
नई दिल्ली: पाकिस्तान एक बार फिर चर्चा में है और इस बार वजह है वहां के सेनाध्यक्ष (Asim Munir) को ‘हार’ के इनाम के तौर पर मिल रही पदोन्नति। जिस जनरल ने भारत के सामने अपनी सेना की नाक कटवाई, उसे अब फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया जा रहा है। जी हां, हम बात कर रहे हैं जनरल सैयद असीम मुनीर (Asim Munir) की, जिन्हें पाकिस्तान की संघीय कैबिनेट ने इस उच्चतम सैन्य पद पर प्रमोट करने की मंजूरी दे दी है।
पाकिस्तान की राजनीति और सेना के रिश्तों से वाकिफ लोग जानते हैं कि वहां सैन्य असफलताएं कभी जिम्मेदारी का कारण नहीं बनतीं, उल्टा ऊंचे ओहदे का रास्ता बन जाती हैं। यही हो रहा है असीम मुनीर के साथ। हाल ही में भारत द्वारा किए गए सख्त जवाबी सैन्य कदमों से पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे पाकिस्तान बैकफुट पर आ गया। इसके बावजूद पाकिस्तान की सरकार ने इस जवाबी कार्रवाई को भी अपनी ‘जीत’ बताकर अपने सेनाध्यक्ष को सम्मानित करने का फैसला किया।
यह पहली बार नहीं है जब ऐसा हुआ हो। पाकिस्तान के इतिहास में इससे पहले जनरल अयूब खान को भी फील्ड मार्शल की उपाधि दी गई थी और उनका इतिहास भी विफलताओं और तानाशाही से भरा हुआ है। जनरल असीम मुनीर को यह सम्मान इसलिए दिया जा रहा है, क्योंकि उन्होंने ‘बुनयान उल मरसूस’ नामक सैन्य अभियान का नेतृत्व किया और कथित रूप से पाकिस्तान की सुरक्षा को मजबूत किया। हालांकि, हकीकत यह है कि हाल ही में भारत द्वारा पाकिस्तान में स्थित आतंकी ठिकानों पर की गई सटीक और निर्णायक कार्रवाई के बाद पाकिस्तान की स्थिति अंतरराष्ट्रीय मंच पर कमजोर हुई है। बावजूद इसके, पाकिस्तान सरकार और सेना ने इस स्थिति को एक ‘रणनीतिक जीत’ की तरह पेश किया।
पाकिस्तानी कैबिनेट का तर्क है कि जनरल मुनीर ने देश की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा में अद्वितीय भूमिका निभाई और इसलिए उन्हें फील्ड मार्शल का दर्जा दिया जा रहा है। इसके साथ ही, कैबिनेट ने शहीद सैनिकों की आत्मा की शांति के लिए फातिहा भी पढ़ी। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह सब एक दिखावा मात्र है? भारतीय सेना की कार्रवाई के बाद पाकिस्तान के झूठे दावे एक-एक कर दुनिया के सामने बेनकाब हो चुके हैं। जबकि भारत ने अपने जवाबी हमलों को तथ्यों और प्रमाणों के साथ वैश्विक मंच पर पेश किया, पाकिस्तान केवल प्रचार और झूठे बयानों के बल पर अपनी ‘कथित जीत’ का जश्न मना रहा है।
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अब एक नजर अयूब खान पर, जिन्हें असीम मुनीर से पहले यह उपाधि मिली थी। अयूब खान पाकिस्तान के पहले स्वदेशी सेनाध्यक्ष थे, जिन्होंने बाद में 1958 में सत्ता पर कब्जा कर लिया और सैन्य तानाशाही की शुरुआत की। उनके शासनकाल में भ्रष्टाचार, धांधली और निरंकुशता ने जड़ें जमाईं। 1965 की जंग में भारत से करारी शिकस्त के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। उनका अंत भी एक बीमार और अकेले तानाशाह की तरह हुआ। इन दोनों सेनाध्यक्षों के उदाहरण यह दिखाते हैं कि पाकिस्तान में सैन्य नेतृत्व की असफलताएं कभी सजा नहीं बनतीं, बल्कि वे प्रशंसा और पुरस्कार में बदल जाती हैं। देश की जनता को बार-बार “झूठी जीत” का सपना दिखाकर बहलाया जाता है, और सेनाध्यक्षों के सीने पर सितारे टांके जाते हैं।
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