याति मिली। नाथ सम्प्रदाय भी आगे चलकर 12 शाखाओं में विकसित हुआ। इन्हें 12 पन्थ कहते हैं। इसके कारण नाथ सम्प्रदाय को 12 पन्थी योगियों का समूह भी कहा जाता है। सिद्ध योगी को यह 12 पन्थ अपना आदि प्रवर्तक कहते हैं। इन्हीं प्रवर्तकों के नाम पर इनके पन्थों के नाम रखे गये हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ नाथ सम्प्रदाय के योगी हैं। जो इस समय गोरखपुर स्थित मठ के महंत भी हैं।
नौ नाथ इस प्रकार हैं- योगी गोरखनाथ, जवलेन्द्रनाथ, करीनानाथ, गहिनीनाथ, चरपथनाथ, रेवननाथ, नागनाथ, भर्तृहरिनाथ, गोपीचन्द्रनाथ। इन नौ नाथों को भगवान नारायण का अवतार कहा गया है। सांसारिक गतिविधियों की देखरेख में भगवान नारायण के निर्देश पर यह सभी नाथ काम करते हैं।
गुरु गोरखनाथ के जन्म की कथा
गुरु गोरखनाथ- महायोगी मत्स्येन्द्रनाथ के परम शिष्य गुरु गोरखनाथ के बारे में प्रचलित है कि एक बार योगी मत्स्येन्द्रनाथ किसी गॉव में भिक्षा के निमित्त गये थे। सन्तों द्धारा किसी गृहस्थ के यहॉ भिक्षा के लिए जाना वैदिक काल से चली आ रही एक परम्परा है। स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने भिक्षा के लिए एक द्वार पर गुहार लगायी। द्वार पर भिक्षा के लिए किसी सन्त को आया देखकर गृह स्वामिनी भोजन की जो समग्री उपलब्ध थी उसे लेकर दौड़ी चली आयी। योगी मत्स्येन्द्रनाथ का तेज अपूर्व था। वह गृहणी भिक्षा देते हुए कांप रही थी। उसने भिक्षा देने के साथ बहुत साहस करके माथा झुकाते हुए गुरु से आग्रह किया कि उसकी गोद रिक्त है। कोई सन्तान नहीं है।
इस पर महायोगी ने तथास्तु कह दिया। इस तरह उस गृहणी की कोख से बैसाख पूर्णिमा को जिस शिशु का जन्म हुआ, उसका नाम गोरखनाथ पड़ा। आगे चलकर उस गृहणी ने योगी मत्स्येन्द्रनाथ के दर्शन किये और उनके समक्ष बालक को खड़ा करके कहा, यह आपके प्रसाद से जन्मा है। मैं चाहती हूं कि इसकी दीक्षा आपके संरक्षण में हो। स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ ने उस माता का आग्रह स्वीकार कर लिया। गोरखनाथ ने स्वामी द्वारा बतायी गयी प्रत्येक सिद्धी को प्राप्त करने के लिए पूरी निष्ठा से तप किया। नाथ सम्प्रदाय की कुल देवी के रूप में माता हिंगलाज देवी का वर्णन मिलता है। यह मन्दिर स्वयंभू प्रकट हुआ। इसकी गिनती इक्यावन शक्ति पीठों में होती है। जो बलूचिस्तान की एक पहाड़ी पर स्थित है। पाकिस्तान की अनेक जनजातियां जिन्हें बाद में मतान्तरित करके मुसलमान बना दिया गया। वह माता की इस मन्दिर को नानी मां का मन्दिर कहते हैं।
योगी मत्स्येन्द्रनाथ का पर काया प्रवेश
स्वामी मत्स्येन्द्रनाथ सांसारिक जीवन विशेषत: नर-नारी के पारस्परिक सम्बन्धों से अनभिज्ञ थे। एकबार उनसे किसी ने इस सम्बन्ध में प्रश्न किया। इसके लिये समय आने पर व्याख्या करने की बात कही। वह शिष्य गोरखनाथ को लेकर उस स्थान से चले गए। अपने शिष्य को बताया कि वह एक गुप्त गुफा में उनके अचेतन शरीर की तब तक रक्षा करें, जब तक लौटकर नहीं आते। इस तरह अपनी काया छोड़कर उनकी आत्मा दूरस्थ एक राजमहल में पहुंची जहां युवा राजकुमार की काया में गुरु मत्स्येन्द्रनाथ की आत्मा प्रविष्ट हो गयी।
इसे भी पढ़ें: सन्त तुकाराम और शिवाजी का गौरवशाली इतिहास
लम्बा अन्तराल बीतने पर शिष्य गोरखनाथ चिन्ता में पड़ गये। एक ओर अपने महान गुरु की अचेतन काया की रक्षा का दायित्व उनपर था, तो दूसरी ओर गुरु को वापस लाने की चुनौती थी। उन्होंने योग क्रियाओं की सिद्धि के बल पर अपने गुरु की काया के निमित्त सशक्त कवच तैयार कर दिया। काया को कन्दरा में सुरक्षित करते हुए वह बाहर निकले। अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुये गुहार लगा रहे थे- जाग मछन्दर गोरख आया। एक राज महल के बाहर चतुर्दिक घूमकर उन्होंने यह गुहार लगायी। उन्हें आभास हो गया था कि यहीं कहीं हमारे महान गुरु रुके हुये हैं। पर काया में स्थिति योगी मत्स्येन्द्रनाथ के अन्त: पटल पर शिष्य की गुहार गूंज रही थी। उन्हें आभास हुआ कि अपनी काया छोड़कर आये बहुत समय बीत गया है। शिष्य चिन्ता में है। कुछ पलों में ही युवराज की काया से मुक्त होकर मत्स्येन्द्रनाथ की आत्मा अपने शिष्य के भाल के निकट चक्कर काटने लगी।
शिष्य को आभास करा दिया कि उनकी सूक्ष्म आत्मा प्रस्थान के लिए तत्पर है। इस तरह कुछ ही समय में महायोगी मत्स्येन्द्रनाथ अपनी काया में सुरक्षित पहुंच गये। महायोगी मत्स्येन्द्रनाथ और गुरु गोरखनाथ के पारस्परिक सम्बन्धों को लेकर अनेक कथायें किवदंतियों के रूप में प्रचलन में हैं। ऐसे महान योगी मत्स्येन्द्रनाथ और उनके शिष्य गुरु गोरखनाथ को भारत ही नहीं पूरे जगत में महान सिद्धियों के लिए अपर्मित सम्मान दिया जाता है। भारत के योगी और ऋषिगण उन्हें वरेण्य मानते हैं। इन दोनों महायोगियों को कोटिश: नमन।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
इसे भी पढ़ें: आजादी के नायक राजा राव रामबक्स की कहानी