Azadi ke Naayak: ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध 1857 में पहली सशक्त क्रान्ति हुई थी। अंग्रेजों के विरुद्ध यह सबसे बड़ा प्रहार था। जिसे भारत के चार सौ से अधिक नायकों ने संगठित होकर चलाया था। यह संग्राम इतना व्यापक था कि भारतीय भूखण्ड के सवा लाख वर्ग किमी से अधिक क्षेत्र में विस्तार लिए हुए था। इतने बड़े संग्राम के परिणाम स्वरूप अंग्रेजों को भारत छोड़कर भागना पड़ा था। अंग्रेजों की सशस्त्र सेना को अपनी छावनियों से जान बचाकर भागना पड़ा था। विभिन्न प्रकार के आग्नेयास्त्र छावनियों में ही छूट गये थे। जिनमें से अधिकांश भारत के क्रान्तिवीरों के हाथ लग गए थे।
अंग्रेज सैनिकों से अधिक उनके अधिकारी डरे हुये थे। भारत से भागने में भी वह सबसे आगे थे। हजारों की संख्या में अंग्रेज मारे जा चुके थे। यह पूरा संग्राम लगभग ग्यारह माह तक चला था, जिसमें चार लाख से अधिक भारतीयों को प्राण गंवाने पड़े थे। अंग्रेज इस बात से चकित थे कि भारत के हर क्षेत्र और वर्ग के क्रांन्तिवीरों ने संगठित होकर यह लड़ाई लड़ी थी। जबकि यह यथार्थ है कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के समर्थक भारत के कतिपय इतिहासकारों ने इस महान क्रान्ति के तथ्यों को अपनी स्याह लेखनी से कलंकित करने में सफलता प्राप्त की। इन इतिहासकारों ने इसे राष्ट्रद्रोह, बगावत और गदर जैसे शब्द प्रयोग करके निन्दनीय बना दिया।
ऐसे इतिहासकारों ने यह भी कहा कि यह केवल कुछ स्वार्थी राजाओं का षडयंत्र था, जो विफल रहा। जबकि समाज के हर वर्ग के वीरों ने इसमें भाग लिया था। कई दशक बाद सच्चा इतिहास सबके सामने आया। स्वयं ब्रिटिश इतिहासकारों ने इसे भारत के क्रान्तिकारियों द्वारा की गई पहली सफल क्रान्ति कहा। अंग्रेजों की इस स्वीकारोक्ति पर भी भारत के कूट इतिहासकारों ने अपनी भूल नहीं सुधारी। वह तो भारतीय क्रान्ति के नायकों को कलंकित करने और ब्रिटिश अधिकारियों से पोषित होने के लिए चाटुकारिता में लगे हुए थे। उन्हें भारत के स्वाभिमान से क्या लेना देना।
भारत के महान स्वतन्त्रता सेनानी वीर विनायक सावरकर ने इस क्रान्ति के 50 वर्ष बाद 550 पृष्ठ की पुस्तक 1857 का स्वातंत्र्य समर लिखकर इस महासमर की सच्चाई को जगजाहिर कर दिया। यह पुस्तक उन्होंने लंदन में प्रकाशित करायी। सावरकर के इस ऐतिहासिक ग्रंथ से प्रेरित एवं उत्साहित होकर बाद में अनेक लेखकों ने अपने साहित्य में 1857 के स्वतंत्रता सेनानायकों के युद्ध कौशल, योजनबद्ध लोकसंग्रह, शस्त्र एकत्रीकरण, गॉव गॉव तक पहुंचाने वाली गुप्त रणनीति और समयबद्ध अंग्रेजों की फौजी छावनियों पर आक्रमण आदि का वर्णन किया है। ब्रिटिश सरकार के अधिकृत दस्तावेजों में भी स्वीकार किया गया है कि इस जंग को लड़ने वाले भारतीय सेनानायकों की संख्या चार सौ से भी ज्यादा थी। अंग्रेजों ने यद्यपि नाना फडनवीस, तात्या टोपे, झॉसी की रानी लक्ष्मीबाई, कुंवर सिंह, मौलवी अजीमुल्ला खॉ, नान साहब पेशवा आदि सेनानायकों को बगावती तत्व कहकर पूरे महासमर को हल्का करने का विफल प्रयास किया। परन्तु यह एक सच्चाई है कि इन्हीं सेनापतियों ने पूरे भारत को एक युद्ध स्थल बना दिया था।
