जब रसोई में दाना न हो,
छप्पन भोग बना दे।

सोने को बिछौना न हो,
पलकें बिछा दे।

सिर पर छत न हो,
आँचल ओढ़ा दे।

रोने को कंधा न हो,
हथेलियाँ बढ़ा दे।

काकी कहती वो स्त्री,
‘सुतायमन’ कहलाती है।

‘सुतायमन’ शब्द केवल,
स्त्रियों को ही संबोधित है,
स्त्रियों से ही संबधित है,
स्त्रियों से ही अपेक्षित है,
स्त्रियों के लिए ही आरक्षित है।

इसी तमगे की चाह में
वे वारी गई,
मारी गई!

पदार्थ की तीनों अवस्थाएं,
उसकी चुटकी के इशारे,
और अंदाजे पर ठहरी है!

– स्त्री रंग सुजाता

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