अरबिन्द शर्मा (अजनवी)
अरबिन्द शर्मा (अजनवी)

धवल चांदनी छिटक रही है,
नूर समेटे बांहों में।
चुपके से आ जाओ प्रियतम,
नैन निहारे राहों में।

मन में विरह का ताप बहुत है,
दूर..! निंद का डेरा है।
सिसक रहा तन सेज अकेले,
शीत ऋतु का घेरा है।

मन व्याकुल है दर्श को प्रियतम,
तुम्हें नहीं सूध मेरी…!
शीत पवन मंथर गती डोले,
सिहर उठे तन मेरी।

यह विकल प्रतिक्षा! तेरा प्रियतम,
साँझ ढले आ जाती है।
माना की जीवन व्यस्त बहुत, क्या
याद! तुम्हें नहीं आती है…?

तुम, साथ मेरे जो होते प्रियतम,
रात सुहानी होती।
यह तन्हाई का तम, मिट जाता,
तेरे बाँहों! में जो होती।

बीत गये जो पल ये सुहाने,
लौट कभी ना आयेंगे!
चुपके से आ जाओ प्रियतम,
मिल मधुमास मनायेंगे…!

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