भारत के महान इतिहासकार-लेखक डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल के अनुसार, इस महासंघर्ष में चार करोड़ लोगों ने प्रत्यक्ष रूप सें भाग लिया। चार लाख भारतीयों का बलिदान हुआ। सम्पूर्ण देश का एक लाख वर्गमील क्षेत्र प्रभावित हुआ। वीर सावरकर ने लगभग एक हजार ग्रन्थों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला था कि इस संघर्ष को देश के कोने कोने में फैलाने के लिए गॉव गॉव तक रोटियॉ पहुंचाने, प्रत्येक फौजी छावनी तक कमल का फूल भेजने जैसी साधारण गतिविधियों के माध्यम से पूरे देश को जोड़ लिया गया। कमल और रोटी आत्म स्वाभिमान की भावना को प्रज्ज्वलित करने के प्रतीक रूप थे।
तीर्थ यात्राओं का आयोजन करके प्रत्येक देशवासी को हथियार बंद होने का आदेश दे दिया गया। इतना ही नहीं, स्वदेशी राजाओं और विदेशी शक्तियों से भी रणनीतिक सम्बन्द्ध स्थापित कर लिए गये थे। इस संघर्ष की रणनीति में सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों के विद्रोह, शस्त्रागारों पर नियन्त्रण, अंग्रेज अधिकारियों को समाप्त करने, सरकारी खजानों को लूटने एवं जेलों में बन्द भारतीय कैदियों को बलपूर्वक छुड़ाने जैसी सीधी कार्रवाइयॉ शामिल थीं। इन सशस्त्र संघर्ष का सीधा असर सम्पूर्ण भारत (अफगानिस्तान, भूटान, बलूचिस्तान तक) में हुआ।
इस महासमर में भारत की प्रत्येक जाति, मजहब, संप्रदाय, क्षेत्र और भाषा-भाषियों ने पूरी शक्ति के साथ भाग लिया। अत: यह मात्र सैनिक विद्रोह न होकर पूरे देश की पूरी जनता का संघर्ष था। स्पष्ट है कि यह सारा भारतवर्ष ही ब्रिटिश शासन के विरुद्ध शस्त्र उठाकर एकजुट हो गया हो, तो इस राष्ट्रीय जागरण का उद्देश्य समूचे भारत को अंग्रेजों के हाथों से छुड़ाकर पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना ही था। इसीलिए इस राष्ट्रव्यापी संघर्ष को स्वतंत्रता संग्राम कहा गया है। यही फिरंगियों को बर्दाश्त नहीं हुआ।
1857 की क्रान्ति की बड़ी चूक
जिस क्रान्ति का नायकत्व भारत भूमि के चार सौ से अधिक बड़े शूरमा कर रहे हों उसका अगुवा बनाने में सबसे बड़ी चूक हुई थी। मुगलों के वंशज अपने समय के सबसे लचर और बूढ़े नाम भर के सम्राट बहादुर शाह जफर को इस क्रान्ति का महानायक बना देना सबसे बड़ी भूल सिद्ध हुआ। बहादुरशाह जफर की विशेषता इतनी भर थी कि वह ऊर्दू के एक शायर थे। रणभूमि के शूरमा नहीं थे। नेतृत्व की क्षमता उनमें बिल्कुल नहीं थी। मुगल साम्राज्य प्राय: डूब चुका था। देश के ही नहीं दिल्ली के मुसलमान भी उनको निरर्थक बादशाह कहते थे। ऐसे व्यक्ति को 1857 की महानक्रान्ति का कमाण्डर घोषित करना नासझी थी। ऐसे असफल नायक के रहते हुये भी जिस तरह भारत के करोड़ों लोगों ने संग्राम में भाग लिया वह अप्रतिम था। तद्यपि 1857 का महासमर अंग्रेजों को भारत से सदा के लिए तो खदेड़ नहीं सका। पर उनके सीने पर बड़ी गहरी चोट पहुंचायी थी।
