Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

स्काटलैण्ड में 1812 में जन्मे जेम्स एंड्रयू ब्राउन रामसे डलहौजी को 1848 में भारत का गर्वनर जनरल बनाकर भेजा गया था। डलहौजी ने भारत में हड़प नीति (डॉक्ट्रिन ऑफ लेप्स) लागू की थी। इस नीति के बल पर पूरे भारत में अनेक राजाओं को अपदस्थ कर दिया गया था। उनकी सारी सम्पत्ति और राजपाट ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन कर लिया गया था। डलहौजी ने ही एक आदेश जारी करके पूरे भारत के किसानों की भूमि भी हड़प ली थी। उसका आदेश था कि जिन किसानों के पास अपनी भूमि के दस्तावेज नहीं हैं उन्हें भू-स्वामी के अधिकार से वंचित किया जाता है। उल्लेखनीय है कि भारत के किसान डलहौजी के आने के पहले स्थानीय राजाओं के प्रतिनिधियों के वचनों पर विश्वास करते हुए भू-स्वामी बन कर जीवन यापन किया करते थे।

डलहौजी को भारत भेजने का मुख्य उद्देश्य यही था कि भारत की सम्पूर्ण भूमि ब्रिटिश राजसत्ता के अधीन की जाय। जिससे कि किसानों से लेकर प्रत्येक भारतीय नागरिक के स्वामित्व सम्बन्धी समस्त अधिकार लेकर ब्रिटिश राज के अधीन कर दिया जाय। सबसे अचरज की बात है कि स्वतन्त्रता के बाद भारत में गठित कांग्रेस सरकारों ने लार्ड डलहौजी की इस हड़प नीति को सुधारवादी निर्णायक प्रयासों के रूप में सराहन की। लार्ड डलहौजी ने पहले यह आदेश निकाला कि जिन राजाओं के यहाँ जन्मजात उत्तराधिकारी नहीं है वह किसी भी व्यक्ति को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर सकते हैं। इसी नियम के अन्तर्गत नि:सन्तान राजाओं ने अपने उत्तराधिकारी के रूप में घोषणाएं प्रारम्भ की थीं।

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई सहित सम्पूर्ण भारत में 200 से अधिक छोटे बड़े राजाओं ने गोद लेकर उत्तराधिकारी सुनिश्चित कर लिए थे। डलहौजी ने अपने पूर्व के आदेश को अचानक निरस्त कर दिया। वस्तुत: यह उसकी चाल थी। जिसमें नि:सन्तान राजा फंस गये थे। अपने नये आदेश के बल पर उसने ऐसे राजाओं को उत्तराधिकार से वन्चित कर दिया। उनका राजपाट ईस्ट इण्डिया की सम्पत्ति घोषित कर दिया गया। रानी लक्ष्मीबाई सहित 125 से अधिक राजाओं ने प्रतिरोध किया। जिन्हें बल पूर्वक कुचल दिया गया।

लार्ड डलहौजी के कारण भारत भर के किसान सम्पत्ति का अधिकार खो चुके थे। प्रत्येक जिले में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के प्रतिनिधियों की अनुकम्पा पाने के लिए किसानों को दौड़ लगानी पड़ी। डलहौजी का यह पग विनाशकारी था। जिसके प्रति आक्रोश फैलना प्रारम्भ हुआ। चतुर अंग्रेजों ने स्थिति भांपते हुए आक्रोश से निपटने के लिए दो उपाय किये। एक तो दमन का मार्ग अपनाया दूसरी ओर सेफ्टीवाल के रूप में कांग्रेस नामक राजनीतिक दल गठित करने का निर्णय लिया। जिससे कि जो भी आक्रोश उत्पन्न हो उसे अपने पिछलग्गू संगठन के माध्यम से सम्भाला जाय।

सभी जानते हैं कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना एक अंग्रेज रणनीतिकार एओ ह्यूम ने 28 दिसम्बर, 1885 को 72 प्रतिनिधियों की उपस्थिति में मुम्बई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में की थी। संस्थापक महासचिव एओ ह्यूम थे। प्रारम्भ में इस पार्टी का अध्यक्ष पद ह्यूम ने कोलकाता के व्योमेश्चन्द्र बनर्जी को सौंपा था। उस समय कांग्रेस की स्थापना का उद्देश्य भारत के कुलीन वर्ग की संस्था के रूप में किया गया था। संस्था के अधिकांश सदस्य बाम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी के थे। कांग्रेस के लक्ष्य का बदलाव स्वराज्य के स्थापना के रूप में तब हुआ जब बालगंगाधर तिलक जैसे नेता आगे आये। तब भी 1907 तक अन्दरूनी टकराव बना रहा। जिसे गरम दल और नरम दल दो भागों के रूप में जाना जाता था।

