ट्रेन चलने को ही थी कि अचानक कोई जाना पहचाना सा चेहरा जर्नल बोगी में आ गया। मैं अकेली सफर पर थी। सब अजनबी चेहरे थे। स्लीपर का टिकट नहीं मिला तो जनरल डिब्बे में ही बैठना पड़ा। मगर यहां ऐसे हालात में उस शख्स से मिलना। जिंदगी के लिए एक संजीवनी के समान था। जिंदगी भी कमबख्त कभी कभी अजीब से मोड़़ पर ले आती है। ऐसे हालातों से सामना करवा देती है, जिसकी कल्पना तो क्या कभी ख्याल भी नहीं कर सकते।

वो आया और मेरे पास ही खाली जगह पर बैठ गया। न मेरी तरफ देखा, न पहचानने की कोशिश की। चुपचाप पास आकर बैठ गया। बाहर सावन की रिमझिम लगी थी। इस कारण वो कुछ भीग गया था। मैंने कनखियों से नजर बचा कर उसे देखा। उम्र के इस मोड़ पर भी कमबख्त वैसा का वैसा ही था। हां कुछ भारी हो गया था। मगर इतना ज्यादा भी नहीं। फिर उसने जेब से चश्मा निकाला और मोबाइल में लग गया।

चश्मा देख कर मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। उम्र का यही एक निशान उस पर नजर आया था कि आंखों पर चश्मा चढ़ गया था। चेहरे पर और सिर पर मैंने सफेद बाल खोजने की कोशिश की मग़र मुझे नहीं दिखे। मैंने जल्दी से सिर पर साड़ी का पल्लू डाल लिया। बालों को डाई किए काफी दिन हो गए थे मुझे। ज्यादा तो नही थे सफेद बाल मेरे सिर पर। मगर इतने जरूर थे कि गौर से देखो तो नजर आ जाए।

मैं उठकर बाथरूम गई। हैंड बैग से फेसवाश निकाला चेहरे को ढंग से धोया फिर शीशे में चेहरे को गौर से देखा। पसंद तो नहीं आया मगर अजीब सा मुँह बना कर मैंने शीशा बैग में डाला और वापस अपनी जगह पर आ गई। मग़र वो साहब तो खिड़की की तरफ से मेरा बैग सरकाकर खुद खिड़की के पास बैठ गए थे।

मुझे पूरी तरह देखा भी नही बस बिना देखे ही कहा, “सॉरी, भाग कर चढ़ा तो पसीना आ गया था। थोड़ा सुख जाए फिर अपनी जगह बैठ जाऊंगा।” फिर वह अपने मोबाइल में लग गया। मेरी इच्छा जानने की कोशिश भी नहीं की। उसकी यही बात हमेशा मुझे बुरी लगती थी। फिर भी न जाने उसमें ऐसा क्या था कि आज तक मैंने उसे नहीं भुलाया। एक वो था कि दस सालों में ही भूल गया। मैंने सोचा शायद अभी तक गौर नहीं किया। पहचान लेगा। थोड़ी मोटी हो गई हूं। शायद इसलिए नहीं पहचाना। मैं उदास हो गई।

जिस शख्स को जीवन में कभी भुला ही नहीं पाई, उसको मेरा चेहरा ही याद नहीं। माना कि ये औरतों और लड़कियों को ताड़ने की इसकी आदत नहीं, मग़र पहचाने भी नही। शादीशुदा है। मैं भी शादीशुदा हूं, जानती थी इसके साथ रहना मुश्किल है, मग़र इसका मतलब यह तो नहीं कि अपने खयालो को अपने सपनों को जीना छोड़ दूं। एक तमन्ना थी कि कुछ पल खुल के उसके साथ गुजारूं। माहौल दोस्ताना ही हो मग़र हो तो सही।

आज वही शख्स पास बैठा था, जिसे स्कूल टाइम से मैंने दिल में बसा रखा था। सोशल मीडिया पर उसके सारे अकाउंट चोरी छिपे देखा करती थी। उसकी हर कविता, हर शायरी में खुद को खोजा करती थी। वह तो आज पहचान ही नही रहा। माना कि हम लोगों में कभी प्यार की पींगे नहीं चली। न कभी इजहार हुआ। हां वो हमेशा मेरी केयर करता था, और मैं उसकी केयर करती थी। कॉलेज छूटा तो मेरी शादी हो गई और वो फ़ौज में चला गया। फिर उसकी शादी हुई। जब भी गांव गई उसकी सारी खबर ले आती थी। बस ऐसे ही जिंदगी गुजर गई।

