

बांहें अपनी खोल रहा है,
जहर फिजां में घोल रहा है।
माताजी उसको अब रोको,
पप्पू ज्यादा बोल रहा है।
अपनी ही धुन में रहता है,
आंय-बांय कुछ भी बकता है।
ऐंग्रीमैन उसे सब मानें,
ऐसे- हाव- भाव करता है।
खानदान का लिए पिटारा,
भानुमती को तोल रहा है।
माताजी उसको अब रोको,
पप्पू ज्यादा बोल रहा है।
चारे उसने कितने डाले!
जमकर नारे खूब उछाले!
गन्दी गलियों में जा-जाकर,
कपड़े तक गन्दे कर डाले!
बदबू ऐसी घुसी नाक में,
भेजा उसका डोल रहा है।
माताजी उसको अब रोको,
पप्पू ज्यादा बोल रहा है।
अब सपने फिर दिखा रहा है,
सब्जबाग में घुमा रहा है।
ए.सी. घर से पुनः निकलकर,
बाहर चक्कर लगा रहा है।
साठ साल से लोकतन्त्र में
यही ढोल में पोल रहा है।
माताजी उसको अब रोको,
पप्पू ज्यादा बोल रहा है।
गोटी अपनी बिछा रहा था,
भाई-भाई लड़ा रहा था।
सेकुलरिज्म का बैंण्ड बजाकर
सबको उल्लू बना रहा था।
मगर ‘श्याम’ चल रही है आंधी,
सिंहासन अब डोल रहा है।
माताजी उसको अब रोको,
पप्पू ज्यादा बोल रहा है।
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