वस्तुत: जेम्स एण्ड्रयू ब्राउन रामसे डलहौजी आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ा हुआ था। 25 साल की वय में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट के लिये चुना गया था। केवल 36 वर्ष की वय में इसे भारत में गवर्नर जनरल बनाकर भेजा गया था। वह भारतीयों के प्रति घृणा के भाव से भरा रहता था। अपने कुकृत्यों को सुधार के कार्य बताकर प्रचारित करता था। भारत के हिमाचल प्रदेश राज्य में चम्बा जिला है। यहाँ पाँच पहाड़ों कठलौंग, पोट्रेन, तेहरा, बकरोटा और बलून के बीच एक बड़े भू-भाग को डलहौजी ने अपने नाम घोषित कर लिया था। यहाँ अग्रेजों ने 1854 में एक नगर बसाया जो आज भी डलहौजी के नाम पर स्थित है। डलहौजी 1848-1856 तक भारत का गवर्नर जनरल रहा। आठ वर्षों की इस अवधि में डलहौजी ने भारत में ब्रिटिश राज की एक सुदृढ़ व्यवस्था सुनिश्चित कर दी थी। उसकी नीति को राज्य हड़प नीति नाम दिया गया। गोद प्रथा निषेध घोषित करके डलहौजी ने भारत में बड़ा हड़कम्प पैदा कर दिया था।

लार्ड डलहौजी की हड़प नीति के कारण उदयपुर, जैतपुर, सम्बलपुर, नागपुर, सतारा और झांसी जैसे राजाओं को सबसे पहले अपदस्थ किया। इसके कारण भीषण रक्तपात भी हुआ। वर्तमान उत्तर प्रदेश के अवध राज्य को भी हड़प लिया गया था। तब लखनऊ अवध की राजधानी थी और नवाब वाजिद अलीशाह शासन करते थे। वाजिद अली को विलासी प्रवृत्ति का नवाब कहा जाता था। जबकि इस क्षेत्र के लोग उसे शान्तिप्रिय नवाब कहते थे। झांसी का राज्य लक्ष्मीबाई से छीनने का अवसर डलहौजी को तब मिला जब गंगाधर राव नि:सन्तान मर गये। लक्ष्मीबाई एक वीरांगना थीं। अंग्रेजों ने जब उन्हें अपदस्थ करने का निर्णय लिया तो वह संघर्ष के लिए निकल पड़ीं।

भारत में भारतीय राजाओं के विरुद्ध हड़पो नीति लेकर आये अंग्रेजों से संघर्ष के लिए जो लोग खड़े हुए उन्हें विद्रोही कहा गया। आश्चर्य की बात तो यह कि स्वतन्त्र भारत की सरकारों ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने वालों को गदर अर्थात विद्रोह करने वाला बताकर इतिहास पढ़ाया। कानपुर के बिठूर में नानाराव पेशवा को भी अंग्रेजों ने अपदस्थ करने की घोषणा की। वह पूर्व पेशवा के जन्मजात नहीं अपितु घोषित उत्तराधिकारी थे। इसीलिए नाना राव पेशवा संघर्ष के लिए निकल पड़े। उन्नाव के वीर राजा रावराम बक्स सिंह की कहानी ऐसी ही थी। वह नि:सन्तान थे। अंग्रेजों की दास्ता उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। राजाराव राम बक्स ने घोर संघर्ष किया था। उन्होंने नानाराव पेशवा और झांसी की रानी के संघर्ष में सीधी भागीदारी की थी। डलहौजी की हड़प नीति का पहला शिकार सतारा राज्य बना था। लार्ड डलहौजी ने आदेश जारी कर कहा था कि सतारा के राजा ने बिना अनुमति के एक दत्तक पुत्र बना लिया था। जिस तरह सतारा के राजा ने उत्तर दिया उससे डलहौजी गुस्से से पागल हो उठा था।

पहले राजा सतारा, फिर झांसी की रानी और नानाराव पेशवा ने उत्तर दिया कि अंग्रेज कौन होते हैं भारत में अपनी हड़प नीति लागू करने वाले। भारत के राजाओं और यहाँ की जनता को अपना निर्णय स्वयं करने का अधिकार है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों की चुनौती स्वीकार करके युद्ध के लिए प्रस्थान किया था। डलहौजी को सुधारवादी बताने वाली नेहरू सरकार ने स्वतन्त्रता के बाद शिक्षा में उसे महत्व दिया। भारत की नयी पीढ़ी को पढ़ाया गया कि डलहौजी ने सार्वजनिक महत्व के कार्यों पर बहुत धन व्यय किया। सड़कों को सुधारा, पुल बनवाये और नहरे बनवायीं। व्यापार की परिस्थितियां सुधारीं। वास्तविक स्थिति नहीं बतायी कि व्यापार के नाम पर माटी के मोल पर भारतीय सामान विदेश जाने लगा। किसानों का अनाज झपटने का सिलसिला जो 1939 से अंग्रेजों ने शुरू किया था वह 1948 से डलहौजी ने और तेज कर दिया। भारत के अन्न उत्पादक किसान भूखों मरने लगे।

