देवेश पांडेय

नई दिल्ली: हिन्दुस्तान की राजनीति में शरद पवार (Sharad Pawar) को शतरंज का ऐसा उस्ताद माना जाता है जो दोनों ओर से खेलते हैं। कोई हारे या कोई जीते, शरद पवार (Sharad Pawar) हमेशा फायदे में रहते हैं। महाराष्ट्र में ढाई साल पहले हुए चुनाव में बीजेपी और शिवसेना (Shiv Sena) गठबंधन को बहुमत मिला था, लेकिन शरद पवार (Sharad Pawar) की बातों में आकर उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) ने बीजेपी से रिश्ते तोड़ लिए और खुद सीएम बन गए। सीएम बनने के दौरान पिछले ढाई साल में वो बीजेपी से भिड़ते गए और शरद पवार (Sharad Pawar) को अपना ‘गुरु’ मान लिया। बाल ठाकरे के कट्टर शिवसैनिकों के लिए ये बर्दाश्त करना बेहद मुश्किल होता जा रहा था। विधायकों ने कई बार इसकी शिकायत की, लेकिन उद्धव ठाकरे (Uddhav Thackeray) से मुलाकात करना ही मुश्किल था। जनता से कटकर रहने वाले उद्धव (Uddhav Thackeray) को पता ही नहीं लगा कि एकनाथ शिन्दे सभी विधायकों के इतने करीबी बन गए कि उनकी एक आवाज पर पूरी पार्टी उनके साथ चली गई।

जब एकनाथ शिन्दे के साथ ज़्यादातर विधायक असम पहुंच गए, तो उद्धव ठाकरे ने शिवसैनिकों से भावुक अपील की। उनको लगा कि शिव सैनिक बागियों के खिलाफ प्रदर्शन शुरू कर देंगे, पूरे महाराष्ट्र में विधायकों का विरोध शुरू हो जाएगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। फिर जब उन्होंने सीएम आवास वर्षा छोड़ा, तब उसकी वीडियो जारी की, उस पर भी कोई बड़ी हलचल नहीं हुई। साफ था कि पार्टी अब एकनाथ शिन्दे के हाथ में आ चुकी है और उद्धव किनारे लग चुके हैं।

विधायकों की मजबूरी ये है कि अगले चुनाव में एनसीपी और कांग्रेस गठबंधन के साथ लड़ने पर उनको हिन्दुत्व वाले वोट नहीं मिलेंगे और एनसीपी, कांग्रेस के वोट उनको शिफ्ट नहीं होंगे। शिवसेना की कट्टर छवि वोटरों के मन में तो है ही। ये बात उद्धव ठाकरे समझकर भी कुर्सी के मोह में टाल रहे थे, एमएलसी चुनाव में क्रॉस वोटिंग से ये मैसेज साफ हो गया कि सभी विधायक यही सोच रहे हैं। तभी घात लगाए बैठे फडनवीस ने एकनाथ शिन्दे के कंधे पर बंदूक रखकर निशाना लगा दिया।

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जानकार बताते हैं कि मोदी, अमित शाह और फडनवीस से लड़ने के चक्कर में उद्धव, शरद पवार पर इतना ज़्यादा निर्भर हो गए कि अपनी असली संघर्ष की ताकत खो बैठे। शिवसना का कोर हिन्दुत्व, जो बीजेपी से भी दो कदम आगे था, उससे बड़ा समझौता करना उनकी मजबूरी हो गई। सीएम तो बन गए, लेकिन बहुत बड़ी कीमत देकर। अब अगर लौटना भी चाहें तो लंबा सफर तय करना होगा।

एकनाथ शिन्दे बहुत आगे निकल गए हैं। मजे की बात ये है कि शरद पवार के हाथों में अभी भी लड्डू हैं, वो अभी भी मोदी के खास हैं और विपक्ष के भी महत्वपूर्ण नेता बने हुए हैं। ये होती है असली राजनीति, जिसे समझने में दशकों लगते हैं। खैर कुछ भी हो लेकिन उद्धव ठाकरे ने एक सख्त मिजाज लेकिन एक सौम्य राजनेता के तौर पर अपनी जो पहचान बनाई, उसकी कद्र की जानी चाहिए। अभी तो महाराष्ट्र की राजनीति कई करवट लेगी।

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