Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

Emergency: भारत में आपातकाल लगे छह महीने बीत चुके थे। इन्दिरा गाँधी (Indira Gandhi) ने पूरे देश को सदा के लिये लोकतन्त्र विहीन करने का मन बना लिया था। राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इन्दिरा गाँधी (Indira Gandhi) का चाकर जैसा बनकर व्यवहार किया था। आपातकाल (Emergency) लागू करने सम्बन्धी फाइल पर 25 जून, 1975 को हस्ताक्षर कर दिये थे। बाद में यह बात जगजाहिर हुयी कि राष्ट्रपति इतने दबाव में थे कि उसके प्रावधानों पर अपनी दृष्टि तक नहीं दौड़ायी। तथ्यों का अन्वेषण करने वालों ने संसार को बताया कि सिद्धार्थ शंकर राय को प्रधानमन्त्री आवास बुलाकार इन्दिरा गाँधी (Indira Gandhi) ने कुछ घण्टों में आपातकाल (Emergency) की घोषणा सम्बन्धी फाइल तैयार करायी थी। सिद्धार्थ शंकर उनके बहुत प्रिय नेता थे। विधि विधान के अच्छे जानकार थे। अपने ज्ञान का दुरुपयोग उन्होंने इन्दिरा गाँधी के मन्तव्य को पूरा करने के लिए किया था। यह बात उन्होंने बाद में स्वीकार भी की थी। कतिपय विज्ञजन भी प्रायः ऐसा व्यवहार करते हैं। जो देश व समाज के लिए घातक सिद्ध होता है।

आपातकाल (Emergency) की घोषणा अचानक किया गया निर्णय नहीं था। इन्दिरा गाँधी केन्द्र की सत्ता में बैठकर एक ओर पूरी कांग्रेस को निचोड़ चुकी थीं। अब वह सारे देश में प्रतिस्पर्धी और प्रतिद्वंदी दोनों को समाप्त करने के कुत्सित उद्देश्य से ऐसा व्यवहार कर रही थीं। यह किसी भी प्रकार उनके जन नेता की छवि के अनुकूल नहीं था। जो इन्दिरा जन जन की नेता बनकर 1971 में उभरी थीं। उसे उन्होंने तानाशाह नेता बनने के भ्रमजाल के कारण स्वयं विनष्ट किया। देश भ्रष्टाचार से कराह रहा था। समाजवादी विचारक जयप्रकाश नारायण ने समग्र क्रान्ति का नारा दिया। उनकी युति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कई वरिष्ठ प्रचारकों से देश की गम्भीर प्ररिस्थितियों के कारण होती चली गयी।

संघ का दृष्टिकोण सदा स्पष्ट रहा है। इस राष्ट्र में हम जाग रहे हैं। इस राष्ट्र को हम जगाने को उदैत हैं। संघ के प्रत्येक स्वयंसेवक के मन का यह पवित्र भाव जाग उठा था। आपातकाल के संजाल में फसे भारतवर्ष को बचाना होगा। संघ का यही मन्तव्य बाबू जयप्रकाश नारायण और उनके सहयोगियों को बहुत रास आ गया। दोनों के बीच बातचीत हुई। बातचीत के क्रम चले। अन्ततः अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद सहित संघ के कई सहयोगी संगठनों के कार्यकर्ता जेपी के समग्र क्रान्ति आन्दोलन से जुड़ते चले गये। इन्दिरा गाँधी संघ पर प्रतिबन्ध लगा चुकी थीं। देश के समस्त राजनीतिक दलों को पंगु बना दिया था। उनके नेता या तो जेल में थे या सहमे हुए लोप स्थिति में थे। संगठन कौशल में प्रवीण आरएसएस ने जेपी के हाथों में नेतृत्व सौंप कर इन्दिरा गाँधी के हर अंकुश पर पैनी दृष्टि गड़ा रखी थी। हर गाँव और नगर तक यह बात ठीक प्रकार से पहुँच गयी कि इन्दिरा गाँधी (Indira Gandhi) एक बड़ी तानाशाह के रूप में भारत के लिए घातक बन चुकी हैं।

