Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

भारत में इन्दिरा गांधी द्वारा 1975 में लागू किये गये आपातकाल को देश में तानाशाही स्थापित करने की उनके कुटिल प्रयासों के रूप में देखा जाता है। यह अलग बात है कि 18 महीने की अवधि में उन्होंने अपने चापलूस प्रशासन तन्त्र के माध्यम से इतने अत्याचार किये कि उनकी तुलना जर्मनी के नाजी तानाशाह हिटलर से की जाने लगी थी। इन्दिरा गांधी जब राजनीति में आयीं तो उन्होंने बड़ी तीव्रता और चतुराई से कांग्रेस पार्टी को अपने पंजों में दबा लिया था। कांग्रेस में कोई ऐसा नेता नहीं बचा था जो उनकी हर बात पर हामी भरने से मना करने का साहस कर पाता। ऐसे सभी नेता जो लोकतान्त्रिक सिद्धान्तों की वाहक समझे जाते थे उन्हें इन्दिरा गांधी ने बाहर का रास्ता दिखा दिया था।

विश्लेषकों की इस बात में दम है कि भारत में अधिनायकवाद (तानाशाही) स्थापित करने का मन इन्दिरा गांधी ने बहुत पहले बना लिया था। उन्होंने इसका ताना-बाना बुनने का काम 1971 के लोकसभा चुनाव में बड़ी जीत प्राप्त करने के बाद ही प्रारम्भ कर दिया था। इन्दिरा गांधी एक लोकप्रिय नेता के रूप में उभरीं थीं। यद्यपि ताशकन्द में 11 जनवरी, 1966 को लाल बहादुर शास्त्री की जब संदिग्ध अवस्था में मृत्यु हुई और अन्तत: इन्दिरा गद्दी पर बैठीं तो कतिपय लोगों ने उनकी ओर उंगलियां उठायी थीं। सहिष्णु भारतीय जनमानस नश्वर शरीर की क्षणभंगुरता का विचार करके अल्प समय मंम शास्त्री जी की मृत्यु की पीड़ा को भूल गया था। इन्दिरा ने एक चतुर शासक के रूप में गरीबी हटाने के संकल्प के साथ चुनाव जीता था। पर उनका मन्तव्य तब प्रकट हुआ जब उन्होंने 25 जून, 1975 की रात के 12 बजे आपातकाल के प्रावधान लगाकर भारतवासियों के मौलिक अधिकार छीन लिये थे।

धन्य है भारत का सामन्य जीवन जीने वाला जन समुदाय जिसने 18 माह की अल्प अवधि में ही इन्दिरा गांधी को मात दे दी। पर इसके लिए अत्यन्त निर्धन और निर्बल वर्गों के लोगों ने अप्रतिम बलिदान दिये। भारत के 60 लाख से अधिक लोगों को परिवार नियोजन के क्रूर उपायों को लागू करने के लिए इन्दिरा गांधी के बेटे संजय गांधी के सीधे निर्देश पर बाध्य किया गया था। संजय उस समय प्रधानमन्त्री (अपनी माँ इन्दिरा) के कार्यालय में बैठकर सभी अधिकारों का उपभोग करने लगा था। बेटे संजय को इन्दिरा गांधी ने प्रकटत: अपना उत्तराधिकारी मानकर उसे सारे अधिकार दे रखे थे।

अमानवीय ढंग से लागू किये गये परिवार नियोजन के प्रावधानों का सर्वाधिक कष्ट जिन्हें सहना पड़ा उनमें 70 प्रतिशत से अधिक भारतीय महिलाएं थीं। ऐसी महिलाओं में बहुतांश निर्धन, निर्बल और ऐसे समाज की थीं जिन्हें अनुसूचित और पिछड़े वर्गों की माना जाता है। संजय गांधी ने उस समय प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश दे रखा था कि जो निर्धन, अनपढ़ और समाज के लिए बोझ प्रतीत होते हैं उनसे प्रजनन का अधिकार छीन लेना चाहिए। यही कारण है कि प्रशासनिक तन्त्र निर्धनों को देखकर बाज की तरह झपटता था। किसान और श्रमिक उनके लिए सबसे सहज शिकार होते थे।

Emergency

आपातकाल का सामना करना सहज नहीं था। पुलिस और प्रशासन के अधिकारी और कर्मचारी यदि किसी गाँव, कस्बे या नगर की गली में दिख जाते तो भगदड़ मच जाती। ऐसे परिवारों के पुरुष और महिलाएं प्राय: खेतों और जंगलों में दिन-रात बिताने को विवश थे जिन्होंने किसी सरकारी संस्था से किसी प्रकार का ऋण लिया हो अथवा उनका लगान या सींच बाकी हो। तो ऐसे लोग निश्चित रूप से पकड़ कर ले जाये जाते और उनकी नसबन्दी करा दी जाती।

