Narendra Bhadoria
नरेन्द्र भदौरिया

भारत के राजनीतिक पर्यावरण को प्रदूषित करने का विदेशी एजेंसियों द्वारा प्रेरित षडयन्त्र बन्द नहीं हुआ है। लोकसभा चुनाव को प्रभावित करके नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार को अपदस्थ करने में मिली असफलता के बाद भी भारत के विपक्षी गठबन्धन का उत्साह बढ़ा हुआ है। विगत आम चुनाव में विदेशों विशेषत: अमेरिका की ओर से नरेन्द्र मोदी के विरुद्ध पोलिटिकल इको सिस्टम को प्रभावित करने का प्रयास किया गया था। इसकी घोषणा अमेरिका के एक षडयन्त्रकारी धनपति सोरेस द्वारा खुलकर की गयी थी। इसलिए यह कहने में किसी को कोई संकोच नहीं है कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमन्त्री के रूप में तीसरी बार सफल होने से रोकने में अरबों डालर की धनराशि व्यय की गयी।

नरेन्द्र मोदी को लोकसभा में गठबन्धन सरकार के बल पर तीसरी बार सत्तारूढ़ होने का अवसर मिला। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी को लोकसभा में प्रतिपक्षी नेता की कुर्सी मिल गयी। यह बात सभी मानते हैं कि यदि विदेशी षडयन्त्र के बल पर राजनीतिक परिस्थितिकी को बदलने के लिए इतना बड़ा प्रयास नहीं होता तो कांग्रेस को पुनर्जीवन नहीं मिलता। और न ही इण्डी गठबन्धन के नाम पर देश के विभिन्न राजनीतिक दल एक सूत्र में बंध पाते। भारत में बीजेपी को अपदस्थ करने में दो सामाजिक घटकों की अभिरुचि सर्वाधिक बनी हुई है। इस्लाम और ईसाइयत के दोनों खेमे भाजपा को सत्ता से हटाने के लिए एकमत हैं। इसे यदि पहला घटक कहा जाय तो दूसरे घटक के रूप में कांग्रेस और वामपन्थी हैं। वामपन्थी दलों के हाथों से सत्ता के छोटे अधिष्ठान भी फिसलते जा रहे हैं। वामपन्थियों का एक स्वरूप नगरीय नक्सल धड़े के रूप में कुछ वर्षों से उभरता दिखायी दे रहा था। केजरीवाल के नेतृत्व में यह धड़ा दिल्ली के बाद पंजाब में सफल हुआ। वर्तमान परिस्थितियों में भाजपा की रणनीति के चलते नगरीय नक्सल राजनीति का फन कुचला गया है। फिर भी यह धड़ा इण्डी गठबन्धन का एक हिस्सा बनने के लिए उतावलापन दिखा रहा है।

बदलती परिस्थितियों में इस्लामी कट्टरता को बढ़ाकर भारत की राजनीति में हिंसक उबाल लाने के प्रयोग किये जा रहे हैं। यह प्रयोग करके पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस को सफलता मिली है। इस उदाहरण को दोहराने का प्रयोग उत्तर प्रदेश और बिहार में किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ ने कानून व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के नाम पर इस्लामी कट्टरता पर दृष्टि गड़ा रखी है। उनके नेतृत्व में राज्य का प्रशासन यदि तनिक शिथिल हो जाय तो इस राज्य में साम्प्रदायिक उत्पात की स्थिति खड़ी हो जाएगी। इसका कारण यह है कि समाजवादी पार्टी हर घटना के परिप्रेक्ष्य मंि अपने मुसलिम लगाव को पूरी शक्ति से दर्शाने को आतुर हो जाती है। यही कारण है कि उत्तर प्रदेश में इस्लामी कट्टरता अपना फन फैलाकर खड़ी दिखायी दे रही है।

योगी आदित्यनाथ एक स्वच्छ छवि के दृढ़ प्रतिज्ञ मुख्यमन्त्री बनकर उभरे हैं। उत्तर प्रदेश जैसा विशाल राज्य कई दशक से मजहबी कट्टरता के दंश से झुलसता रहा है। योगी आदित्यनाथ जैसा मुख्यमन्त्री यदि सामने न खड़ा होता तो इस राज्य में अब तक दंगों की झड़ी लग गयी होती। एक ओर हिन्दु समाज और इसके संगठन योगी के साथ दीवार बनकर खड़े हैं तो दूसरी ओर मजहबी कट्टरता को हवा देने वाले राजनीतिक दल बिना किसी संकोच के समानान्तर चुनौती उत्पन्न कर रहे हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा को मुसलमानों का पक्ष खुलकर लेने का लाभ मिल चुका है। इसी बात से उत्साहित होकर राहुल गांधी और अखिलेश यादव 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव को दृष्टि में रखकर मजहबी नेताओं की पीठ थपथपा रहे हैं। ऐसा कोई अवसर यह दोनों नेता हाथ से नहीं जाने देते जिससे मुसलिम वोट बैंक को साधने की परिस्थिति बनती हो।