आधे घण्टे से ऊपर हो गया। वो आराम से खिड़की के पास बैठा मोबाइल में लगा था। देखना तो दूर चेहरा भी ऊपर नहीं किया। मैं कभी मोबाइल में देखती कभी उसकी तरफ। सोशल मीडिया पर उसके अकाउंट खोल कर देखें। तस्वीर मिलाई। वही था। पक्का वही। कोई शक नहीं था। वैसे भी हम महिलाएं पहचानने में कभी भी धोखा नहीं खा सकती। 20 साल बाद भी सिर्फ आंखों से पहचान ले। फिर और कुछ वक्त गुजरा। माहौल वैसा का वैसा था। मैं बस पहलू बदलती रही। फिर अचानक टीटी आ गया। सबसे टिकट पूछ रहा था। मैंने अपना टिकट दिखा दिया। उससे पूछा तो उसने कहा नहीं है।

टीटी बोला, ‘फाइन लगेगा’, वह बोला, ‘लगा दो।’ टीटी, ‘कहाँ का टिकिट बनाऊं?’ उसने जल्दी से जवाब नहीं दिया। मेरी तरफ देखने लगा। मैं कुछ समझी नहीं। उसने मेरे हाथ में थमी टिकट को गौर से देखा फिर टीटी से बोला, ‘कानपुर।’ टीटी ने कानपुर की टिकट बना कर दी। और पैसे लेकर चला गया। वह फिर से मोबाइल में तल्लीन हो गया। आखिर मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पूछ ही लिया, ‘कानपुर में कहाँ रहते हो?’ वह मोबाइल में नजरें गढ़ाए हुए ही बोला, ‘कहीँ नहीं।’ वह चुप हो गया तो मैं फिर बोली, ‘किसी काम से जा रहे हो।’ वह बोला, ‘हां।’

अब मैं चुप हो गई। वह अजनबी की तरह बात कर रहा था और अजनबी से कैसे पूछ लूं किस काम से जा रहे हो। कुछ देर चुप रहने के बाद फिर मैंने पूछ ही लिया, वहां शायद आप नौकरी करते हो? उसने कहा, नहीं। मैंने फिर हिम्मत कर के पूछा ‘तो किसी से मिलने जा रहे हो?’
वही संक्षिप्त उत्तर, नहीं। आखरी जवाब सुनकर मेरी हिम्मत नहीं हुई कि और भी कुछ पूछूं। अजीब आदमी था। बिना काम सफर कर रहा था।

मैं मुंह फेर कर अपने मोबाइल में लग गई। कुछ देर बाद खुद ही बोला, ‘ये भी पूछ लो क्यों जा रहा हूं कानपुर?’ मेरे मुंह से जल्दी में निकला, बताओ, क्यों जा रहे हो? फिर अपने ही उतावलेपन पर मुझे शर्म सी आ गई। उसने थोड़ा सा मुस्कराते हुए कहा, एक पुरानी दोस्त मिल गई। जो आज अकेले सफर पर जा रही थी। फौजी आदमी हूं। सुरक्षा करना मेरा कर्तव्य है। अकेले कैसे जाने देता। इसलिए उसे कानपुर तक छोड़ने जा रहा हूँ। इतना सुनकर मेरा दिल जोर से धड़का। नॉर्मल नहीं रह सकी मैं। मग़र मन के भावों को दबाने का असफल प्रयत्न करते हुए मैंने हिम्मत कर के फिर पूछा, कहां है वो दोस्त?

कमबख्त फिर मुस्कराता हुआ बोला, यहीं मेरे पास बैठी है न। इतना सुनकर मेरे सब कुछ समझ में आ गया कि क्यों उसने टिकट नहीं लिया। क्योंकि उसे तो पता ही नहीं था, मैं कहां जा रही हूं। सिर्फ और सिर्फ मेरे लिए वह दिल्ली से कानपुर का सफर कर रहा था। जान कर इतनी खुशी मिली कि आंखों में आंसू आ गए। दिल के भीतर एक गोला सा बना और फट गया। परिणाम में आंखे तो भिगनी ही थी। बोला, रो क्यों रही हो? मैं बस इतना ही कह पाई, तुम मर्द हो नहीं समझ सकते।

