सृष्टि की तीन अवस्थाएं। युद्ध, संकट और शांति। संतुलन का दायित्व हमारा और आपका है। इन तीनों की उपस्थिति रहेगी ही। संस्कृति और सभ्यता के साथ इनकी समता और विषमता घटती बढ़ती है। यह सनातन भारत के इतिहास में भी मिलता है और वर्तमान तो साक्षी है ही। अभी केवल एक उद्धरण यहां दिया जा रहा। काल श्रीराम के बाल्यावस्था का है।
बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी।
बसहिं बिपिन सुभ आश्रम जानी।।
जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं।
अति मारीच सुबाहुहि डरहीं।।
देखत जग्य निसाचर धावहिं।
करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।
सिद्धाश्रम के कुल प्रमुख और महर्षि विश्वामित्र जी जिनके जप यज्ञ का उद्देश्य विश्व के कल्याण (विश्व+मित्र) के लिए था, अक्रोध, जीतेंद्रिय भाव से संपन्न करना था, फिर भी निशाचरों की दृष्टि में अनुचित लगा। विश्वामित्र जो कभी एक क्षत्रिय राजा गाधिनरेश के रूप में प्रसिद्ध थे और वशिष्ठ जी के ब्रह्मतेज से पराजित होने के बाद तपबल से महामुनि/विप्र हुए, सिद्धाश्रम बक्सर की पावन तपोभूमि पर निवास करने लगे लेकिन वहां भी समस्या- देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।
तात्पर्य ये कि चुनौतियां/संघर्ष, सभी जगह है। ये कभी पीछा नहीं छोड़ता। अतः व्यक्ति को तदनुरूप सामना करना चाहिए क्योंकि आप जिसे अकंटक समझ रहे वह सदा अकंटक नहीं रह पाता। कुछ ऐसे दुष्ट होते ही हैं जो शुभ आश्रम को अशुभ बनाने में लगे रहते हैं यद्यपि उससे उन्हें कोई लाभ नहीं । परंतु स्वभाव ही ऐसा है कि- परहित हानि लाभ जिन्ह केरे। उजरे हरष बिषाद बसेरे।।
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वे दूसरे के हानि में स्वयं के लाभ देखते हैं, किसी के उजड़ना उनके हर्ष एवं सुखपूर्वक वास से पीड़ा होती है। ताड़का पुत्र मारीच एवं सुबाहु उसी श्रेणी के दुष्ट थे जो ये देखते रहते थे कि कब ऋषि मुनि यज्ञ आदि अनुष्ठान करें, हवन प्रारंभ करें कि उसमें रक्त, अस्थि आदि अपवित्र पदार्थ डालकर यज्ञ नष्ट भ्रष्ट कर दें – देखत जग्य निसाचर धावहिं।
देखत अर्थात् कोई सुरक्षा व्यवस्था के लिए पहरा देता है और ये दुष्ट किसी को हानि करने के लिए दिन रात देखते रहते थे। वे यज्ञ को नष्ट भ्रष्ट करते हैं तो ऋषि मुनियों को दुख होता है और ऋषि मुनियों को दुखी देखकर निसाचरों को सुख शांति। यही तो है निसाचरी वृत्ति,और यही है उन दुष्टों की पहचान। भारत ही नही, विश्व इसी संकट से गुजर रहा है। ।।जयसियाराम।।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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