इसके अनेक कारणों में से एक कारण यह भी था कि इस सशस्त्र विद्रोह के संचालन सूत्र एक ऐसे शासक के हाथों में सौंप दिए गए, जो न सेनानायक ही था, न ही कुशल प्रशासक। सभी हिन्दू सेनानायकों ने भारत के अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर को सम्भवतया इसीलिए स्वतंत्रता समर का नेतृत्व सौंपा, ताकि मुसलिम समाज पूरी तरह से संघर्ष में कूद पड़े। हालांकि यह सत्य है कि साधारण मुसलमान पूरी तरह संघर्ष में शामिल हुआ। परन्तु अधिकांश मुल्ला-मौलवी, सम्भ्रान्त मुसलमान एवं नेता इस संघर्ष से दूर ही रहे। इतिहास लेखक डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल लिखते हैं- बहादुरशाह कोई चमत्कारी सम्राट नहीं था। वह समस्त राष्ट्र को जोड़ने वाली नहीं, अपितु सबसे कमजोर कड़ी था। राजनीतिक दृष्टि से यदि वह जोड़ने वाली कड़ी होती, देश के किसी कोने में उसकी जय जयकार होती। यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि बहादुरशाह के बुलावे पर कोई भी राजा अथवा रजवाड़ा संघर्ष के लिए आगे नहीं आया। ये सभी शक्तियां स्वयमेव स्वतंत्रता संग्राम में आगे आयीं।
छद्म इतिहासकारों के द्वेश का कारण
यह प्रश्न अनेक लोग पूछते हैं कि 1857 की महान क्रान्ति को भारत के कतिपय छद्म इतिहासकारों ने द्वेश भरी दृष्टि से क्यों देखा। यह प्रश्न सर्वाधिक विचारणीय बन चुका है। जब इतिहासकारों के साथ ही निष्पक्ष समीक्षा करने वालों ने भी मान लिया कि 1857 का स्वातंत्र्य समर देशव्यापी था। नायकत्व के एक चूक के अतिरिक्त शूरमाओं ने कोई भूल नहीं की थी। समाज के सभी वर्गों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार उठा था। तो फिर ऐसे इतिहासकार कौन थे, जिन्होंने साम्राज्यवाद का पक्ष लिया। इसका बड़ा कारण यह था कि क्रान्ति के महानायकों में अधिकांश हिन्दू थे। इसका यह आशय लगाना ठीक नहीं है कि मुसलिम समाज ने इससे पूरी तरह दूरी बनाई थी। सामाजिक एका क्रान्ति की बड़ी शक्ति थी। कतिपय मुसलिम रियासतों के अतिरिक्त सामाजिक स्तर पर मुसलमानों की सहभागिता दिखाई देती है। सिखों, जैनियों, जन जाति समाज, भारत के निचले पायदान पर खड़ी जातियों के नायकों ने बढ़चढ़कर भाग लिया। छद्म इतिहासकारों को लगा कि इसके मुख्य नायक वस्तुत: हिन्दू हैं, यदि उनकी कलम से इस क्रान्ति को सफल लिखा गया तो हिन्दुत्व को बढ़ावा मिलेगा।
ऐसे मतिमंद इतिहासकार यह मानने लगे थे कि 1857 की क्रान्ति को लोग हिन्दुत्ववादी शक्तियों का प्रचंड जागरण मान सकते हैं। इसलिए इसके तथ्यों को विकृत करने में अपनी शक्ति लगा दी। वास्तव में भारत में गत एक हजार वर्ष से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की सुरक्षा/स्वतंत्रता के लिए निरन्तर लड़े जा रहे संग्राम की एक महत्वपूर्ण कड़ी था, यह 1857 का महायुद्ध। अंग्रेजों द्वारा दुष्प्रचारित यह बगावत उन्हीं के हिन्दुत्व विरोधी षडयंत्र के विरुद्ध एक सशस्त्र प्रयास था। 19वीं शताब्दी के शुरू होते ही ईसाई पादरियों ने सत्ता का निरंकुश सहारा लेकर देश के प्रत्येक हिस्से में साम-दाम-दंड-भेद द्वारा ईसाइकरण का जो अभियान छेड़ा, उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भारत में हिन्दुत्व के पुरोधाओं ने जो सुधार आन्दोलन प्रारम्भ किए, वही 1857 के संग्राम की मुख्य प्रेरणा/चेतना बनकर सामने आये।