आपातकाल की अवधि में किसानों से खाद्यान्न छीनने का अभियान चलाया गया था। उन्नाव जिले की हसनगंज तहसील के बीबीपुर, न्यूतनी, मोहान सहित दर्जनों गांवों में किसानों के घर पर प्रशासन के लोग निशिदिन छापे डाल रहे थे। यही स्थिति उन्नाव जिले की पुरवा, सफीपुर, उन्नाव के प्राय: सभी गांवों की थी। बीबीपुर के होशराम के घर पर उनकी पत्नी मिलीं। उनकी मिट्टी की डहरियों से अधिकारियों ने मारपीट कर अनाज निकलवा लिया। पत्नी-बच्चे रोते रह गये। गांव के एक युवक को जिसका विवाह भी नहीं हुआ था, पुलिस पकड़कर नसबन्दी के लिए ले जाने लगी। तब होशराम की पत्नी ने चीख कर गांव की सभी महिलाओं को ललकारा। ग्रामीण परिवेश की वीरांगनाओं ने पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के डण्डों से लहूलुहान होकर भी उस युवक को बचा लिया। घर का सारा अन्न प्रशासन के द्वारा लूटे जाने के कारण यह परिवार छह महीनों तक गांव के लोगों की सहायता पर पलता रहा। ऐसी ही घटना न्यूतनी में 11 परिवारों के साथ घटी। हसनगंज कस्बे के निर्धन परिवारों के 70 से अधिक लोग बलात नसबन्दी के शिकार हुए थे। इनमें आधे से अधिक महिलाएं थीं। पीड़ित परिवारों में मुसलमान भी शामिल थे।

उन्नाव तहसील के सरोसी गांव के वीरपाल सिंह एक एडवोकेट थे। उन्नाव के रामलीला मैदान में पुलिस के एक दरोगा ने एक युवक और उसकी पत्नी को लाठी लेकर इस तरह दौड़ाया कि वह ईंटों के बीच गिरकर बुरी तरह घायल हो गया था। इस पर वीरपाल सिंह ने उस दरोगा का विरोध करने का साहस क्या दिखाया रात्रि में ही उनके युवा पुत्र को चोरी के झूठे आरोप में पकड़ लिया गया। दूसरे दिन उनके गांव और उन्नाव के घर से सरकारी लेवी का अन्न वसूलने के लिए प्रशासन की बड़ी फौज पहुँच गयी। सारा अन्न तहसील में ले जाकर जमा कर दिया गया। प्रशासन से उलझने का मुकदमा भी लग गया।

इस घटना के दूसरे दिन वीरपाल सिंह की गृहणी शीला सिंह को एसडीएम और पुलिस उपाधीक्षक ने धमकी दी कि यदि उन्होंने घर से अन्न वसूली के दौरान अपमान करने का आरोप वापस नहीं लिया तो मीसा में बन्द कर दिया जाएगा। आपातकाल के दौरान डीआईआर और मीसा ऐसे कानूनी हथियार थे जिनके अन्तर्गत किसी को भी बिना कारण बताये छह महीनों तक जेल में बन्द रखने का अधिकार प्रशासन को था।

Emergency

मीसा और डीआईआर इन्हीं दो विधानों के तहत पूरे देश में इन्दिरा गांधी के अत्याचारों का चक्र चल रहा था। शीला सिंह एक साहसी महिला थीं। सामान्य गृहणी होते हुए उन्होंने प्रशासनिक अधिकारियों से कहा कि अपने ही नहीं दूसरों के लिए भी वह जेल जाने को तैयार हैं। उनकी इस बात पर दूसरे दिन छोटे पुत्र राजन और उसके 11 साथी बालकों को मैदान में खेलते समय पुलिस ने घेर कर पकड़ लिया। रात ढाई बजे तक इन सभी को उन्नाव कोतवाली में भूखे-प्यासे बन्द रखा गया। अगस्त महीने की भीषण उमस और मच्छरों के बीच यह बालक तड़पते रहे। इनमें सुनील (08 वर्ष), ओम प्रकाश (10), रवि कुमार सोनकर (13), विनोद (11), राजन (10), राजेश साहू (13), लालता प्रजापति (09), नन्हे लाल (08), सूरज कुमार पासी (07), लल्लू (09) और नरपत निषाद (12) सम्मिलित थे। इन्हें तब छोड़ा गया जब उसी परिसर में रह रहे तहसीलदार ने पड़ोस में बनी हवालात में बन्द इन बच्चों के रोने की आवाज सुनी। उन्होंने कोतवाल कृपाल सिंह पर दबाव डाला। जिले के अनेक वकीलों ने राजेन्द्र शंकर त्रिपाठी के नेतृत्व में प्रशासन की हेकड़ी की चिन्ता किये बिना खुलकर विरोध किया। फिर भी पुलिस के तेवरों में सुधार नहीं हुआ।