प्रदेश के राजनीतिक वातावरण के विष का सीधा प्रभाव समाज पर पड़ा है। पिछले कुछ महीनों से ऐसे समाचारों की झड़ी लगी है जिनके कारण हिन्दु और मुसलमानों की बीच का वैमनस्य तेजी से बढ़ रहा है। गाजियाबाद से कुछ दिन पहले एक समाचार हवा में उछला कि हिन्दु परिवार में भोजन बनाने वाली एक मुसलिम महिला के विरुद्ध पुलिस ने कार्रवाई की। उस पर आरोप था कि वह उस परिवार के लिए रोटियां बनाने के आटे में अपना पेशाब मिला देती थी। इसी प्रकार पश्चिम उत्तर प्रदेश के कई ठिकानों से दूषित भोजन परोसने में मुसलिम कर्मचारियों की साजिश सामने आयी। देश के अन्य भागों से भी ऐसे अनेक प्रकरण समाचार बनकर वातावरण को विषाक्त बनाते रहे हैं। हिन्दु और मुसलमानों के बीच के सम्बन्धों में दरार बढ़ती जा रही है। फलों-सब्जियों के बिक्रेता हों या नाई की कतिपय दुकानों पर काम करने वाले लोग, इनके प्रति सन्देह बढ़ाने वाली बातें बढ़ती जा रही हैं।

सोशल मीडिया में काम करने वाले बहुतांश लोगों की नीयत कहीं इस विष को और गाढ़ा करने में तो नहीं है। क्योंकि वर्तमान भारत में सोशल मीडिया अन्य सभी प्रचार माध्यमों की तुलना में अग्रणी भूमिका निभा रहा है। गांवों-कस्बों से लेकर महानगरों तक सोशल मीडिया इतना प्रचण्ड रूप धारण कर चुका है कि टीवी और समाचार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम बौने सिद्ध हो रहे हैं। ट्वीटर, वाट्सएप, फेसबुक जैसे माध्यम पूरी तरह स्वतन्त्र हैं। राज्यों के प्रशासनिक और पुलिस अधिकारी हों अथवा समाज के प्रभावी लोग सभी पर सोशल मीडिया की छाप एक ऐसी बन्दूक के रूप में है जिसे कभी कोई दाग सकता है।

यदि कोई यह प्रश्न करे कि भारत में समाचार तन्त्र का संचालक कौन है तो उत्तर खोजने वाले चक्कर खाते रहेंगे। सरकार की भूमिका स्वच्छन्दचारिता पर नगण्य दिखायी पड़ रही है। इसका एक लाभ बार-बार बताया जाता है कि अब टीवी और प्रिण्ट मीडिया के भरोसे बैठे रहने की आवश्यकता नहीं है। इस खुलेपन का एक बड़ा दोष सामने आ रहा है कि विदेशों में बैठे षडयन्त्रकारी भारत के किसी भी क्षेत्र में उपद्रवियों को उकसाने के लिए समर्थ हैं। भारत में विभेद पैदा करने के लिए ऐसे विमर्श कौन उछाल रहा है जिनका उद्देश्य समाज में खलबली और कटुता फैलाना है। ऐसे विमर्शों के माध्यम से वातावरण को विषाक्त करने वाली एजेंसियां चिन्हित की जानी चाहिए। इनका स्रोत क्या है यह पता लगाने का प्रयास होना चाहिए।

भारतीय रेल की छवि बिगाड़ने के लिए कई महीनों से निरन्तर प्रयास किये जा रहे हैं। रेल की पटरियों पर ऐसी चीजें षडयन्त्र पूर्वक रखी जाती रही हैं जिससे बड़ी दुर्घटना हो जाय। इतने पर भी कोई पकड़ा नहीं गया। इसका अर्थ यह तो नहीं कि उत्पात के पीछे कोई गिरोह सक्रिय नहीं रहा। सामाजिक वातावरण का निरन्तर विषाक्त होना दीर्घकाल में गम्भीर परिणाम दे सकता है। लोकसभा चुनाव के पहले से लेकर अब तक जो कुछ भी होता आ रहा है उसके पीछे सक्रिय राजनेताओं, देसी और विदेशी एजेंसियों के सूत्रों को खंगालना आवश्यक है। भारत के मुसलमानों को कट्टरता की ओर कौन झोंक रहा है।