भारत में स्वामी रामकृष्ण परमहंस और उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द के साथ ही आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती, गुरु गोविन्द सिंह सहित सिख पन्थ के अनेक गुरुओं और सनातन हिन्दू संस्कृति के प्राय: सभी महान आध्यात्मिक गुरुओं पुरोधाओं का यह अभिमत रहा है कि भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को आधार बनाए बिना सम्प्रभुता की रक्षा नहीं की जा सकती। भारत में जब कभी राष्ट्रवाद का नाम लिया जाता है, तो भारत विरोधी शक्तियां ऑखे तरेरने लगती हैं। उनकी श्वांस की गति बढ़ जाती है। उन्हें पता है कि भारत में राष्ट्रवाद का अर्थ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद ही है। भारतीय संस्कृति संसार की सभी संस्कृतियों में श्रोष्ठतम है। भारत के वीरों ने कभी शस्त्र लेकर हिन्दुत्व अर्थात सनातन संस्कृति का प्रचार-प्रसार नहीं किया। भारत का सांस्कृतिक साम्राज्य पृथ्वी के बहुत बड़े भाग में विस्तार पाने में सफल हुआ। पर इसके लिए कभी रक्तपात नहीं करना पड़ा। वेचारिक क्रान्ति का आधार सदा भारतीय संस्कति रही है। इसीलिए विश्व के सभी देशों में इसे मान्यता मिलती रही। हमारे विचार ही हमारी उन्नति और विस्तार के आधार बने। जिनका अनुसरण सभी ने किया।
इसे भी पढ़ें: विश्व का प्रथम विश्वविद्यालय तक्षशिला
जब भारत में राष्ट्रवाद पर ऑच आई तब सभी ने माना कि भारत की सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की धार को पैना करना होगा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने कहा था कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के जागरण में ही भारत के राष्ट्रवाद का पुरुत्थान निहित है। उनके शिष्य स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका और यूरोप में भ्रमण करते हुए प्राय: सभी सभाओं में भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की गंभीरता को व्यक्त किया था। उन्होंने कहा था कि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद मानवता के लिए प्रकाश स्तम्भ है। सवामी दयानन्द सरस्वती ने भी भारत को स्वाधीन कराने के लिए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को पुष्ट किया था। सिख पन्थ की बलिदानी परम्परा में यही बात निहित रही है। भारत के सभी पन्थों और मतों के प्रणेताओं ने भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को उच्चतम आदर्श के रूप में मान्यता दी है। दुर्भाग्य से भारत के कतिपय राजनेताओं ने इसे अंग्रेजों के चश्मे से देखा और भारत को अनुचित दिशा में ले जाने का हठ पाल लिया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
इसे भी पढ़ें: नेहरू का राष्ट्रवाद और अमेरिकी लेखक