प्रो. कृपाशंकर चौबे

जनसंचार के गंभीर अध्येता प्रो. संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘भारतबोध का नया समय’ का पहला ही निबंध इसी शीर्षक से है। भारतबोध की समझ को स्पष्ट करने के लिए लेखक ने गांधी, धर्मपाल, लोहिया, वासुदेव शरण अग्रवाल, निर्मल वर्मा से लेकर रामविलास शर्मा के राष्ट्रबोध संबंधी चिंतन का अवलंबन लिया है। इस निबंध में संजय द्विवेदी ठीक कहते हैं कि भारतीय दर्शन संपूर्ण जीव सृष्टि का दर्शन है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि समस्त ब्रह्मांड के मंगल की ही कामना सनातन धर्म करता है और अध्यात्मवाद भी। ‘सर्वे भवन्ति सुखिनः’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ जैसी सूक्तियों को छोड़ भी दें तो प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में कहा गया है, ‘विश्व पुष्टं ग्रामे अस्मिन अनातुरम’।

अथर्ववेद में भी कहा गया है, ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु’। भारतीय दर्शन में लोक को सबसे अधिक वरीयता दी जाती है। लोक कोरे मनुष्य नहीं, सारे जीव-जंतु, सभी वनस्पति, नदी, समुद्र, पहाड़ सबको लेकर बनता है। भारतीय दृष्टि चूंकि पेड़, पत्ते, दूब, पौधे, नदी, समुद्र, पहाड़ में दैवी सत्ता का साक्षात्कार करती है, इसीलिए वह उदात्त है। भारतबोध की शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की पुकार कुछ लोग सुन रहे हैं, कुछ सुनकर भी बहरे बने हुए हैं। वैसे ही लोग भारतबोध की बहस को बहकाने में लगे हैं। संजय द्विवेदी लिखते हैं कि विविधता में एकता देश की प्रकृति है। जाहिर है कि विविधता भारत की कमजोरी नहीं, शक्ति है। एक और महत्त्वपूर्ण बात संजय द्विवेदी ने कही है कि भारत राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना है।

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इस सांस्कृतिक अवधारणा का विस्तार रवींद्रनाथ ठाकुर तक की रचनाओं में भी हम देख सकते हैं। ‘भारत तीर्थ’ कविता में टैगोर कहते हैं-आर्य अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सब यहां एक देह में लीन हो गए। यह देह ही भारतबोध है। उसी विश्व भ्रातृत्व भावना को विवेकानंद के शिकागो भाषण के संबोधन के चार शब्दों ‘मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनों’ में समूचे विश्व ने साक्षात किया था। विवेकानंद इसीलिए विश्व को धर्म का मर्म समझा पाए थे। संजय द्विवेदी ने विवेकानंद को सही अभिप्राय में उद्धृत किया है। किताब में विवेकानंद पर एक स्वतंत्र अध्याय भी है। उसका शीर्षक है ‘विवेकानंद : युवा शक्ति के प्रेरक’। विवेकानंद ने कहा था, “उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं।” विवेकानंद ने देशवासियों में ही ईश्वर को देखा था। उन्होंने कहा था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। इस महान विचार के कारण विवेकानंद सदा-सर्वदा प्रेरणा पुरुष बने रहेंगे।

पुस्तक में आजादी के अमृत महोत्सव पर स्वतंत्र अध्याय है, जिसमें संजय द्विवेदी बताते हैं कि कितने उत्कट बलिदानों के बाद आजादी मिली। आजादी के बाद के भारत को गढ़ने में जिनका भी योगदान रहा, उसका वे स्मरण करते हैं। इस तरह के प्रसंगों के कारण पूरी पुस्तक एकांगी होने के दोष से मुक्त है। इसी अध्याय में लेखक ने वेद और श्रीमद्भागवत गीता को उद्धृत कर अमृत महोत्सव का आशय बताया है। एक वैदिक ऋचा में कहा गया है, ‘मृत्योः मुक्षीय मामृतात्’ अर्थात हम दुःख, कष्ट, क्लेश और विनाश से निकलकर अमृत की तरफ बढ़ें। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘सम दुःख-सुखम् धीरम् सः अमृत त्वाय कत्यचे’ अर्थात जो सुख-दुःख, आराम, चुनौतियों के बीच भी धैर्य के साथ अटल, अडिग और सम रहता है, वही अमृत को, अमरत्व को प्राप्त करता है।

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लेखक ने ‘स्वतंत्रता आंदोलन और पत्रकारिता’ शीर्षक अध्याय में जेल-जब्ती-जुर्मानेवाली पत्रकारिता का स्मरण किया है। पुस्तक में संकलित ‘लोकमंगल है मीडिया का धर्म’, ‘पत्रकारिता में नैतिकता’, ‘नारद : लोकमंगल के संचार कर्ता’, ‘आंबेडकर और मूकनायक’, ‘भारतीय पत्रकारिता के कर्मवीर’, ‘एकात्म मानववाद और मीडिया दृष्टि’, ‘मन की बात’ शीर्षक लेख पत्रकारिता के विद्यार्थियों व अध्येताओं के लिए बहुत उपयोगी हैं। लगे हाथ ‘मीडिया शिक्षा के सौ वर्ष’ और राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर भी अलग-अलग अध्यायों में संजय द्विवेदी ने विहंगम दृष्टि डाली है। लेखक ने गांधी, माधव राव सप्रे, वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेंद्र मोदी की प्रेरणाओं के प्रयोजन को भी रेखांकित किया है। एक अलग अध्याय में लेखक ने ‘नए भारत की चुनौती’ पर विचार किया है, तो श्रीराम, गौसंवर्द्धन, योग, संसद, मिशन कर्मयोगी पर भी। समकालीन भारत और विमर्शों को समझने के लिए यह पुस्तक कुंजी का काम करेगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष हैं।)

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