Shyam Kumar
श्याम कुमार

ससुरी गरमी खाय रही है।
दिन मा दुइ-दुइ बार नहाई
लागै बम्बा मा घुसि जाई।
जब देखो तब बिजुरी गायब,
ओकरे संगे पानिउ गायब।
झाड़ू-पोंछा अबै लगावा,
आंधी चली, दंड हम पावा।
चुऐ पसीना महुआ के अस,
बदरौ कपड़ा, फिर जस का तस।
रहौ उघारे, गरमी भागै,
छोट जांघिया, नूनी झांकै
लालटेन मा बारौ बाती,
पंखा झलत रहौ दिनराती।

जइसे मौत बुलाय रही है,
ससुरी गरमी खाय रही है।

लेकिन गरमिउ मा ई सुख है,
जेकरे आगे कम हर दुख है।
हुरौ फालसा-खिन्नी दिनभर,
चाभौ खीरा-ककड़ी मनभर।
भोजन का झंझट अस ठेलौ,
सतुआ सान मुहें मा पेलौ।
गटकौ पना गिलासे भरकर,
सूतौ लस्सी-मट्ठा जीभर।
मींजौ बेल बनावौ सरबत,
दिनभर खूब लड़ावौ सरबत।
लीची कै तो स्वाद निराला,
जइस मुहें रसगुल्ला डाला।
ठंडक पाओ, गरमी रोकौ,
खरबूजा, तरबूज भकोसौ।
डरवा मा फैलाओ अब्बै,
फींचा कपड़ा, सूखै तुरतै।
‘श्याम’ न ई सुख मिलिहै जादा,
बरखा रितु नगचाय रही है।

ससुरी गरमी जाय रही है।

इसे भी पढ़ें: मैं नदी-नाल का केवट हूँ

इसे भी पढ़ें: जब रसोई में दाना न हो

Spread the news