Pauranik Katha: एक मजेदार और सोचने वाली घटना है भगवान श्रीकृष्ण और रुक्मिणी जी के साथ। एक बार की बात है, द्वारका में श्रीकृष्ण दातुन कर रहे थे और रुक्मिणी जी उन्हें पानी देने के लिए खड़ी थीं। अचानक श्रीकृष्ण जोर से हँस पड़े।
रुक्मिणी जी को लगा कि शायद उनसे सेवा में कोई चूक हो गई है। उन्होंने डरते-डरते पूछा, प्रभु, आप इतने जोर से क्यों हँस रहे हैं? क्या मैंने कोई गलती कर दी? श्रीकृष्ण ने मुस्कुराकर कहा, नहीं प्रिये, तुम्हारी सेवा में कोई कमी नहीं है। मैं तो उस छोटे से चींटे को देखकर हँस रहा हूँ।
रुक्मिणी जी ने देखा, एक चींटा एक चींटी के पीछे पागलों की तरह दौड़ रहा था। वह और भी हैरान रह गईं। उन्होंने कहा, प्रभु, इस चींटे के दौड़ने में ऐसा क्या है जो आपको हँसी आ गई?
तब श्रीकृष्ण ने एक चौंकाने वाला राज़ बताया। उन्होंने कहा, रुक्मिणी, यह चींटा कोई साधारण चींटा नहीं है। मैंने इसे अपने पिछले जन्मों में चौदह बार इंद्र बनाया है! देवताओं के राजा का पद पाने के बाद भी, आज एक छोटी सी चींटी के पीछे भागने की इसकी इच्छा देखकर मुझे अपनी माया की शक्ति पर हँसी आ गई।
कहानी से सीख: श्रीकृष्ण ने आगे समझाया कि इंद्र का पद भी एक भोग है, जो अच्छे कर्मों से मिलता है, लेकिन भोग खत्म होते ही फिर से जन्म लेना पड़ता है। असली समस्या हमारी वासनाएँ और इच्छाएँ हैं। जब तक हम इन इच्छाओं के गुलाम बने रहेंगे, तब तक जन्म-मरण के इस चक्कर से छुटकारा नहीं मिल सकता।
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जिस समय मनुष्य की मृत्यु होती है, उस समय उसके मन में जिस चीज़ की इच्छा होती है, उसी के अनुसार उसे अगला जन्म मिलता है। इसलिए, सुखी जीवन और मुक्ति का एक ही रास्ता है- वासनाओं पर काबू पाना। जिस तरह आग में घी डालने से वह और भड़कती है, उसी तरह भोग में डूबे रहने से वासनाएँ और बढ़ती हैं। इन्हें शांत करने के लिए संयम रूपी ठंडे पानी की ज़रूरत होती है। एक श्लोक में यही बात कही गई है।
नास्ति तृष्णासमं दु:खं, नास्ति त्यागसमं सुखम्।
इच्छा के समान कोई दुख नहीं है, और त्याग के समान कोई सुख नहीं है। सभी तरह की इच्छाओं को छोड़कर, केवल भगवान की शरण में जाने से ही असली शांति और आनंद मिलता है।
कवि तुलसीदास जी भी कहते हैं- बुझै न काम अगिनि तुलसी कहुँ, विषय भोग बहु घी ते।
(हे तुलसी, भोग तो आग में घी डालने के समान है, जो काम की आग को और नहीं बुझाते, बल्कि बढ़ाते हैं।)
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