डलहौजी की क्रूरता की कहानियों के कारण 1853 से ही देशभर में चिन्गारियां फूटने लगी थीं। 1856 तक देशभर के सैकड़ों राजा, नवाब और महराजे एकता के सूत्र में बधने लगे। 1857 में राजवंशों की भृकुटियां तन गयीं। बड़ी क्रान्ति ने जन्म लिया। उस समय भारत में वायसराय की कुर्सी पर लार्ड कैनिंग थे। हजारों की संख्या में अंग्रेज इंग्लैण्ड की ओर भागने लगे। अनेक स्थानों पर रक्तिम संघर्ष हुए। यद्यपि इसकी पहल अंग्रेजों ने की थी। पर भारतीय वीरों ने उन्हें इस माटी का स्वाद चखाने में कोई कसर नहीं की। 1857 की इस क्रान्ति के कारण लगने लगा था कि भारत अपने शत्रु अंग्रेजों को अब यहाँ पनपने नहीं देगा। भारत की खड्ग देखकर उनका साहस चूर हो चुका था। तभी भारत के 22 राजाओं के एक समूह ने भारत की माटी से द्रोह करने का निर्णय किया। इन राजाओं के समूह ने अपने प्रतिनिधियों को लंदन भेजा। जहाँ उनकी भेंट ब्रिटेन के शासकों और महरानी से करायी गयी।

भारत के इन द्रोहियों ने अंग्रेजों को भारत लौटने और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के स्थान पर सीधे ब्रिटिश राज्य की सत्ता स्थापित करने का परामर्श दिया। राजाओं ने वहाँ यह भी कहा कि अंग्रेज अपनी छोटी सशस्त्र सेना के साथ भारत आयें। उन राजवंशों और स्वतन्त्रता सेनानियों का समूल नाश करें जिन्होंने 1857 में अंग्रेजों के विरुद्ध संषर्ष किया। इस लड़ायी में इन द्रोहियों ने अपनी सेनाओं का सहयोग देने का वचन दिया था। अन्तत: अंग्रेज लौटे। भारत में सीधे ब्रिटिश राजवंश की सत्ता स्थापित हुई। इस बार भारत में योजनावद्ध रीति से साढ़े चार लाख से अधिक भारतीय स्वतन्त्रता सेनानियों का निर्मम संहार हुआ। ऐसे सेनानियों के सार्वजनिक स्थल पर वध की नीति अंग्रेजों ने अपनायी थी।

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अंग्रेजों ने भारत में 1857 से 1946 तक दमन चक्र चलाया। भारत को पूरी तरह दुर्दशा ग्रस्त और विपन्न करने की नीति लागू की गयी। परिणामत: 1939 से 1946 तक डेढ़ करोड़ लोग भुखमरी के शिकार हो गये। मरने वाले ये लोग भारत के किसान थे। जिनकी उपज अंग्रेज छीन लेते थे। अकाल के समय भी कोई सहायता नहीं दी जाती थी। डलहौजी के समय खुदवायी गयी नहरों में जलापूर्ति बन्द कर दी गयी थी। औषधियों का ऐसा टोटा पैदा किया गया कि आयुर्वेद के बल पर चिकित्सा करने वालों को भी प्रतिबन्धित कर दिया गया। जो भारत सर्वथा सम्पन्न, समर्थ और आत्म निर्भर था उससे 1857 की क्रान्ति का बदला अंग्रेजों ने भरपूर लिया। सर्वत्र त्राहि-त्राहि के स्वर तब हड़कम्प मचाने लगे जब हैजा, प्लेग और चेचक जैसी महामारियों ने तीन-चार बार के सतत प्रवाह में 02 करोड़ 36 लाख भारतीय नागरिकों को काल कवलित कर लिया। सम्पन्नता के कारण जिसे लूटने के लिए पहले तुर्क, मुगल और अंग्रेज आये वह दरिद्र बनकर पूरे संसार में उपहास का दंश सहने लगा। ऐसे भारत की मेधा और शौर्य को कुचलने का जितना कुचक्र अंग्रेजों और इस्लामी आक्रान्ताओं ने किया उससे भयानक और क्या हो सकता था।

स्वतन्त्रता के बाद आशा की किरण जगी थी कि अपने धर्म और संस्कृति पर गर्व करने वाले भारतीय परिश्रम करके एक बार फिर से खड़े हो जाएंगे। स्वतन्त्रता के पूर्व से ही भारत की भारतीय संस्कृति को कुचलने के उपक्रम प्रारम्भ हो गये थे। यह उपक्रम भारतीय संस्कृति को मानने वालों से उनकी धार्मिक मान्यताएं छीनने का रहा है। यह क्रम निरन्तर बना हुआ है। भारत के मूल हिन्दुओं के बीच से 53 करोड़ से अधिक लोग इस्लाम की भट्ठी में ढकिल चुके हैं। 10 करोड़ से अधिक लोगों का ईसाई करण हो चुका है। मतान्तरण को बल देने के लिए भारत में अब इसके समर्थक राजनीतिक नेताओं की बड़ी सेना खड़ी हो चुकी है। भारत की अन्तरात्मा को विधर्मी सता रहे हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

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