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वह बोला, क्योंकि थोड़ा बहुत लिख लेता हूं, इसलिए एक कवि और लेखक भी हूं। सब समझ सकता हूं। मैंने खुद को संभालते हुए कहा कि शुक्रिया, मुझे पहचानने के लिए और मेरे लिए इतना टाइम निकालने के लिए। वह बोला, प्लेटफार्म पर अकेली घूम रही थी। कोई साथ नहीं दिखा तो आना पड़ा। कल ही रक्षा बंधन था। इसलिए बहुत भीड़ है। तुमको यूं अकेले सफर नहीं करना चाहिए।

क्या करती, उनको छुट्टी नहीं मिल रही थी। और भाई यहां दिल्ली में आकर बस गए। राखी बांधने तो आना ही था। मैंने मजबूरी बताई। ऐसे भाइयों को राखी बांधने आई हो जिनको ये भी फिक्र नहीं कि बहिन इतना लंबा सफर अकेले कैसे करेगी? भाई शादी के बाद भाई रहे ही नहीं। भाभियों के हो गए। मम्मी पापा रहे नहीं। कह कर मैं उदास हो गई।

वह फिर बोला, तो पति को तो समझना चाहिए। उनकी बहुत बिजी लाइफ है, मैं ज्यादा डिस्टर्ब नहीं करती। और आजकल इतना खतरा नहीं रहा। कर लेती हूं मैं अकेले सफर। तुम अपनी सुनाओ कैसे हो? अच्छा हूँ, कट रही है जिंदगी। मेरी याद आती थी क्या? मैंने हिम्मत कर के पूछा। वो चुप हो गया। कुछ नही बोला तो मैं फिर बोली, सॉरी, यूँ ही पूछ लिया। अब तो परिपक्व हो गए हैं। कर सकते है ऐसी बात। उसने शर्ट की बाजू की बटन खोल कर हाथ में पहना वो तांबे का कड़ा दिखाया जो मैंने ही फ्रेंडशिप डे पर उसे दिया था। बोला, याद तो नहीं आती पर कमबख्त ये तेरी याद दिला देता था।

कड़ा देख कर दिल को बहुत शुकुन मिला। मैं बोली “कभी सम्पर्क क्यों नही किया?” वह बोला,डिस्टर्ब नही करना चाहता था। तुम्हारी अपनी जिंदगी है और मेरी अपनी जिंदगी है। मैंने डरते डरते पूछा, तुम्हे छू लुं। वह बोला, पाप नही लगेगा? मैं बोली,”नहीं छूने से नहीं लगता। और फिर मैं कानपुर तक उसका हाथ पकड़ कर बैठी रही। बहुत सी बातें हुईं। जिंदगी का एक ऐसा यादगार दिन था, जिसे आखरी सांस तक नहीं भुला पाऊंगी। वह मुझे सुरक्षित घर छोड़ कर गया। रुका नहीं। बाहर से ही चला गया।

जम्मू थी उसकी ड्यूटी। चला गया। उसके बाद उससे कभी बात नहीं हुई। क्योंकि हम दोनों ने एक दूसरे के फोन नम्बर नहीं लिए। हालांकि हमारे बीच कभी भी नापाक कुछ भी नहीं हुआ। एक पवित्र सा रिश्ता था। मगर रिश्तों की गरिमा बनाए रखना जरूरी था। फिर ठीक एक महीने बाद मैंने अखबार में पढ़ा कि वो देश के लिए शहीद हो गया। क्या गुजरी होगी मुझ पर वर्णन नहीं कर सकती। उसके परिवार पर क्या गुजरी होगी। पता नहीं। लोकलाज के डर से मैं उसके अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकी।

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आज उससे मिले एक साल हो गया है। आज भी रक्षाबन्धन का दूसरा दिन है। आज भी सफर कर रही हूं। दिल्ली से कानपुर जा रही हूं। जानबूझकर जर्नल डिब्बे का टिकट लिया है मैंने। अकेली हूं। न जाने दिल क्यों आस पाले बैठा है कि आज फिर आएगा और पसीना सुखाने के लिए उसी खिड़की के पास बैठेगा। एक सफर वो था, जिसमें कोई हमसफ़र था। एक सफर आज है जिसमे उसकी यादें हमसफ़र है। बाकी जिंदगी का सफर जारी है। देखते है कौन मिलता है कौन साथ छोड़ता है।

(साभार पंडित वैभव भट्ट फेसबुक वाल)

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