कोतवाल कृपाल सिंह पश्चिमी उत्तर प्रदेश से आया था। वह अपनी क्रूरता के लिए कुख्यात था। उसने पहले तो तहसीलदार को धमकी दी कि वह अपराधियों को छुड़ाने के आरोप में उनपर मुकदमा दर्ज कर देगा। तहसीलदार से उसने कहा कि यह सभी बच्चे आरएसएस वालों के हैं। पार्क में ऐसे खेल खेल रहे थे जो संघ की शाखाओं में खिलाये जाते हैं। वस्तुत: यह बात सही थी। यह सभी बालक उन्नाव की केशव शाखा के स्वयंसेवक थे। आरएसएस पर इन्दिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा के साथ प्रतिबन्ध लगा दिया था। संघ की शाखाएं बन्द थीं। पर बच्चों का खेलना प्रतिबन्धित नहीं था। कोतवाल की हठधर्मिता तो नहीं चली। पर दूसरे दिन तहसीलदार को पुलिस अधीक्षक ने पहले अपने कार्यालय में बुलाया फिर उन्हें जिलाधिकारी के समक्ष उपस्थित होकर कोतवाल से भिड़ने की सफाई देनी पड़ी थी। पुरवा तहसील में किसानों, श्रमिकों के साथ ही विद्यार्थियों को पुलिस प्रताड़ित करती रही। बड़ी संख्या में पुरुष और महिलाएं नसबन्दी के चक्रव्यूह में फंसाये गये।

उन्नाव से लगभग 10 किमी की दूरी पर एक गांव है मद्दीखेड़ा। यह गांव बिछिया ब्लाक केन्द्र के निकट है। पूरा गांव छोटे किसानों और श्रमिकों का है। यहाँ एक महिला गंगा देवी (58 वर्ष) के साथ पुलिस ने बहुत दुर्व्यहार किया था। गंगा देवी के पति चन्द्रपाल पासी सामाजिक कार्यकर्ता थे। पुलिस इन्हें खोज रही थी। न मिलने पर गंगा देवी के साथ गाली- गलौच करने लगे। गंगा देवी ने प्रबल विरोध किया तो एक सिपाही ने उन्हें डण्डे से पीटने लगा। इतना ही नहीं उन्हें बल पूर्वक जीप में डालने लगे। पुलिस का मन्तव्य गंगा देवी को एक खेत में टेण्ट लगाकर चलाये जा रहे नसबन्दी केन्द्र तक ले जाना था। गंगा देवी ने उनकी पारस्परिक वार्ता को सुन लिया। फिर तो इस वीरांगना ने अन्य महिलाओं को गुहार कर ऐसा रौद्र रूप धारण किया कि पुलिस को भागना पड़ा।

राजेश्वरी मूलत: बीघापुर क्षेत्र के रैथाना गांव की रहने वाली थीं। उनके पति एक सहकारी बैंक में कार्यरत थे। राजेश्वरी बहुत पढ़ी लिखी नहीं थीं। पर गुणी बहुत थीं। उनका बेटा ओम प्रकाश बाल स्वयंसेवक था। संघ के कार्यकर्ताओं का उनके घर आना-जाना रहता था। पुलिस ने कई बार उनके घर पर धावा बोलकर उन्हें धमकाया। इतना ही नहीं जिलाधिकारी को जब उनके सम्बन्ध में अधीनस्थ अधिकारियों ने बताया तो उनके पति सूरज प्रसाद को आरएसएस से सम्बन्धित होने के आरोप में सेवा से निकाल दिया गया। राजेश्वरी देवी और सूरज प्रसाद बहुत खुद्दार दम्पत्ति थे। राष्ट्र के प्रति उनका समर्पण अप्रतिम था। पुलिस ने एक दिन उनकी जीविका के एक मात्र साधन दो गायों को छीनकर काजी हाउस में ठूंस दिया। उत्पीड़न सहकर यह परिवार नहीं डिगा।