निश्चित रूप से मुसलिम पक्ष के बड़े मौलानाओं की चुप्पी घातक परिणाम दे सकती है। विश्वास की भावना को लौटाना सभी पक्षों का दायित्व है। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि उत्तर प्रदेश देवबन्दी और बरेलवी मुसलमानों के बड़े मौलानाओं का गढ़ है। इन दोनों समूहों में यह सामर्थ्य है कि वह उन बौने मजहबी और राजनीतिक नेताओं को सऊर सिखाने की पहल करें। जो मुसलिम वोट बैंक के लिए देश को घृणा की ज्वाला में झोंकने पर उतारू हैं। राहुल गांधी और अखिलेश यादव हों अथवा बिहार के लालू कुल के नायक तेजस्वी यादव, इन सभी का अनुभव इतना बड़ा नहीं है कि वह अपनी पार्टी के हित से बढ़कर देश के हित की बात सोच सकें।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ कार्यव्यवहार की दृष्टि से कभी मुसलमानों के प्रति उपेक्षा अथवा भेदभाव दर्शाने वाले निर्णय नहीं करते। राज्य में खाद्यान्न वितरण की नीति हो, बिना शुल्क लिए सरकारी अस्पतालों में उपचार की व्यवस्था हो अथवा अन्य सभी प्रकार की राजकीय योजनाओं का लाभ मुसलमानों को बिना भेदभाव के मिल रहा है। कानून व्यवस्था की नीति में कहीं कृपणता नहीं दिखायी देती। जबकि अखिलेश और राहुल दोनों की ओर से ऐसे निरर्थक आरोप लगाये जाते हैं। ऐसे आरोपों का उद्देश्य राज्य में साम्प्रदायिक तनाव भड़का कर अपना उद्देश्य सिद्ध करना है। ऐसी राजनीति समाज के हित में नहीं है।

उत्तर प्रदेश कई दशकों से कानून व्यवस्था की दुर्दशा से ग्रस्त रहा है। इसीलिए राज्य में ओद्यौगिक विकास का वातावरण नहीं बन पाया। इन परिस्थितियों में सुधार होना हिन्दु हो या मुसलमान सभी के हित में है। देश के हित को देखते हुए विद्वेष फैलाने वाले नेताओं को अपनी चाल और चरित्र पर ध्यान देना चाहिए। सामाजिक वातावरण को विषाक्त कर रही शक्तियों पर अंकुश लगाया जाना चाहिए। स्थिति को इस तरह बिगाड़ा जा रहा है मानों चन्द दिनों में इस राज्य में पश्चिम बंगाल की तरह वैमनस्य और हिंसा का खुला नाच शुरू होने वाला है। उत्तर प्रदेश के प्रबुद्ध नागरिकों की भूमिका सदा से सधी हुई रही है। कटुता का जहर घोलने वालों को चिन्हित करके उन्हें न्यायालय के साथ ही समाज के समक्ष उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। समाज को सही दिशा देने वालों को शक्ति प्रदान करने की आवश्यकता है। सरकारी एजेंसियां अपना काम करें पर समाज का गुरुतर दायित्व सम्भालने वालों की अनदेखी न हो।

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क्षोभ की बात है कि बड़बोले और छुटभैये नेताओं की भांति बड़ों के मुंह में कोई पैमाना नहीं रह गया है। उन्हें सत्ता पाने की इतनी भूख है कि कटुता बढ़ाने के लिए कुछ भी बोलने में संकोच नहीं कर रहे। विपक्ष के एक नेता ने लाउडस्पीकर पर भारत के प्रधान न्यायाधीश के लिए अपशब्दों का प्रयोग किया। तनिक सी बातों पर संज्ञान लेने वाली न्यायपालिका को ऐसे बयानों पर कठोर कार्रवाई के लिए तैयार रहना चाहिए। जो न्यायपालिका अपराधियों के बचाव के लिए रात में अपने कपाट खोलने में संकोच नहीं करती वह अनर्गल बोलने वालों की बातों पर कान क्यों नहीं देती। न्याय की परिभाषाएं नहीं बदला करतीं।

जिन्हें कानून का भय नहीं है उन्हें इसकी अनूभूति कराना न्यायपालिका का ही दायित्व है। अनेक बार अनर्गल बातें किसी मामले में तथ्यों को उलझाने के लिए जानबूझकर बोली जाती हैं। एक बड़े नेता ने बहराइच के जघन्य हत्याकाण्ड के सन्दर्भ में तथ्यों को पलटने का प्रयास किया। ऐसा बयान दिया कि यह ध्वनित हो सके कि जिसकी हत्या की गयी वही दोषी था। जिसने हत्या की उनकी दृष्टि में वह निरीह और निर्दोष है। जिन तथ्यों का परीक्षण न्यायालय में होना है उनमें तोड़-मरोड़ करने वाले नेताओं को आखिर कौन सही राह दिखाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

(यह लेखक के निजी विचार हैं।)

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