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भारत के समस्त प्रचार माध्यमों पर सेंसरशिप लगी हुई थी। बड़ी संख्या में पत्रकार और सम्पादक जेल में डाल दिये गये थे। देश के चण्ट वाममार्गी और निस्तेज कांग्रेसी यही दो यत्र तत्र दिखायी पड़ते थे। इतने पर भी इन्दिरा गाँधी आपातकाल के विरुद्ध वास्तविक स्थिति को जन जन तक पहुँचने से नहीं रोक पायीं। वस्तुतः यही उनकी सबसे बड़ी विफलता थी। जिसके कारण उनके हाथों का तानाशाही का अंकुश छीनकर फेंकने में आरएसएस और जेपी को केवल 18 महीने लगे।

संसार के विश्लेषक चमत्कृत रह गये। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक ऐसा संगठन है, जो सदा प्रसिद्ध परान्मुख रहा है। कुछ करने के बाद उसे गाता नहीं फिरता। संघ के प्रचार तन्त्र के माध्यम स्वयंसेवक है। तकनीक के सहारे प्रभावी रहने वाले संशाधन 1975 में नहीं थे। संगठन तन्त्र में इन्दिरा गाँधी के क्रूर नेतृत्व के किस्से भारत के लगभग 90 करोड़ लोगों तक छह महीने की अवधि में एक अन्तर्निहित विद्युत तरंग की तरह पहुँच गये थे। नवम्बर 1975 आते यह निश्चय संघ और जेपी के बीच हुआ कि अब सत्याग्रह शुरू करना चाहिए। जेपी जेल में थे। संघ जैसे संगठन के दस हजार से अधिक सक्रिय कार्यकर्ता बलात जेलों में डाले जा चुके थे। पर संघ की कार्यकर्ता शक्ति का अनुमान इन्दिरा गाँधी को नहीं था। प्रशासन बौना सिद्ध होने लगा जब 11 नवम्बर, 1975 में देशभर में एक साथ प्रत्येक जिलों में आन्दोलनकारियों ने सत्याग्रह की हुंकार भर दी। प्रायः देश का हर जिला सीधे प्रधानमंत्री आवास से जुड़ा था। जहां से रात दिन कुचल डालों का निर्देश प्रशासन को मिल रहा था। राज्यों की सरकारें पीएमओ के अफसरों की ऊंगली से बंधी थीं। समाज के सुधीजनों को यह अनुभूति कंपा रही थी कि तानाशाही का राक्षस हर प्रकार का बल प्रयोग करने से नहीं हिचक रहा है।

कवि, लेखक, पत्रकार, किसान, श्रमिक नेता, उद्यमी, समाजसेवी बाजारों के जागरूक लोग सबको प्रशासन तंत्र एक ही चाबुक से हॉक रहा था। घर से अपने काम के लिए निकलने वाले लोग शाम को घर आ पाने को लेकर सशंकित रहते थे। इन्हीं स्थितियों के बीच ऐसे लोग भी पनपने लगे थे जो निजी शत्रुता के लिए प्रशासन के बल को अपने हथकण्डों से खरीद लेते थे। लोग ऐसे शत्रुता की भेंट चढ़कर कब मार डाले गये यह पता बाद में चलता। बहुसंख्यक हत्याओं पर पुलिस प्रशासन संवेदनहीन बना रहता। संवेदना का तो कोई प्रश्न ही नहीं था।

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उन्नाव जिले में आरएसएस की योजनानुसार जिला प्रचारक बीरेन्द्र सिंह के साथ मैं (नरेन्द्र भदौरिया) और कई कार्यकर्ता सन्नद थे। इनमें ओंकार नाथ (शानतन वाजपेयी), दयाराम सिंह, शिवनन्दन सिंह, जमुना प्रसाद वाजपेयी, रतनलाल यादव, राम नारायण त्रिपाठी, गंगा प्रसाद वर्मा, शिवकुमार पाठक, राजकुमार सिंह, मनोहर लाल माहुले, रमापति तिवारी, मिश्री लाल, शिवप्रसाद सिंह, बेचे लाल, बद्री प्रसाद निगम, मास्टर नन्दन सिंह, कौशलेन्द्र प्रताप सिंह, बदलू प्रसाद, गंगाराम, कृष्ण कुमार श्रीवास्तव, विश्वम्भर सिंह, कामता प्रसाद वैद्य, त्रियुगी नारायण वाजपेयी, राजेन्द्र शंकर त्रिपाठी, छात्र ओमप्रकाश साहू, विनोद मिश्र, सुशील श्रीवास्तव, श्रीराम पाल, राजन सिंह, कृष्ण कुमार मिश्र, केशव प्रसाद साहू, होमेश्वर देव भारद्वाज, देवेन्द्र श्रीवास्तव, कमला चौहान, रतन कुमार यादव, ब्रह्माद्दीन सैनी, त्रिलोकी सिंह, चौधरी देवकी नन्दन, केशव प्रसाद, डॉ होशराम सिंह, सुनील वर्मा, परमेश्वरी देवी, सूरज प्रसाद, प्रेमचन्द गुप्ता, चन्द्रभूषण वाजपेयी, शिवप्रताप सिंह, रामकरन, रामशंकर त्रिपाठी, हृदयनारायण दीक्षित सहित 73 लोग ऐसे थे, जिन्होंने एक छोटे से जिले उन्नाव में गाँव-गाँव तक जाकर जन जन को जागृत किया। इसी का परिणाम रहा कि 11 नवम्बर, 1975 से सत्याग्रह आन्दोलन का जो क्रम प्रारम्भ हुआ वह 1977 में आपातकाल के समाप्ति तक अखण्ड रूप से चलता रहा।