एक सैन्य अधिकारी की विधवा थीं कादम्बरी देवी। उन्नाव रेलवे स्टेशन के निकट एक घर में अकेली रहती थीं। एक मात्र बेटी भी वीर सैनिक पति के बलिदान के कारण विधवा हो गयी थी। बेटी ग्वालियर में बूढ़े सास-ससुर की सेवा करती थी। कादम्बरी उन्नाव में अनेक निर्धन बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाया करती थीं। शेष समय सामाजिक कार्यों विशेषत: महिलाओं और बेटियों के लिए एक सहायक माता के रूप में काम करती थीं। सभी उन्हें माताजी कहकर सम्मान देते। कई बार संघ के कार्यकर्ताओं को वह भोजन और कुछ समय के लिए छिपकर रहने का अवसर देती थीं। इस बात का पता पुलिस को चला तो 67 वर्ष की दुर्बल काया वाली कादम्बरी को ऐसे अपमानित किया मानो वह कोई कुख्यात अपराधी हों। उन्हें कई दिनों तक कोतवाली और फिर पुलिस अधीक्षक तथा जिलाधिकारी के यहाँ बुलाकर धमकाया जाता रहा।

उन्नाव जनपद में राम शंकर त्रिपाठी विद्यार्थी जीवन में स्वयंसेवक बने थे। उनके साथियों में चन्द्रभूषण तिवारी, विश्वम्भर सिंह, राजेन्द्र शंकर त्रिपाठी, लक्ष्मी शंकर जैन, करुणा शंकर त्रिपाठी, अनन्त प्रसाद, हंसराज शर्मा, शिवप्रसाद सिंह, डॉ. शिवदयाल सिंह, जमुना लाल बजाज, रामकरन, प्रेमचन्द्र गुप्ता, भगीरथ, महेश शर्मा, चन्द्रभूषण वाजपेयी जैसे अनेक दिग्गज कार्यकर्ता लम्बे समय से सक्रिय थे। इनमें से अधिकांश लोगों को पुलिस ने प्रारम्भ में ही जेल में डाल दिया था। रामशंकर त्रिपाठी की पत्नी शशी त्रिपाठी सक्रिय महिला कार्यकर्ता के रूप में आपातकाल विरोधी गतिविधियों में संलग्न रहीं। पति के जेल जाने के बाद पुलिस ने शशी त्रिपाठी और उपरोक्त सभी कार्यकर्ताओं के घरों पर परिवारजनों को सताने का क्रम बनाये रखा। उत्पीड़न सहकर इन परिवारों की महिलाओं ने आपातकाल का विरोध और जन जागरण जैसी गतिविधियों में सक्रिय भागीदारी बनाये रखी।

उन्नाव का पाटन गांव संघ की गतिविधियों का लम्बे समय से केन्द्र रहा है। यहाँ मनोहर लाल माहुले और चौधरी देवकीनन्दन का आवास है। आपातकाल के समय मनोहर लाल बहुत सक्रिय रहे। इनका साथ कुम्भी के अनेक युवकों न दिया। इनमें शिवप्रताप सिंह और सुमेरपुर के प्राचार्य करुणा शंकर अवस्थी भी थे। पनई के अनन्त प्रसाद आपातकाल की अवधि में बहुत सक्रिय रहे। आपातकाल में समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लागू थी। जनता समाचार नाम से एक छोटा समाचार पत्र गोपनीय ढंग से छपकर आता था।

यह पत्र कानपुर में इतनी गोपनीयता से छापा जाता रहा कि प्रशासन तन्त्र को इसकी भनक नहीं लग सकी। इस पत्र में इन्दिरा गांधी की तानाशाही की क्रूरता की गतिविधियों के समाचार छपे रहते थे। यह पत्र उत्तर प्रदेश के विभिन्न जिलों में स्वयंसेवकों के ऐसे तन्त्र द्वारा पहुंचाये जाते थे जो अपनी गोपनीयता बनाये रखने में निपुण थे। माहुले जी की पत्नी विद्यावती भी इस पत्र के वितरण में बड़ी भूमिका निभाती रहीं। उनके माध्यम से जनता समाचार सुदूरवर्ती गांवों तक बड़ी सहजता से पहुँचते रहे। इसमें विद्यावती के बेटों ओम प्रकाश, शिव प्रकाश के साथ ही भगवन्त नगर और धानीखेड़ा में सक्रिय युवकों शिव बहादुर सिंह, ओसियां के कृष्ण मोहन साहू, राम अवतार, बुद्धीलाल, शैलेन्द्र की भागीदारी से व्यापक प्रसार होता रहा। भगवन्त नगर के कई शिक्षकों को डॉ वासुदेव सिंह और महेन्द्र प्रताप सिंह ने आपातकाल के विरुद्ध अभियान में सक्रिय किया था। इनमें बेचू तिवारी, योगेन्द्र प्रताप सुमन, कृष्णदत्त पाण्डेय, नरेश चन्द्र गुप्ता, भोला गुप्ता, गोविन्द शर्मा आदि प्रमुख थे।

पुरवा तहसील क्षेत्र के बहुसंख्य गांवों में माहुले जी की पहुँच का कोई सानी नहीं था। इसी तरह पुरवा मौरावां की ओर रामनारायण त्रिपाठी, त्रियुगी नारायण वाजपेयी, धर्मेश श्रीवास्तव, केपी सिंह जैसे कार्यकर्ता संघ की योजनानुसार जनजागरण में लगे रहते थे। रामनारायण त्रिपाठी कानपुर से समाचार पत्र के बड़े बण्डल जिस प्रवीणता से उन्नाव के विभिन्न क्षेत्रों में पहुँचाया करते थे वह उनकी सादगी और समर्पण का परिचायक था। हसनगंज क्षेत्र में जनता समाचार के वितरण की देखरेख न्यूतनी के विजय सिंह, केशव प्रसाद साहू और रामरतन यादव आदि करते थे। जिसमें विजय सिंह की माता रामरती देवी और केशव प्रसाद साहू की पत्नी की भूमिका सराहनीय थी।

हसनगंज तहसील के कई गांव जिनमें जोधाखेड़ा, रसूलाबाद, मोहान, बीबीपुर, धीरखेड़ा, औरास, नन्दौली, धुरकुण्डी, हैदराबाद, शेखूपुर आपातकाल विरोधी गतिविधियों के बड़े केन्द्र रहे। जोधाखेड़ा गांव में कमला चौहान और मालती सिंह के साथ भी अनुसूचित जाति और पिछड़ी जातियों की कई महिलाएं बहुत सक्रिय रहीं। इनके माध्यम से आपातकाल की अवधि में समाज के विरुद्ध चलाये जा रहे दमन चक्र की जानकारी तथ्यों के साथ प्रत्येक वर्ग तक पहुँचायी जाती रही। पुरवा टेनई में अपने खेत में झोपड़ी बनाकर रहने वाले भाई मुरली सिंह का व्यापक प्रभाव समाज के निचले पायदान पर खड़े खेतिहर मजदूरों और महिलाओं के साथ ही स्कूली बच्चों के बीच था। इनके माध्यम से आपातकाल की घटनाओं का प्रसार तीव्रता से होता रहा। इसी तरह नवई झलोतर, खेरवा, छोटाखेड़ा गांवों के रहने वाले मास्टर नन्हा सिंह, डॉ जियाउल और उनकी पर्दानशीन बीबी के साथ ही मुन्नीलाल, कामता दीक्षित सहित अनेक युवक और स्कूली किशोर बच्चों की भूमिका अप्रतिम थी।

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आपातकाल की अवधि में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्य भूमिका में था। प्रतिबन्ध के कारण संघ के शीर्ष से लेकर जिलों और गांवों के स्तर तक के प्रमुख कार्यकर्ता पहले ही जेलों में बन्द कर दिये गये थे। ऐसे समय में संघ के सामान्य कार्यकर्ताओं तक सूचनाएं पहुँचाने और उनके बीच समन्वय स्थापित करने की प्रणाली इतनी सुदृढ़ थी कि महानगरों, नगरों और कस्बों से लेकर गांवों तक तन्त्र विकसित हो चुका था। इसीलिए न केवल अत्याचारों की घटनाओं की सूचना देशभर में प्रसारित हो जाती थी अपितु सारा प्रशासन तन्त्र पूरे बल के साथ जुटने पर भी इस व्यवस्था को तोड़ नहीं पा रहा था। जब राजनीतिक दलों के नेताओं का साहस टूट चुका था तब संघ ने ही उनके बीच समन्वय स्थापित करके जनता पार्टी का गठन कराया। इस नयी पार्टी ने जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में 1977 के चुनाव में भारी जीत अर्जित की। इस पार्टी के नेताओं का यह दुर्भाग्य रहा कि वह परस्पर द्वन्द्व को रोक नहीं सके और अन्तत: 1980 में फिर से इन्दिरा को गद्दी पर बैठने का अवसर इनकी टूट के कारण मिल गया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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