आपातकाल के विरुद्ध भारत में हुए सत्याग्रह आन्दोलन ने स्वतन्त्रता आन्दोलन के समय हुए सबसे बड़े सत्याग्रह भारत छोड़ो के कीर्तिमान को मात दे दी थी। भारत छोड़ो आन्दोलन के समय 1942 में लगभग 42 हजार लोगों ने भाग लिया था। अर्थात इतने लोगों को अंग्रेज सरकार ने जेलों में निरुद्ध किया था। जबकि इन्दिरा गाँधी के आपातकाल विरोधी सत्याग्रह आन्दोलन में 62 हजार से अधिक लोगों ने क्रूर अत्याचारों की बौछार के बीच जेल भर दिये थे। आपातकाल के काले दिनों में एक और कीर्तिमान इन्दिरा गाँधी और उनके बेटे संजय गाँधी ने तोड़ा था। यह रेकॉर्ड जबरन नसबन्दी का था। जर्मनी के तानाशाह हिटलर ने लगभग 43 हजार लोगों की नसबन्दी यह कहकर करा डाली थी कि कीड़े मकोड़ों का जीवन जीने वाले लोगों को अपना वंश बढ़ाने का अधि कार नहीं होना चाहिए। इसी सोच के आधार पर आपातकाल में पूरे देश के निर्धन बेसहारा लोगों से लेकर सामान्य जन जीवन जीने वाले 46 हजार से अधिक लोगों की नसबन्दी इन्दिरा गाँध और उन के बेटे संजय के निर्देश पर आततायी प्रशासन ने करा डाली थी।

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसा यह संगठन भारत राष्ट्र की सेवा के संकल्प से बधा है। ऐसे प्रचण्ड राष्ट्रव्यापी आपातकाल विरोधी आन्दोलन के बाद भी संघ ने सत्ता में भागीदारी का कोई मन्तव्य व्यक्त नहीं किया। यह सही है कि विरोधी दलों के अधिकांश नेता जेलों में रहकर इतने भयाक्रान्त हो गये थे कि उन्हें लगता था कि इन्दिरा गाँधी 1977 के आम चुनाव में आतंक के दम पर विजयी हो जाएंगी। उन्हें रोका नहीं जा सकेगा। ऐसे राजनीतिक नेताओं को समझाकर साहस दिलाकर खड़े करने का काम संघ के उस समय के सह सरकार्यवाह प्रोफेसर राजेन्द्र सिंह रज्जू भैया ने सम्हाला था। रज्जू भैया के साथ देश के अनेक श्रेष्ठ विचारकों, सुधीजनों की टोली लगी थी। जो हर प्रकार से चिन्तनशील और प्रभावी होने के साथ संघ की चिन्तनधारा के समर्थक थे।

राजनीतिक बवण्डर से दूर रहने वाले समाज के ऐसे अध्येयताओं अर्थात नायकों ने भारत की झोली में लोकतंत्र लौटाने का पुनीत कार्य किया था। भारत के लोग नहीं जानते कि उनके प्रति यह उपकार करने वाले ये मनीषी आत्म प्रशांसा से विरत रहकर कैसे इतना बड़ा काम करके दूर हट गये। उन्होंने फिर कभी इन नेताओं की देहरी लांघना उचित नहीं समझा। राजनीति से अछूते ये लोग सच्चे अर्थों में भारत की मूर्धा बनकर संकट के समय मार्ग दर्शन करने खड़े हो जाते हैं। ऐसे अन्जान लोगों ने नाविन्य पीढ़ी को अपना उपहार दिया।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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